पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव की घोषणा के साथ जो राजनीतिक बिगुल बजा है 11 दिसंबर को मतगणना के साथ उसकी प्रक्रिया समाप्त हो जाएगी। लेकिन यहां अल्पविराम की संभावना भी नहीं है, क्योंकि 2019 के आम चुनाव के लिए राजनीतिक मोर्चाबदंी जारी रहेगी। इन राज्यों में कुल 680 विधानसभा सीटें हैं। इसमें 2013 के चुनावों भाजपा को सबसे ज्यादा 382, कांग्रेस को 169, बसपा को 8 तेलांगना राष्ट्र समिति या टीआरएस को 82 तथा मिजो नेशनल फ्रंट को 5 सीटें मिलीं थीं। इस तरह एक साथ मिलाकर देखने से यह भाजपा बनाम कांग्रेस की ही लड़ाई दिखती है। किंतु तेलांगना में टीआरएस को जितनी सफलता मिलेगी कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए वहां 2019 की चुनौती बढ़ जाएगी। टीआरएस के प्रमुख एन चन्द्रशेखर राव गैर भाजपा गैर कांग्रेस मोर्चा की वकालत कर रहे हैं।
चूंकि यह 2019 के आम चुनाव से पहले के चुनाव हैं इसलिए इन्हें उसके पूर्वपीठिका के रुप में देखा जाना स्वाभाविक है। वैसे इन राज्यों में जिन पार्टियों को विधानसभा में सफलता मिली हैं वे ही प्रायः लोकसभा चुनाव में भी अच्छा प्रदर्शन कर पातीं हैं। इन राज्यों में लोकसभा की कुल 83 लोकसभा सीटें हैं। इनमें से 2014 में भाजपा ने 63, कांग्रेस ने 6 तथा टीआरएस ने 11 सीटें जीतीं थीं। इस समय कांग्रेस के पास 9 सीटें हैं और भाजपा के पास 60। तीन उप चुनाव कांग्रेस ने जीती है। जाहिर है, भाजपा को 2019 के अंकगणित तक पहुंचना है तो मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ तथा राजस्थान चुनावों में 2013 को दुहराना होगा, तेलांगना एवं मिजोरम में अपना प्रदर्शन बेहतर करना होगा। अगर कांग्रेस 2019 में बेहतर प्रदर्शन करना चाहती है तो कम से कम मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं राजस्थान में उसे वापसी करनी होगी।
वास्तव में राष्ट्रीय राजनीति की दृष्टि से राजस्थान, मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ का महत्व ज्यादा है। पहले राजस्थान से आरंभ करें। 2013 में वहां अशोक गहलोत के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी। 2013 आते-आते स्थिति बदल चुकी थी। नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय क्षितिज पर आ गए थे। जरबदस्त आकर्षण उनके प्रति था। केन्द्र में कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार एक साथ भ्रष्टाचार और काहिली के आरोपों से दबी हुई थी। मोदी की सभाओं में समां बंधतीं थी। पूरा माहौल पलट गया। भाजपा को रिकॉर्ड 163 सीटें मिलीं। काग्रेस को 21 पर सिमटना पड़ा जो उसके लिए न्यूनतम रिकॉर्ड है। भाजपा को 45.17 प्रतिशत, कांग्रेस को 33.07 प्रतिशत, बसपा को 3.37 प्रतिशत तथा नेशनल पीपुल्स पार्टी को 4.25 प्रतिशत मत मिले थे। दोनों मुख्य पार्टियों के बीच 12 प्रतिशत का बहुत बड़ा अंतर था। भाजपा ने 1 करोड़ 39 लाख 39 हजार 203 मत पाए। कांग्रेस को 1 करोड़ 2 लाख 4 हजार 694 मत मिले। करीब 37 लाख मतों का अंतर। प्रति सीट औसतन करीब 18 हजार का अंतर। यह बहुत बड़ा अंतर था। मध्यप्रदेश में भाजपा को 165, कांग्रेस को 58, बहुजन समाज पार्टी को 4 तथा निर्दलीय को 3 सीटें मिलीं थीं। लगातार तीसरे चुनाव में भाजपा की सीटें बढ़ीं तथा कांग्रेस की घटी। भाजपा को 44.88 प्रतिशत, कांग्रेस को 36.38 प्रतिशत, बसपा को 6.29 प्रतिशत, सपा को 1.20 प्रतिशत मत मिला था। दोनों मुख्य पार्टियों में करीब 8 प्रतिशत मतों का अंतर था। छत्तीसगढ़ में भाजपा को 49, कांग्रेस को 39, बसपा को 1 तथा निर्दलीय को भी 1 सीट प्राप्त हुआ था। किंतु यहां लड़ाई कांटे की थी। भाजपा को 41.04 प्रतिशत, कांग्रेस को 40.29 प्रतिशत, बसपा को 4.27 प्रतिशत मत मिला था। दोनों प्रमुख पार्टियों में केवल.75 का अंतर था। मिजोरम में कांग्रेस को 34, मिजो नेशनल फ्रंट को 5 तथा मिजोरम पीपुत्स कॉन्फ्रेंस को 1 सीटें मिलीं थीं। कांग्रेस को 44.63 प्रतिशत, मिजो नेशनल फ्रंट को28.65 प्रतिशत, भाजपा को 0.37 प्रतिशत, एमपीसी 6.15 प्रतिशत जेडएनपी को 17.42 प्रतिशत मत मिला था। तेलांगना में 120 सीटों में से तेलांगना राष्ट्र समिति को 63 सीटें, तेदेपा को 12, भाजपा को 5, वाईएसआर को 3, बसपा को 2, अन्य को 2,कांग्रेस 17, एआईएमआईएम को 7, भाकपा को 1, माकपा को 1 सीटें थीं। लेकिन 19 निर्दलीय टीआरएस में शामिल हो जाने से उसकी संख्या 82 हो गई।
