लोकमान्य तिलक ने गणेश चतुर्थी जैसे पारंपरिक पारिवारिक उत्सव लोकोत्सव में बदलने की शुरुआत अब से 130 वर्ष पूर्व 1893 मेंअपने अख़बार केशरी के एक विज्ञापन के ज़रिए की थी , मक़सद था ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध स्थानीय समाज को एक जुट करना. यहउत्सव पहले महाराष्ट्र की सीमा से बाहर निकल कर उत्तर भारत में पहुँच और पिछले कई वर्षों से अमेरिका , ब्रिटेन और यूरोप तकभारतीयता की पहचान बनता जा रहा है.
लन्दन में सबसे बड़ा आयोजन डोरिस हिल इलाक़े में हुआ जिसमें दस हज़ार से भी अधिक लोग शामिल हुए , प्रतिभागी केवल मराठी समुदाय से ही नहीं वरन् अन्य वर्ग के लोग भी शामिल हुए।
लन्दन का दूसरा बड़ा सार्वजनिक मंडल उपनगर स्लाओ (Slough) में रखा गया इसे स्लाओ मित्र मंडल नाम की संस्था 2010 सेलगातार आयोजित कार्यक्रम करती आ रही है संस्था से जुड़े सक्रिय पदाधिकारी आशीष मिश्रा बताते हैं कि इस बार उनके आयोजन मेंलन्दन ही नहीं रेडिंग, न्यूबरी, वायकाम्ब और ऑक्सफ़ोर्ड शहरों से लोग सपरिवार सम्मिलित हुए। इस वर्ष का थीम महाभारत में श्रीकृष्ण द्वारा दिये गये गीता उपदेश पर था जिसमें मूषक को अर्जुन की तरह रथ वाहन करते दिखाया गया था. इस आयोजन में पाँचहज़ार लोग शामिल हुए.
जहां सार्वजनिक गणपति नहीं रखे जा रहे है वहाँ भी घरों में तो लोग स्थापित करते हैं, हेरो, वेम्बली इलाकों में लोग आर्गेनिक सामग्री सेबने गणपति रखते हैं ताकि उन्हें घर के बैकयार्ड में टब आदि में ही विसर्जित कर दिया जाए।
बिटेन के अन्य महत्वपूर्ण नगरों मेनचेस्टर, लेस्टर, बिर्मिंघम, ग्लास्गो में भी अब यह उत्सव सार्वजनिक रूप से मनाया जा रहा है.