दो हजार चौदह में जब से भारतीय जनता पार्टी की सरकार केंद्र में आई है तब से हिंदी को लेकर एक खास तरह के उत्साह का माहौल देखने को मिल रहा है। 2014 में ही केंद्र सरकार के सभी मंत्रालयों को अन्य भाषाओं के साथ हिंदी में भी जानकारी जारी करने का आदेश दिया गया था। केंद्र सरकार की सूचनाएं हिंदी में उपलब्ध भी होने लगीं । वो हिंदी कैसी हैं इस पर बाद में विचार किया जा सकता है। हिंदी के उपयोग को लेकर उत्साह का माहौल है लेकिन इसमें सरकारी कामकाज और रोजगार की भाषा बनाने की दिशा में अभी बहुत ठोस कदम उठाने की जरूरत है। आजादी के सत्तर साल बाद भी देश के उच्च और सर्वोच्च न्यायलयों में भारतीय भाषाओं में काम-काज नहीं हो पा रहा है। कई बार हाईकोर्ट में स्थानीय भाषाओं में सुनवाई और फैसलों का प्रस्ताव सामने आया लेकिन वो योजना परवान नहीं चढ़ पाई और इन अदालतों में अब भी अंग्रजी में ही कामकाज हो रहा है।
अब इस दिशा में भी कुछ हलचल नजर आ रही है। भारतीय जनता पार्टी के महासचिव और सांसद भूपेन्द्र यादव ने देश के पिछले सप्ताह उच्च न्यायालयों में भारतीय भाषाओं के प्रयोग की स्वतंत्रता के लिए राज्यसभा में निजी विधेयक – उच्च न्यायालय, (राजभाषाओं का प्रयोग) विधेयक-2016 पेश किया। इस बिल में उच्च न्यायालयों में भारतीय भाषाओं के प्रयोग की अनुमति, एक अधिकार के रूप में प्रस्तावित किया गया है।
भूपेन्द्र यादव ने अपनी फेसबुक पोस्ट में लिखा- उच्च न्यायालयों में वादी अपनी भाषा में न्याय की गुहार लगा सके और प्रतिवादी को भी अपनी भाषा में अपनी बात रखने का अधिकार हो यह सवाल लंबे समय से उठता रहा है लेकिन अभी तक इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। यह सर्वथा अनुचित है कि हमारे देशवासी अपने ही देश में अपनी भाषाओं में अपने उच्च न्यायालयों में न्याय की गुहार नहीं लगा सकते हैं। वर्तमान प्रावधानों के मुताबिक़ उच्च न्यायालयों की न्यायिक प्रक्रियाओं में भारतीय भाषाओं की स्वीकार्यता नहीं है और समूची प्रक्रिया अंग्रेजी में ही होती है। अगर अपनी अदालत में अपनी भाषाओं में अपनी बात रखने की स्वतंत्रता नहीं मिलेगी तो यह किसी भी ढंग से निष्पक्ष न्याय मिलने के अधिकार और वास्तविक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मानकों पर खरी उतरने वाली बात नहीं कही जा सकती है जो कि हमारे देश के संविधान का मूल है।
पारदर्शी ढंग से अदालती सुनवाई को सुनिश्चित करने के लिए यह अनिवार्य है कि भारतीय भाषाओं को उच्च न्यायालयों में स्वीकार्यता प्रदान की जाए। अगर देश की संसद में एवं अन्य संवैधानिक कार्यों में देश की सभी भाषाओं में बोलने की स्वतंत्रता है तो फिर न्यायपालिका इससे अलग क्यों हैं? किसी को उसकी भाषा में न्याय मांगने से रोकना, यह साबित करता है कि हम स्वतंत्रता के मूल्यों को सही ढंग से अभी भी हासिल नहीं कर पा रहे हैं। न्याय की गुहार से लेकर न्याय की सुनवाई एवं प्राप्ति तक की प्रक्रिया वादी-प्रतिवादी की अपनी भाषाओं में ही होनी चाहिए तभी सही मायने में न्यायिक प्रक्रियाओं में पारदर्शिता एवं न्याय की स्वतंत्रता को हासिल किया जा सकेगा। भारत अकेला ऐसा देश है जहां की जनता को यह अधिकार नहीं है।‘
भूपेन्द्र यादव के इस निजी विधेयक के पहले इस दिशा में एक और ठोस पहल सामने आई थी। उच्च न्यायलयों में अंग्रेजी के दबदबे को खत्म करने की दिशा में कानून मंत्रालय की संसदीय समिति ने बेहद अहम प्रस्ताव रखा था। संसदीय समिति ने देश के सभी चौबीस उच्च न्यायलयों में हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में कामकाज करने की सिफारिश की है। संसदीय समिति के प्रस्ताव के मुताबिक संविधान में केंद्र सरकार को इस बारे में फैसला लेने का अधिकार दिया गया है। संसदीय समिति ने अपनी सिफारिश में इस बात पर भी जोर दिया है कि इस मसले पर अदालतों की सलाह लेने की जरूरत नहीं है। संसदीय समिति ने न्यायिक सलाह नहीं लेने पर जोर इस वजह से दिया, लगता, है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने अक्टूबर दो हजार बारह में गुजरात, तमिलनाडु, कर्नाटक, छत्तीसगढ़ पश्चिम बंगाल आदि राज्यों के उच्च न्यायलयों में स्थानीय भाषाओं में कामकाज के प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया था।
