इन दिनों देश भर के साहित्यकार, लेखक, शायर अपने पुरस्कारों को वापस करने को लेकर चर्चा में हैं। लेखख देवमणि पांडेय ने बहुत पहले देश के नामी शायरों को लेकर ये रोचक लेख लिखा था, जिसमें उन्होंने उन शेरों और शायरी को लेकर मजेदार तथ्य पेश किए हैं कि किस तरह कई नामी शायरो के चर्चित शेर किसी पुराने जमाने के शायर की शायरी से लिए गए हैं या प्रेरित हैं। ये लेख http://hindimedia.in/ पर पहले प्रकाशित हो चुका है, आज के माहौल के हिसाब से इसे फिर से प्रकाशित कर रहे हैं।
हमारे एक दोस्त का कहना है कि ग़ज़ल दूसरों की ज़मीन पर अपनी खेती है। बतौर शायर आप भले ही दावा करें कि आपने नई ज़मीन ईजाद की है मगर सच यही है कि आप दूसरों की ज़मीन पर ही शायरी की फ़सल उगाते हैं। कोई ऐसा क़ाफ़िया, रदीफ़ या बहर बाक़ी नहीं है जिसका इस्तेमाल शायरी में न हुआ हो। कोई-कोई ज़मीन तो ऐसी है जिसका बहुत ज़्यादा इस्तेमाल हो चुका है और लगातार होता रहेगा। मसलन शायद ही कोई ऐसा शायर हो जिसने मोमिन साहब की इस ज़मीन पर ग़ज़ल की फ़सल न उगाई हो-
तुम मेरे पास होते हो गोया / जब कोई दूसरा नहीं होता
तुम हमारे किसी तरह न हुए / वर्ना दुनिया में क्या नहीं होता
सौ साल पहले की बात है। शहर लखनऊ में एक शायर हुए अर्सी लखनवी। मुशायरों में उनका एक शेर काफ़ी मक़बूल हुआ था –
कफ़न दाबे बगल में घर से में निकला हूँ मैं ऐ अर्सी
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए
डॉ.बशीर बद्र ने फ़न का कमाल दिखाया, ऊपर का मिसरा हटाया और बड़ी ख़ूबसूरती से अपना मिसरा लगाया। आप जानते ही हैं कि यही ख़ूबसूरत शेर आगे चलकर जनाब बशीर बद्र का पहचान पत्र बन गया –
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए
मुझे लगता है की ख़याल की सरहदें नहीं होतीं। यानी दुनिया में कोई भी दो शायर एक जैसा सोच सकते हैं। एक ही ज़मीन पर जाने-अनजाने दो फ़नकार शायरी की एक जैसी फ़सल उगा सकते हैं। अपने स्कूली दिनों में यानी 35 साल पहले किसी का अशआर सुना था जो अब तक याद है-
भीग जाती हैं जो पलकें कभी तनहाई में / काँप उठता हूँ कोई जान न ले
ये भी डरता हूँ मेरी आँखों में / तुझे देख के कोई पहचान न ले
पाकिस्तान की मशहूर शायरा परवीन शाकिर का भी इसी ख़याल पर एक शेर नज़र आया –
काँप उठती हूँ मैं ये सोचके तनहाई में
मेरे चेहरे पे तेरा नाम न पढ़ ले कोई
ख़यालों की ये समानता इशारा करती है कि सोच की सरहदें इंसान द्वारा बनाई गई मुल्क की सरहदों से अलग होती हैं। शायर कैफ़ी आज़मी ने नौजवानी के दिनों में एक ग़ज़ल कही थी।वो इस तरह है –
मैं ढूँढ़ता जिसे हूँ वो जहाँ नहीं मिलता
नई ज़मीन नया आसमाँ नहीं मिलता
वो तेग़ मिल गई जिससे हुआ है क़त्ल मेरा
किसी के हाथ का इस पर निशां नहीं मिलता
निदा फ़ाज़ली साहब जवान हुए तो उन्होंने कैफ़ी साहब के सिलसिले को इस तरह आगे बढ़ाया –
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कभी ज़मी तो कभी आसमां नहीं मिलता
फ़िल्म ‘आहिस्ता-आहिस्ता’ में शामिल निदा साहब की यह ग़ज़ल भूपिंदर सिंह की आवाज़ में इतनी ज्यादा पसंद की गई कि लोग कैफ़ी साहब की ग़ज़ल भूल गए।
मुशायरे के मंच पर भी दिलचस्प प्रयोग मिलते हैं। कभी-कभी दो शायर एक दूसरे की मौजूदगी में एक ही ज़मीन में एक जैसा नज़र आने वाले शेर पढ़ते हैं। सामयीन ऐसी शायरी का बड़ा लुत्फ़ उठाते हैं। शायर मुनव्वर राणा का एक शेर इस तरह मुशायरों में सामने आया –
उन घरों में जहाँ मिट्टी के घड़े रहते हैं
क़द में छोटे हैं मगर लोग बड़े रहते हैं
डॉ.राहत इंदौरी अपने निराले अंदाज़ में अपना परचम इस तरह लहराया-
ये अलग बात कि ख़ामोश खड़े रहते हैं
