हरियाणा के जिला सोनीपत में एक छोटा सा कस्बा आता है खर्खोदा | इसके पास ही मटिण्डु नाम से एक गाँव पड़ता है| इस गाँव में चौ.जुझार सिंह जी नाम के एक जिमींदार निवास करते थे| इन्हीं के यहाँ गूगा नवमी संवत् १९२३ विक्रमी को एक बालक ने जन्म लिया| इस बालक को ही आज हम चौ, पीरुसिंह जी के नाम से जानते हैं|
आपके दो मित्र निकटवर्ती गाँव फरमाना में रहते थे| इन दोनों से आपकी इतनी घनिष्ट थी कि आप की दोस्ती इन दोनों से आजीवन चलती रही| यह तीनों मित्र उन दिनों सदा ही चोरी आदि के चक्कर में रहते थे| एक बार आप तीनों मित्र दिल्ली में चोरी करने के लिए गए| उस समय दिल्ली में स्वामी दर्शनानन्द जी आर्य समाज के प्रचार के लिए आये हुए थे और उनका कार्यक्रम चल रहा था| स्वामी जी के व्याख्यान का उस दिन का विषय कर्म फल था| आप तीनों मित्र जो चोरी के उद्देश्य से दिल्ली आये थे, ने स्वामी जी का यह प्रवचन सुना| इस प्रवचन को सुनकर इनके जीवन की धारा ही बदल गई|
स्वामी दर्शनानंद जी के प्रवचन का पीरुसिंह जी पर इतना अधिक प्रभाव हुआ कि आप इस प्रवचन को सुनकर सच्चे अर्थों में स्वामी दयानद सरस्वती जी के पथ के पथिक बन गए| इतना ही नहीं अब आप अपने क्षेत्र के लगभग सब गाँवों में वेद प्रचार के लिए जाने लगे| क्षेत्र भर में आपने वेद प्रचार तथा आर्य समाज के प्रसार के लिए दुन्दुभी बजा दी| इस के कारण उस समय के पेट पंथियों के पेट में मरोड़ आने लगे तथा उन्होंने भी इनके विरोध में कुचालें चलनी आरम्भ कर दीं| इधर चौ. पीरुसिंह जी के निष्काम प्रयास से क्षेत्र भर में आर्यों की शक्ति दिन रात बढ़ने लगी|
जब पेट पंथियों का विरोध भी तेज होने लगा तो आपने शास्त्रार्थ की चुनौती दे डाली| उन्होंने भी इस चुनौती को स्वीकार कर लिया और शास्त्रार्थ की तैयारी जोरों से होने लगी| किन्तु अंतिम समय पर एक एसी घटना घटी कि पौराणिकों की बिना शास्त्रार्थ हुए ही पराजय हो गई| हुआ यह की पीरुसिंह जी ने शास्त्रार्थ के लिए पंडित गणपति शर्मा जी शास्त्रार्थ महारथी को बुला रखा था जब कि पौराणिकों ने प. शिवकुमार जी को अग्रिम रूप से दक्षिणा देकर बुलाया था| जिस दिन शास्त्रार्थ होना था, उस दिन पौराणिक पंडित शिवकुमार जी ने आर्य समाज के पंडित गणपति जी को देखा तो देखते ही उनकी घिग्गी बंध गई| उन्होंने इस शास्त्रार्थ से इन्कार करते हुए अग्रिम में प्राप्त की गई दक्षिणा पौराणिकों को लौटा दी और चलते बने| यह सब क्षेत्र भर में आर्य समाज के प्रचारक बन चुके पीरुसिंह जी के प्रताप तथा पुरुषार्थ का ही परिणाम था|
आप ही के प्रयास से जिला भर के अनेक गाँवों में आर्य समाज की शाखाएं स्थापित हो गईं| आप ही के पुरुषार्थ से आपके गाँव मटिण्डु में सन् १९०९ ईस्वी को प्रथम बार आर्य समाज का उत्सव निर्धारित किया गया| फिर आर्य समाज गाँव गढ़ी सांपला में आर्य समाज का उत्सव हुआ| इस उत्सव के अवसर पर सस्ती तथा संस्कृत की शिक्षा देने के लिए एक गुरुकुल की स्थापना की घोषणा की गई| गुरुकुल के इस स्वप्न को साकार करने के लिए इस गुरुकुल के लिए चौ. पीरुसिंह जी ने अपनी तीस बीघा जमीन इस गुरुकुल को दान कर दी| इस प्रकार दिनांक १५ अगस्त सन् १९१६ ईस्वी को आपके गाँव मटिण्डु में विधिवत् रूप से गुरुकुल ने कार्य आरम्भ कर दिया और प्रथम वर्ष इस गुरुकुल में शिक्षा पाने के लिए साठ बच्चों ने प्रवेश लिया|
चौ. पीरुसिंह जी अब तक आर्य समाज के इतने दीवाने हो गए थे कि इस के लिए मरने तक को सदा तैयार रहते थे| एक बार आप तांगे पर कहीं जा रहे थे| इस तांगे में ही एक थानेदार भी जा रहा था| मार्ग में जाते हुए अकस्मात् थानेदार ने आर्य समाज को कुछ गाली दे दी| इस पर आपने उस थानेदार को पकड़ कर उसकी खूब जोरदार पिटाई करते हुए उसे बताया कि मेरा नाम पीरुसिंह है और इसके आगे कहा कि यदि मेरे विरुद्ध कुछ कार्यवाही करनी हो तो कर लेना| इतना सुनकर थानेदार ने कोई कार्यवाही तो क्या करनी थी, उसने पीरुसिंह जी से क्षमा मांग ली|
