ये महज़ संयोग नहीं है कि मशहूर विद्वान एवं महात्मा गांधी के पौत्र राजमोहन गांधी ने एपीजे कोलकाता साहित्य महोत्सव में ‘ईश्वर अल्ला तेरे नाम-गांधीवादी धर्मनिरपेक्षता’ विषय पर कहा कि बापू ने धर्मनिरपेक्षता को देश के संस्थापक सिद्धांतों में शामिल करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने कहा, “‘ईश्वर अल्ला तेरे नाम’ गहरी आस्था और धार्मिकता की अभिव्यक्ति है। यह बापू की भगवान को आमने-सामने देखने की इच्छा को प्रकट करता है।
गांधीजी की हमारी धर्मनिरपेक्ष नियति को आकार देने में सक्रिय भूमिका थी। स्मरण रहे कि भारत की स्वतंत्रता से पूर्व धर्मनिरपेक्ष शब्द ज्यादा प्रयोग में नहीं था, लेकिन गांधीजी हमेशा सभी धर्मों के लोगों को समान रूप से सम्मान और हर समुदाय को संरक्षण देने में विश्वास रखते थे। स्वतन्त्र भारत में सभी धर्मों को समान आदर देने वाली धर्म निरपेक्षता की अवधारणा को गांधीवादी चिंतन का अपरिहार्य प्रतिफल माना जा सकता है। समझने की ज़रुरत है कि इसकी जड़ें प्राचीन भारतीय संस्कृति में हैं।
हिंदू, मुस्लिम, बौद्ध, जैन, पारसी और सिख से लेकर अंग्रेजों तक के साथ अपनी व्यक्तिगत, सामाजिक और राजनीतिक निकटताओं के अनुभव से गांधी ने पाया कि हिंसा और अहिंसा का संबंध किसी समुदायविशेष से नहीं होता। उन्होंने लिखा, “अहिंसा किसी एक धर्मपंथ का लक्षण नहीं है। धर्म-मात्र में अहिंसा है। उसका अमल सभी धर्मपंथों में एक समान रूप से नहीं होता।”
गौरतलब है कि भीड़ से निपटना केवल पुलिस और सेनामात्र का काम नहीं है। भीड़ की स्थिति उत्पन्न न होने देना बड़ी बात है। भीड़ के उन्माद के समय हम मूकदर्शक बने रहते हैं। घटना के बाद भी कोई ऐहतिहात बरतना हमें न जाने क्यों गवारा नहीं होता है ! ऐसे समय में गांधी की ज़रुरत पहले से अधिक है।
शांति और अहिंसा के प्रति आजीवन समर्पित रहे गांधी ने हिंसा के कारकों की तरफ बार-बार इशारा किया। उनका कहना था कि लोग समझें कि धर्म का प्रमुख कार्य लोगों में एकता स्थापित करना है न कि उन्हें बाँटना। उन्होंने कहा विभिन्न धर्म एक ही वृक्ष के पत्तियों के समान हैं, किन्तु तने पर एक हैं। गांधी ने धर्म के सन्दर्भ में भी सत्य को सर्वोपरि माना। धर्म निरपेक्षता का संवाहक भी है। उनका अडिग विश्वास था कि संस्कृतियों के मध्य अंतःसंवाद और धर्मों में समभाव संभव है। परस्पर सम्मान प्रमुख शर्त है। संकीर्णता सबसे बड़ी चुनौती है। सहिष्णुता अचूक समाधान।
उन्होंने लिखा है – ”अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें, तो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं और उन्हें एक-दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।“ महात्मा गांधी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत की, उससे अंग्रेजी शासकों को भारत के आम आदमी की ताकत का अंदाज लग गया। आजादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गांधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा को आगे बढ़ाया।
गांधी भारत की धार्मिक व सांस्कृतिक बहुलता को स्वीकार करते थे। वे लिखते हैं – ” मेरी स्थिति यह है कि सभी धर्म मौलिक रूप से समान हैं। हममें सभी धर्मों के प्रति अन्तर्जात सम्मान होना चाहिए, जिस प्रकार हममें अपने धर्म के प्रति है। ” सभी धर्मों के सम्मान और बहुलवाद के मूल में धर्म निरपेक्षता है। गांधी की धार्मिक खोज ने उनके व्यक्तित्व के निर्माण के साथ-साथ उनकी राजनीतिक तकनीकों को भी आकार प्रदान किया जिसके दम पर उन्होंने बाँटने वाली ताकतों के खिलाफ अपनी लड़ाई जारी रखी। स्वयं गांधी का व्यक्तित्व अनेक धर्मों की सीख से निर्मित हुआ था। अच्छे के स्वीकार के इस अविरोध भाव का यदि आभाव होता तो गांधी जैसी विश्व विभूति से हम वंचित रह जाते।