फिर भी जो लोग बड़े हैं वो बड़े रहते है
दोनों शायरों को मुबारकबाद दीजिए कि उन्होंने अपने इल्मो-हुनर से लोगों को बड़ा बनाया। मुंबई में मुशायरे के मंच पर सबसे पहले हसन कमाल ने ये कलाम सुनाया-
ग़ुरूर टूट गया है, ग़ुमान बाक़ी है
हमारे सर पे अभी आसमान बाक़ी है
इसके बाद डॉ.राहत इंदौरी ने फ़ैसला सुनाया-
वो बेवकूफ़ ज़मीं बाँटकर बहुत ख़ुश है
उसे कहो कि अभी आसमान बाक़ी है
उसके बाद राजेश रेड्डी के तरन्नुम ने कमाल दिखाया –
जितनी बँटनी थी बँट गई ये ज़मीं
अब तो बस आसमान बाक़ी है
राजेश रेड्डी बा-कमाल शायर हैं। उनके बारे में मशहूर है कि वे बड़ी पुरानी ज़मीन में बड़ा नया शेर कहते हैं। मसलन जोश मल्सियानी का शेर है-
बुत को लाए हैं इल्तिजा करके / कुफ़्र टूटा ख़ुदा ख़ुदा करके
राजेश रेड्डी ने इस पुरानी ज़मीन में नई फ़सल उगाने का ऐसा कमाल दिखाया कि उनके फ़न को जगजीत सिंह जैसे मक़बूल सिंगर ने अपने सुर से सजाया-
घर से निकले थे हौसला करके / लौट आए ख़ुदा ख़ुदा करके
अभी तक ये तय नहीं हो पाया है कि इस ज़मीन का असली मालिक कौन है। मैंने शायर निदा फ़ाज़ली से इसका ज़िक्र किया। वे मुस्कराए- ‘अभी तक इन…..को पता ही नहीं है कि आसमान बँट चुका है। इनको एक हवाई जहाज़ में बिठाकर कहो कि बिना परमीशन लिए किसी दूसरे मुल्क में दाख़िल हो जाएं। फ़ौरन पता चल जाएगा कि आसमान बँटा है या नहीं।
नौजवान शायर आलोक श्रीवास्तव का ‘माँ’ पर एक शेर है जो उनके काव्य संकलन ‘आमीन’ में प्रकाशित एक ग़ज़ल में शामिल है-
बाबू जी गुज़रे, आपस में सब चीज़ें तक़्सीम हुई तब-
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से आई अम्मा
माँ पर शायर मुनव्वर राना का एक मतला है जिसे असीमित लोकप्रियता हासिल हुई-
किसी के हिस्से में मकां आया,या कोई दुकां आई
मैं घर में सबसे छोटा था,मेरे हिस्से में माँ आई
मुझे नहीं पता कि इस पर राना साहब का कमेंट क्या है मगर आलोक का दावा है कि उनके शेर के पाँच साल बाद राना जी का मतला नज़र आया।
सदियों से ग़ज़ल के क्षेत्र में हमेशा कुछ न कुछ रोचक प्रयोग होते रहते हैं । कभी शायरों के ख़याल टकरा जाते हैं तो कभी मिसरे। ख़ुदा-ए-सुख़न मीर ने लिखा था –
बेख़ुदी ले गई कहाँ हमको / देर से इंतज़ार है अपना
इसी ख़याल को ग़ालिब साहब ने अपने अंदाज़ में से आगे बढ़ाया–
हम वहाँ हैं जहाँ से हमको भी / ख़ुद हमारी ख़बर नहीं आती
‘ऐ मेरे वतन के लोगो’ फेम गीतकार स्व.पं.प्रदीप से एक बार मैंने पूछा था कि अगर दो रचनाकारों के ख़याल आपस में टकराते हैं तो क्या ये ग़ल़त बात है ? उन्होंने जवाब दिया कि कभी-कभी एक रचनाकार की रचना में शामिल सोच दूसरे रचनाकार को इतनी ज़्यादा अच्छी लगती है कि वह सोच के इस सिलसिले को आगे बढ़ाना चाहता है। यानी वह अपने पहले के रचनाकार की बेहतर सोच का सम्मान करना चाहता है। चरक दर्शन का सूत्र है-चरैवेति चरैवेति, यानी चलो रे…चलो रे…। कविवर रवींद्रनाथ टैगोर ने इस ख़याल को आगे बढ़ाया- ‘इकला चलो रे।’ लोगों को और मुझे भी अकेले चलने का ख़याल बहुत पसंद आया। मैंने इस ख़याल का सम्मान करते हुए एक गीत लिखा और मेरा गीत भी बहुत पसंद किया गया-
चल अकेला… चल अकेला… चल अकेला…
तेरा मेला पीछे छूटा साथी चल अकेला…
एक कहावत है- ‘ साहित्य से ही साहित्य उपजता है।’ मित्रो ! ‘भावों की भिड़न्त’ का आरोप महाकवि निराला पर भी लग चुका है। आपसे मेरा अनुरोध है कि ख़यालों के टकराने और दूसरों की ज़मीन पर अपनी फ़सल उगाने के बारे में आप एक सार्थक बहस शुरू करें ताकि आपके विचारों की रोशनी में आने वाली पीढ़ी अपना रास्ता तय कर सके।
आपका- देवमणि पांडेय