इस प्रकार की ही एक अन्य घटना भी उनके जीवन की प्राप्त होती है| वह यह कि एक बार एक नाई ने कह दिया कि पीरुसिंह बड़ा चालाक है, उसने गुरुकुल के नाम पर अपना घर भर लिया| जब उस के इस कथन का पता पीरुसिंह जी को चला तो वह उस नाई को पकड़ कर अपने घर ले आये| घर में लाकर उस नाई को अपना पूरा घर दिखा दिया| घर दिखाते हुए उन्होंने उसे कहा कि यह पीरुसिंह का घर है और पीरु स्वयं आपके सामने खडा है| बताओ यहाँ क्या भर रखा है| इस पर शर्मिन्दा हुए नाई ने पीरुसिंह जी से क्षमा याचना की| चौ. पीरु सिंह जी का त्याग भी कमाल का ही था| एक बार यमुना नदी में जोर से बढ़ आ गई| इस बाढ़ के कारण आस पास के गाँवों में भारी तबाही मची, यहाँ तक कि पशुओं के लिए चारा तक नहीं रहा| इस अवस्था में पास के गाँव से कोई व्यक्ति चारा लेने के लिए उनके पास आया| आप ने तत्काल गाड़ी भूसे से भर कर उन्हें दे दी| गाडी भरने पर जब उन लोगों ने पीरुसिंह जी को भूसे के पैसे देने चाहे तो पीरुसिंह जी ने कहा कि पैसों से ही पीरु से कुछ नहीं मिलता, यदि पैसों से ही लेना है तो किसी और से ले लो| इस प्रकार पीरुसिंह जी ने भूसे के पैसे लेने से मना कर दिया|
चौ. पीरु सिंह जी सेवा के अवसरों पर सबसे आगे ही रहते थे| वह कभी किसी से डरते नहीं थे| उनके इन गुणों के कारण ही उन्हें कभी किसी प्रकार की कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ा| जब जिले की जमीनों का नए सिरे से बंदोबस्त होने लगा तो बंदोबस्त अधिकारी मि. जोजफ ने जिमींदारों को एकत्र कर लगान बढाने के लिए कहा| इस पर पीरुसिंह जी ने उनका डटकर विरोध किया|
आप ने गो सेवा को भी अपना कर्तव्य मान रखा था| इस कारण आप सच्चे अर्थों में गो भक्त भी थे| अंग्रेज ने समालखा में बुचडखाना बनाने का निर्णय लिया| आपने सरकार के इस निर्णय का डटकर विरोध किया| इतना ही नहीं इस विरोध के कारण आप विजयी भी हुए और यह बुचडखाना नहीं लग पाया| जब आपने कलकत्ता में गायों की अवस्था देखी तो आपकी आँखों से आंसु आने लगे| आपने सन् १९३३ ईस्वी में एक सार्वजनिक निर्णय करवा कर मुसलमानों के हाथों गो की बिक्री पर रोक लगवा दी| जीवन के अंतिम क्षणों में तो गो रक्षार्थ आपकी एक बड़ी पंचायत बुलाने की अभिलाषा थी किन्तु यह अभिलाषा ईश्वरेछा के कारण पूर्ण न हो सकी| इस अभिलाषा को अपने अन्दर समेटे ही आप प्रभु की गोद में समा गए|
शुद्धि आन्दोलन से भी आपका अत्यधिक अनुराग था| सन् १९७४ इस्वी में आपने ईसाई हो चुके जाट को शुद्ध करते हुए उसे अपने यहाँ स्थान भी उपलब्ध करवा दिया| आप आर्य समाज के कार्यों में बाधक बनने वाली सरकार तथा पुराण पंथियों को निपटने में भली प्रकार से निपुण थे| पशु हित से इतना प्यार था कि अमावस्या के दिन आपने क्षेत्र भर में हल चलाना बंद करवा दिया तथा पशुओं की सेवा के लिए अन्य भी अनेक कार्य किये|
दिनांक ७ दिसंबर १९२८ ईस्वी को आपने कांग्रेस के मंच से उद्बोधन दिया| इसके अतिरिक्त जो अमृतसर में कांग्रेस का अध्हिवेशन हुआ, उसमें भी आपने जिमींदार प्रतिनिधियों की व्यवस्था का कार्यभार सम्भाला|
चौ. पीरु सिंह जी केवल दिखावे के नहीं अपितु सच्चे अर्थों में आर्य समाजी, गो सेवक, स्वदेश प्रेमी, आर्य समाज की सदा ही प्रगति चाहने वाले और किसानों के सच्चे हितैषी भी थे| इनके बिना कोई भी पंचायत क्षेत्र भर में अधूरी ही मानी जाती थी| आपके जो स्वतन्त्र विचार थे, उनमें सदा ही दृढ़ता का समावेश रहा| आपने अपना पूरा जीवन बड़े ही गर्व के साथ व्यतीत किया और जाते जाते भी क्षेत्र भर में सच्चा तथा उत्तम जीवन जीने की कला देकर गए|
डॉ.अशोक आर्य
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