अब जरा लोकसभा चुनाव के अनुसार विचार करें। मध्यप्रदेश में भाजपा को 163 एवं कांग्रेस को 75 तथा बसपा को 2 विधानसभा सीटों पर बढ़त थी। मिजोरम में कांग्रेस 21 तथा निर्दलीय 19 सीटों पर आगे थी। राजस्थान में भाजपा 180 तथा कांग्रेस केवल 11 सीटों पर आगे थी। छत्तीसगढ़ में भाजपा को 48.90 प्रतिशत तथा कांग्रेस को 38.40 मत मिला। तो विधानसभा का एक प्रतिशत से कम का अंतर 10 प्रतिशत से ज्यादा अंतर में परिणत हो गया। मध्यप्रदेश में भाजपा को 54 प्रतिशत तथा कांग्रेस को 34.90 प्रतिशत मत मिला। यह करीब 19 प्रतिशत का अंतर है। राजस्थान में भाजपा को 50.90 प्रतिशत तथा कांग्रेस को 30.40 प्रतिशत मत प्राप्त हुआ। यहां तो करीब 20.50 प्रतिशत का अंतर। ये अंतर काफी बड़े हैं। तेलांगा में टीआरएस 33.90 प्रतिशत, कांग्रेस को 20.5 प्रतिशत, भाजपा 8.50 प्रतिशत, तेदेपा को 3.10 प्रतिशत, युवजन श्रमिका रीथू कांग्रेस पार्टी को 2.90 प्रतिशत, एआईएमआईएम को 1.40 प्रतिशत मत मिला था। इस तरह लोकसभा चुनाव के अनुसार भी कांग्रेस से टीएसआर भारी मतों से आगे थी।
2013 चुनाव परिणाम के बाद हुए एक सर्वेक्षण में काफी लोगों ने बताया था कि उन्होंने मतदान करते समय केन्द्र सरकार के कार्यों को भी घ्यान में रखा। जाहिर है, यूपीए की छवि का पूरा असर चुनाव पर था। नरेन्द्र मोदी की तीन राज्यों में 53 रैलियां कराई गईं और सबमें भीड़ उम्मीद से अधिक आईं। छत्तीसगढ़ के परिणामों से साफ हो गया था कि अगर मोदी नहीं होते तो रमण सिंह सत्ता से बाहर हो जाते। तीनों प्रदेश में कांग्रेस नेतृत्व के बीच आंतरिक खींचतान एवं कलह भी उसके बुरे प्रदर्शन का कारण था। इस समय केन्द्र में उसकी सरकार नहीं है तथा तीनों जगह पार्टी लगभग एकजुट है। केन्द्र और प्रदेश दोनों जगह सरकार होने के कारण भाजपा के कार्य कसौटी पर हैं। छत्तीसगढ़ एवं मध्यप्रदेश में 15 वर्षों की सरकार होने के कारण कुछ लोग बदलाव चाहने वाले भी होंगे। इससे आम विश्लेषण यही है कि कांग्रेस को इसका लाभ मिलना चाहिए। किंतु छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी की जनता कांग्रेस तथा बसपा के बीच समझौते से कांग्रेस के रास्ते बाधाएं आ गईं है। जोगी के साथ मिलने से इस बार तीसरी शक्ति के उभरने की संभावना बन गई है। मध्यप्रदेश में भी बसपा ने अलग लड़ने का ऐलान कर दिया है। राजस्थान में भी 2013 में 10 लाख से अधिक मत पाने वाली बसपा अलग मोर्चा बनाने की कवायद कर रही है।
2013 में मोदी के प्रभाव में बहुत कुछ बदल गया था। मध्यप्रदेश एवं राजस्थान के विधानसभा एवं लोकसभा चुनावों में तथा छत्तीसगढ़ के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस भाजपा से मतों के मुकाबले जितना पीछे है उसे पाटने के लिए सरकार के विरुद्ध व्यापक असंतोष तथा कांग्रेस के पक्ष में लहर चाहिए। ऐसा न होने की स्थिति में एक-एक वोट का महत्व बढ़ जाता है। अभी तक कोई साफ वातावरण नहीं दिख रहा है। लेकिन 2019 के चुनाव को देखते हुए महागठबंधन की जो चर्चा चल रही हैं उसकी पहली परीक्षा इन राज्यों मे होनी है। छत्तीसगढ़ में यह सफल नहीं हुआ। मध्यप्रदेश में भी पूर्ण गठंबंधन की संभावना नहीं है। यही स्थिति राजस्थान की है। इससे 2019 की दृष्टि से भाजपा राहत की सांस ले सकती है। किंतु उसके लिए इन तीन राज्यों में बेहतर प्रदर्शन करना अपरिहार्य है। ऐसा नहीं हुआ तो कांग्रेस एवं विपक्षी दल यह प्रचारित करेंगे कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा अपराजेय नहीं है। इससे देश भर में एक माहौल बनाने की कोशिश होगी। भाजपा के आत्मविश्वास में कमी आएगी तथा कांग्रेस का उत्साह बढ़ेगा एवं वह अन्य दलों के साथ प्रभाव स्तर पर गठबंधन के लिए बात कर सकेगी। अगर परिणाम इसके विपरीत आ गया। यानी भाजपा ने बेहतर कर ली तो फिर 2019 में वह नए उत्साह के साथ उतरेगी और परिणाम अपने पक्ष में मोड़ने की कोशिश पूरे आत्मविश्वास से करेगी। इस तरह ये चुनाव दोनों पक्षों के लिए 2019 की दृष्टि से करो या मरो का प्रश्न है।
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