उदेना अम्गमू यॉनजोम के जिम्मे एक दुर्लभ काम है। वह देश की एकमात्र आधिकारिक क्विनोलॉजिस्ट हैं यानी मलेरिया के इलाज में काम आने वाली पुरानी दवा कुनैन की विशेषज्ञ। यह दवा भारत में सिनकोना के पेड़ की छाल से बनाई जाती है। यॉनजोम फ रवरी, 2020 में दार्जिलिंग के मुंगपू में देश के इकलौते कुनैन प्रसंस्करण संयंत्र में असिस्टेंट क्विनोलॉजिस्ट के पद पर नियुक्त हुई थीं। इस सरकारी प्रतिष्ठान में यह पद अंग्रेजों के जमाने में 19वीं सदी के अंत में बनाया गया था।
दार्जिलिंग की पहाडिय़ों के बीच स्थित यह संयंत्र 1874 में स्थापित किया गया था, लेकिन 2001 से बंद है क्योंकि यह बेहतर उत्पादन कार्यप्रणाली (जीएमपी) का दर्जा हासिल करने में नाकाम रहा। भारत में दवाओं के निर्माण के लिए यह दर्जा जरूरी है। पिछले क्विनोलॉजिस्ट 2012 में सेवानिवृत्त हुए थे।
देश में कोविड-19 के बढ़ते प्रकोप को देखते हुए अंग्रेजों के जमाने की इस बीमार इकाई को फि र से शुरू करने की जरूरत महसूस हो रही है। क्लोरोक्वीन की तरह मलेरिया के इलाज में काम आने वाली दवा हाइड्रोक्लोरोक्वीन (एचसीक्यू) को कोविड-19 के इलाज में कारगर माना जा रहा है। क्लोरोक्वीन कुनैन का सिंथेटिक रूप है। इसका कम विषाक्त और उन्नत संस्करण ही एचसीक्यू है।
कोविड-19 महामारी फैलने से बहुत पहले ही पश्चिम बंगाल सरकार ने इस कुनैन संयंत्र के पुनरुद्घार का काम शुरू कर दिया था। हालांकि एचसीक्यू कम से कम दुष्प्रभावों के साथ मलेरिया का इलाज करता है, जिसके कारण कहा जा रहा है कि कुनैन संयंत्र से बड़े पैमाने पर उत्पादन की क्या तुक है।
पश्चिम बंगाल सरकार ने इस संयंत्र में क्विनोलॉजिस्ट और असिस्टेंट क्विनोलॉजिस्ट की नियुक्ति के लिए 2018 में विज्ञापन भी निकाला था, लेकिन आवेदकों की संख्या इतनी कम थी कि प्रवेश परीक्षा टालनी पड़ी और नियुक्ति साक्षात्कार के जरिये की गई।
लेकिन पिछले एक महीने में तस्वीर बदल गई है। पश्चिम बंगाल के सिनकोना एवं अन्य औषधीय पौधों से जुड़े विभाग के निदेशक सैमुअल रॉय ने कहा कि उपनिवेश काल के इस संयंत्र को फिर चालू करने के लिए युद्घ स्तर पर काम चल रहा है और राज्य सरकार भी इस पर काफी मेहनत कर रही है। देश में मुंगपू में ही बड़े पैमाने पर सिनकोना की खेती होती है। दक्षिण भारत में नीलगिरि की पहाडिय़ों में भी छोटे स्तर पर इसकी खेती होती है। हर साल मुंगपू में करीब 2 लाख किलो सिनकोना की छाल निकलती है, जिसे गुजरात और महाराष्ट्र की दवा कंपनियां खरीदती हैं। इससे पैर की मोच आदि के इलाज में काम आने वाली दवा बनती है।
रॉय ने कहा, ‘कोविड-19 के प्रकोप से पहले कुनैन की मांग ज्यादा नहीं थी। एक जैसी मांग ही रहती थी। अब मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश से इस बारे में पूछताछ हो रही है। मांग में इजाफा हुआ तो हजारों कामगारों को भी फायदा होगा। हमें पूरी उम्मीद है कि मांग बढ़ेगी और इसके लिए हम युद्ध स्तर पर काम कर रहे हैं।’ दार्जिलिंग में सिनकोना की खेती करीब 3,400 एकड़ जमीन में फैली है और हर साल इसमें करीब 100 एकड़ का इजाफ ा होता है।
लगभग 5,000 कामगार और 400 सहायक कर्मचारी सीधे तौर पर इससे जुड़े हैं। इस इलाके में सिनकोना की खेती का शानदार इतिहास है। सिनकोना मूलत: दक्षिण अमेरिका का वृक्ष है, जिसे अंग्रेज भारत लाए थे और डच इंडोनेशिया में ले गए थे। अंग्रेजों की दवाओं के विशेषज्ञ और ब्रिटेन के रीडिंग विश्वविद्यालय में दक्षिण एशियाई इतिहास विभाग में व्याख्याता रोहन देव रॉय का कहना है कि भारतीय कुनैन का पतन 20वीं शताब्दी आते ही शुरू हो गया क्योंकि इंडोनेशिया का सिनकोना बेहतर किस्म का था।
जर्मन वैज्ञानिकों ने 1930 के दशक में कुनैन के सिंथेटिक विकल्प क्लोरोक्वीन की खोज की और फि र इसका उन्नत संस्करण एचसीक्यू आने से सिनकोना की उपयोगिता खत्म हो गई। इससे दार्जिलिंग में कुनैन उद्योग का भी पतन हो गया। लेकिन लंबे समय तक कुनैन को उपनिवेशों में मलेरिया का इलाज बताया गया, जिसे विकासशील देशों की बीमारी माना जाता है। रॉय ने बताया, ’19वीं और 20वीं शताब्दी की शुरुआत में मलेरिया यूरोपीय देशों के गर्म जलवायु वाले उपनिवेशों की बीमारी मानी जाती थी। साम्राज्यवादी ताकतों ने कुनैन का इस्तेमाल यह कहक अपनी पीठ ठोकने के लिए किया कि उनके शासन में किस तरह उपनिवेशों को फायदा हुआ है। औपनिवेशिक शासन खत्म होने के बाद भी मलेरिया को तथाकथित विकासशील और अविकसित दुनिया की विशेषता माना जाता है। दूसरी ओर कोविड-19 महामारी ने लगभग पूरी दुनिया को प्रभावित किया है। इस महामारी ने अमेरिका, ब्रिटेन तथा यूरोपीय देशों की सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था और अर्थव्यवस्था की कमजोरियों को उजागर कर दिया है।’
दार्जिलिंग की कुनैन फैक्टरी को फिर शुरू करने की संभावनाएं रोमांचक लगती हैं, लेकिन डॉक्टरों ने अभी यह नहीं बताया है कि कुनैन एचसीक्यू का विकल्प हो सकती है या नहीं। कोविड-19 के इलाज में एचसीक्यू का इस्तेमाल अभी परीक्षण के दौर में है।एक निजी अस्पताल में जनरल मेडिसिन विभाग के कंसल्टेंट अरिंदम विश्वास ने कहा, ‘कुनैन कभी बेहद कारगर दवा थी और मलेरिया के गंभीर मामलों के इलाज में काम आती थी।’