सुप्रीम कोर्ट ने उन्नीस सौ सत्तानवे और उन्नीस सौ निन्यानबे के अपने पुराने फैसलों के हवाले से इन प्रस्तावों को खारिज किया था। पिछले दिनों भी इस मसले पर एक याचिका दायर की गई थी जिसपर उस वक्त के मुख्य न्यायधीश ने याचिकाकर्ता पर कठोर टिप्पणी की थी। अब संसदीय समिति की इस रिपोर्ट में साफ तौर पर कहा गया है कि अगर संबंधित राज्य सरकारें इस तरह का प्रस्ताव देती है तो केंद्र सरकार संविधान में मिले अपने अधिकारों का उपयोग करते हुए उसको लागू करने का फैसला ले सकती है। इस मसले पर संविधान में तो प्रावधान है लेकिन उन्नीस सौ पैंसठ में कैबिनेट के एक फैसले से न्यायलयों से इस बारे में सलाह लेने की परंपरा की शुरुआत हुई थी जो अबतक चली आ रही है। अब अगर केंद्र सरकार संसदीय समिति की सिफारिशों को लागू करना चाहती है तो उसको कैबिनेट के फैसले पर पुनर्विचार करना होगा। मौजूदा सरकार को इस मसले पर संजीदा रुख अख्तियार करना होगा।
अदालतों में हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में कामकाज करने का विरोध यह कहकर किया जाता है कि इससे न्यायधीशों को दिक्कत होगी और उच्च न्यायलयों में किसी प्रदेश के जज को किसी भी प्रदेश में स्थानांतरण की प्रक्रिया बाधित होगी। संभव है कि ऐसा हो, लेकिन इसके लिए कोई मैकेनिज्म बनाया जा सकता है ताकि न्यायाधीशों को दिक्कत ना हो और उनके स्थानांतरण को लेकर भी प्रक्रिया बाधित ना हो। लेकिन न्यायलयों में हिंदी में काम नहीं होने पर कई बार केस मुकदमे में अदालत पहुंचे पीड़ितों को अदालत की भाषा या वहां जारी बहस समझ नहीं आती है और वो मूकदर्शक बने रहते हैं। निर्भया के मामले में भी ऐसा हो रहा था। उसकी मां लगातार सुप्रीम कोर्ट जाती थी और कई बार बगैर कुछ समझे बूझे वहां से वापस हो लेती थी। बाद में उनकी मदद की गई और उनको हिंदी में अदालती कार्यवाही समझाने के लिए एक शख्स को लगाया गया।
अगर हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को उच्च न्यायलयों में कामकाज की एक भाषा बनाने का फैसला होता है तो इससे भाषा का गौरव बढ़ेगा, साथ ही ज्यादातर पीड़ितों को भी इंसाफ की भाषा समझ में आ सकेगी। भूपेन्द्र यादव के निजी विधेयक पर संसद को विचार करना चाहिए। अगर इस विधेयक पर बहस होती है तो भाषा के सवाल पर सभी दलों के नेताओं के विचार सामने आ सकेंगे। यह सिर्फ हिंदी का मामला नहीं है,यह सभी भारतीय भाषाओं से जुड़ा मसला है, लिहाजा हिंदी को थोपने जैसे तर्क भी बेमानी साबित होंगे। काफी लंबे समय से हिंदी को अन्य भारतीय भाषाओं के सामने दुश्मन की तरह पेश करके हिंदी की राह में बाधा खड़ी की जाती रही है। यह तर्क दिया जाता रहा है कि हिंदी अगर बढ़ी को अन्य भारतीय भाषाओं को दबा देगी या उसके अस्तित्व को संकट में डाल देगी। आजादी के सत्तर साल में यह तो साबित हो ही गया है कि हमारे देश में हिंदी की वजह से किसी भी भाषा के दबे रह जाने या उसके अविकसित होने की आशंका गलत थी।
राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर ने तो काफी पहले लिखा था- हिंदी का आंदोलन सभी भाषाओं का आंदोलन है। हिंदी यदि बढ़ी तोसभी भाषाएं बढ़ेंगी। हिंदी यदि रोक दी गई तो देश की बहुत सी भाषाएं अवरुद्ध हो जाएंगीं। तब दिनकर ने कहा था- प्रत्येक के लिए अपनी मातृभाषा और सबके लिए हिंदी। लेकिन यह अबतक हो नहीं सका है। अंग्रेजी का दबदबा अबतक कायम है और अंग्रेजी की भाषाई औपनिवेश को कहीं से कोई चुनौती नहीं मिल पा रही है। उल्टे अब ये हो रहा है कि बोलियों को भाषा के बरक्श खड़ा करने की कोशिश की जा रही है। बोलियों को भाषा बनाने के पीछे की राजनीति को भी चिन्हित किया जाना आवश्यक है। यहां एक और उदाहरण देना समीचीन होगा। बिहार में जब अदालतों की भाषा के रूप में हिंदी को भी मान्यता देने का आंदोलन शुरू हुआ था तब उस आंदोलन के सबसे प्रबल समर्थक भूदेव चौधरी थे जो उस समय स्कूलों के इंस्पेक्टर के पद पर काम कर रहे थे। इसी तरह से सभी भाषाओं को देवनागरी में लिखे जाने की शुरुआत भी बंगाल में हुई थी। जस्टिस शारदाचरण मित्र बंगाली थे जिन्होंने नागरी के व्यापक प्रचार प्रसार के लिए ‘देवनागर’ नाम से एक पत्र भी निकाला था।
अगर अदालतों के अलावा भी भाषा के सवाल पर विचार करें तो हमें लगता है कि आजादी के सत्तर साल बाद भी हम अपनी भाषा को लेकर कोई ठोस नीति नहीं बना पाए। अब वक्त आ गया है कि भाषा संबंधी ठोस नीति बने और उसको बगैर किसी सियासत के लागू किया जा सके।
साभार- http://samachar4media.com से