आह…आह…आह… दुष्यन्त कुमार की याद
बेहद भावुक, व्यथित और सुन्न करने वाली मगर यादगार शाम। भोपाल के दुष्यन्त कुमार संग्रहालय में दुष्यन्त की जयंती पर उनकी यादों के साथ आखिरी कार्यक्रम। इसी इलाके में कभी दुष्यन्त रात रात भर अपने मित्रों और गजलों के साथ महफिलें जमाते थे। इसी इलाके में उनके परिवार के लोगों ने वर्षों तक काव्य धारा फूटते देखी। इसी इलाके में दुष्यन्त के दीवाने राजुरकर राज ने अपने को मिटाकर दुष्यन्त संग्रहालय को आकार दिया। दुष्यन्त के घर पर बुलडोजर चल गया। संग्रहालय भी चंद रोज बाद जमींदोज हो जाएगा। सरकार अब इस इलाके में स्मार्टसिटी बनाना चाहती है। स्मार्ट सिटी याने बड़ी बड़ी बहुमंजिला इमारतें खड़ी हो जाएंगी। आने वाली नस्लें अपने दुष्यन्त कुमार जैसे पूर्वजों की गंध से भी दूर हो जाएंगीं। सरकार कहती है संग्रहालय के लिए एक घर दे रही है।
बहरहाल! आज के कार्यक्रम के लिए पहुंचे तो जी धक्क से रह गया। गुलजार बस्ती उजड़ चुकी थी। संग्रहालय भी पीछे से बुलडोजर की बलि चढ़ गया। खुले आसमान में जलेबी और मंगौड़े खाते मन एकदम भारी हो गया, जब राजुरकर राज का चेहरा देखा। एक तो बीमारी के कारण और दूसरा आज आखिरी कार्यक्रम शायद ज्यादा तड़प दे रहा था। इसी वजह से दुष्यन्त की पत्नी और हमारी चाची राजेश्वरी देवी बीमारी के बाद भी मुंबई से भोपाल पहुंचीं। बेटे आलोक, उनकी पत्नी और कमलेश्वर की बेटी ममता जी तथा उनकी बेटी इस समारोह में आए। इसके अलावा दुष्यन्त की मंडली के एक और सदस्य तथा उस दौर के क्रांतिकारी कवि दिनकर सोनवलकर के बेटे प्रतीक सोनवलकर अपने संगीत साथियों के साथ दुष्यन्त की गजलों को हम तक पहुंचाने उज्जैन से आए। भोपाल के कमिश्नर और साहित्य प्रेमी कवींद्र कियावत और भोपाल के शब्द संसार से जुड़े जाने माने लोग मौजूद थे। मैं भी इन पलों का खास गवाह था। सबके दिल भरे हुए थे। पलकों पे सितारे बार बार चमक जाते थे। गजलें सुनते रहे। आह और वाह करते रहे। प्रतीक ने एक के बाद एक शानदार प्रस्तुतियों से दुष्यन्त को हमारे सामने लाकर खड़ा कर दिया। उज्जैन के जॉइंट कमिश्नर प्रतीक ने संगीत कहीं सीखा नहीं, लेकिन उनकी संगीत की समझ अदभुत है। साये में धूप संग्रह की एक से बढ़कर एक चुनिंदा गजलें –
कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो /ये जुबां हमसे सी नहीं जाती, जिन्दगी है कि जी नहीं जाती/ कहां तो तय था चिरागां हरेक घर के लिए, कहां चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए/ भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ, आजकल दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्दआ/ कहीं पे धूप की चादर बिछाके बैठ गए/ चांदनी छत पे चल रही होगी जैसी और भी अनेक गजलें। सच कहूं…..प्रस्तुतियां लाजबाब थीं, तालियां भी गूंज रही थीं लेकिन मन में कोलाहल था।
बार बार राजुरकरजी का चेहरा जेहन में घूम रहा था। एक भीषण झंझावात का सामना वो अंदर ही अंदर कर रहे थे। मिलने पर मुस्कराए भी थे, लेकिन उनका चेहरा सब कुछ बयान कर रहा था। जैसे सब कुछ लुट गया हो। हम आपकी वेदना समझ सकते हैं राजुरकरजी। स्मार्ट सिटी क्या समझेगी दुष्यन्त के दीवानों का हाल। दुष्यन्त के बेटे आलोक भी अपनी पीड़ा छिपा न सके। मैंने भी यही कहा कि अगर स्थान बदलने से भरपाई होती तो क्या बात थी। फिर भी हम सबके भीतर एक छोटा दुष्यन्त मौजूद है। उसे भी आक्रोश आता है। लानत है ऐसी स्मार्ट सिटी पर, जो इमारतों का जंगल खड़ा करती है और दो पैरों वाले बुद्धि निरपेक्ष उसका इस्तेमाल करते हैं। भगवान न करे कभी पोरबंदर, नालन्दा, वैशाली, लमही, शांति निकेतन, कुरुक्षेत्र, सेवाग्राम, पवनार, मथुरा, वृंदावन, अयोध्या जैसे शहरों में स्मार्ट सिटी बने। क्या पता कितने पूर्वजों की निशानियों की हत्या हो जाए।कई बार क्रांति कोई ढोल नहीं बजाती।खामोशी से भी हो जाती है।
अरविंद सोनी जी का संचालन गरिमा वान रहा। संग्रहालय की कार्यकारी अध्यक्ष ममता तिवारी ने स्वागत वक्तव्य दिया और संरक्षक वामनकर जी ने आभार माना।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं व राज्यसभा टीवी के पूर्व कार्यकारी निदेशक हैं)
साभार- http://www.samachar4media.com से