Wednesday, December 25, 2024
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ड्रायवर ने कहा, कार की डिक्की में जज साहब बैठे हैंः जस्टिस लीला सेठ की पुस्तक में कई रोचक खुलासे

लीला सेठ हाईकोर्ट की पहली महिला चीफ जस्टिस थीं. जब वह रिटायर हुईं तो सरकार ने उन्हें लॉ कमीशन का मेंबर बना दिया. सेठ अपनी आत्मकथा ”घर और अदालत” में लिखती हैं रिटायरमेंट के बाद में मध्यस्थता के काम में उलझ गई थी. उसी दौर में मेरे पास कानून मंत्री का फ़ोन आया. उन्होंने कहा कि सरकार मुझे 15वें विधि आयोग का पूर्णकालिक सदस्य नियुक्त करना चाहती है, जिसका कार्यकाल 1997 से 2000 तक होगा. मैं इस प्रस्ताव से चकित थी. मन में थोड़ी आशंका भी थी. मैंने कानून मंत्री से पूछा कि आयोग का अध्यक्ष कौन होगा. जब उन्होंने बताया कि जस्टिस जीवन रेड्डी अध्यक्ष होंगे तो मैं आयोग से जुड़ने को तैयार हो गई. 10 नवंबर को आयोग ज्वाइन कर लिया.

सेठ लिखती हैं कि जब मैं आयोग में शामिल हुई, तब तब जस्टिस जीवन रेड्डी विदेश गए थे. इसलिये ज्यादा न्यायिक कामकाज नहीं था. पर मेरे कमरे के बाहर हमेशा काफी हलचल रहा करती थी. एक दिन मैं कुछ किताबें और रिपोर्ट पढ़ने की तैयारी कर रही होती, तभी गलियारे में खासा शोर सुनाई दिया. मैंने घंटी बजाई और शोरगुल का कारण जानना चाहा तो मुझे बताया गया कि चपरासी और अन्य लोग चाय पी रहे हैं. ऐसा दिन में कई बार होता. जब मैंने पूछा कि क्या चाय पीते समय इतना शोरगुल मचाना जरूरी है तो मुझे बताया गया कि स्टाफ़ ऐसा कई सालों से कर रहा है और उन्हें भी तनाव दूर करने के लिए कुछ तो चाहिए. धीरे-धीरे मुझे समझ आ गया कि या तो ऊंची आवाज में बातचीत झेलती रहूं या इन लोगों के एकदम गायब जाने को झेलूं, जब बार-बार घंटी बजाने पर भी नहीं आएंगे.

सेठ लिखती हैं कि मैं जल्द ही सरकारी कार्यालयों में अड़ियल और जाति के आधार पर बंटे कामकाज वाले माहौल को समझ गई थी. विधि आयोग शास्त्री भवन की सातवीं मंजिल पर था. मेरे ऑफिस से अटैच कोई बाथरूम नहीं था. कॉमन बाथरूम का नल लीक करता था. वहां एक टूटी हुई हरे रंग की गंदी प्लास्टिक की बाल्टी रखी हुई थी, गुलाबी रंग का मग था जिसका हैंडल टूटा हुआ था और टॉयलेट पेपर भी नहीं था. टॉयलट की खिड़की का शीशा चीकट हो चुका था, क्योंकि उसे बाहर से साफ़ करने की कोई व्यवस्था नहीं थी. खिड़की का एक हिस्सा टूटा हुआ था, जिससे ठंडी हवा को आने से रोकने के लिए दफ़्ती का टुकड़ा लगा दिया गया था.

फ्लश भी नहीं चलता था. उसे ठीक कराने के लिए मुझे हफ्तों लगातार अनुरोध करना पड़ता. कई चिट्ठियां लिखनी पड़ीं, तब जाकर ठीक हुआ, पर थोड़े दिन के बाद वह फिर से टूट जाता. मेरा कमरा देखने में सीपीडब्ल्यूडी के दफ्तर की तरह लगता था. फर्नीचर के आगे बड़े-बड़े अंकों व अक्षरों में नंबर और जानकारी दर्ज थी कि यह किसे आवंटित है, ताकि कोई झगड़ा न हो.

बकौल सेठ, ऑफिस स्टाफ मेज से लगी मेरी कुर्सी पर गुलाबी रंग की तौलिया टांगने पर जोर देता था, जिसमें बैंगनी रंग के बड़े फूल बने थे, ताकि कुर्सी पर बालों का तेल न लगे. मैंने उसे तुरंत हटा दिया. हालांकि साफ़-सफ़ाई और पद की प्रतिष्ठा को लेकर मेरी अज्ञानता पर उन्हें हैरानी थी और उन्होंने इस पर ऐतराज़ भी जताया था. मैंने मेज-कुर्सियों को घुमवाया, पोस्टर और तस्वीरें लगवा दीं, फिर प्लास्टिक के फूलों को फेंकवाया और उनके स्थान पर सिरेमिक फूलदान में हरे मनी प्लांट लगवाए, प्लास्टिक के सारे पेन और पेंसिल केसों को हटवाया, और गोपनीय दस्तावेज़ रखे जाने वाली गंदी सी हरे रंग की स्टील की अलमारी को हिमालय के बर्फ़ीले चित्रों की तस्वीरों से ढंकवाया. मैं घर से डस्टर क्लॉथ लाई और फ़र्नीचरों को साफ किया.

लीला सेठ लिखती हैं कि एक दिन अजीब वाकया हुआ. मुझे सफेद रंग की एम्बेस्डर कार मुहैया कराई गई थी, सरकारी कर्मचारियों को लाने-ले जाने के लिए यही गाड़ी दी गई थी. लेकिन जब मैंने ड्राइवर से अपना सामान कार की डिग्गी में रखने को कहा तो उसने विचित्र नजरों से देखा और उसे पीछे रखने के बजाय अगली सीट पर अपने बगल में रख लिया. जब जब जोर देकर कहा कि मैं चाहती हूं कि मेरा सामान पीछे रखे तो उसने कहा कि वह ऐसा नहीं कर सकता, क्योंकि वहां जस्टिस कुलदीप सिंह ‘बैठे’ हैं।

मुझे उसकी टिप्पणी पर झटका सा लगा. मैंने उससे पूछा कि वह ऐसा क्यों बोल रहा है. उसने कहा कि मैं खुद पीछे देख लूं. उसने जब डिग्गी उठाई तो मैंने वहां एक बड़ा कंप्रेस्ड गैस सिलेंडर रखा देखा, जिसने सामान रखने की पूरी जगह को घेर रखा था. उसने मुझे बताया कि यह सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस कुलदीप सिंह के दिए गए एक फ़ैसले का नतीजा है, सभी पुरानी सरकारी एम्बेस्डर कारों को इसी तरह अस्थायी रूप से सीएनजी में बदल दिया गया है.

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