Monday, November 25, 2024
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वामपंथ और दक्षिणपंथ बनाम भारतीय (हिन्दू) पन्थ का वैश्विक नैरेटिव

अंतर्राष्ट्रीय विधि में वैश्विक घटनाक्रम ,राष्ट्राध्यक्षों या पंतप्रधानो के चुनाव और तत्पश्चात वैश्विक गुटों या संघठनो की आपसी सन्धि समझौतों से ही ,प्रचलित अंतरराष्ट्रीय नेरेटिव का पता चलता है…अंतरराष्ट्रीय विधि का प्रोफेसर होने के नाते इसी तारतम्य में अध्ययन के दौरान एक नेरेटिव का पता चला ..जो कि वर्तमान में हर भारत वासी के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि भारतीय समाज आज भी वैश्विक नैरेटिव और घटनाओं के आधार पर किसी भी आम चुनाव में अपना मन बनाकर मतदान करता है या शास प्रशासन निर्णय लेता है ।

वर्तमान में विश्व मे एक नैरेटिव बनाने का प्रयास चला है कि “अब विश्व मे दक्षिण पन्थ ढलान पर है ,अनेक देशों में दक्षिणपंथी पार्टियां और नेता जनसमर्थन खो रहे हैं ..इसलिए भारत मे भी नरेंद्र मोदी सरकार और उनके राजीनीतिक दल के सम्बंध में जनता आगामी राज्य और केंद्र के चुनावों में इसी प्रकार से निर्णय लेगी”… । ये नेरेटिव कुछ वामपंथी और कट्टर जेहादी विचारकों के द्वारा चीन की अगुवाई में समाचारपत्रों में लेख, दूरदर्शन वार्ताओं और संगोष्ठयों में प्रचारित किया जा रहा है ..इसलिए इस विषय पर अभी से हमारी सही दृष्टि और दिशा जरूरी है ।

इस विषय पर सही दिशा यह है कि सर्वप्रथम वर्तमान नरेंद्र मोदी सरकार और उनका दल दक्षिण पंथी नही है ,और वामपंथी होने का तो कोई प्रश्न दूर दूर तक या स्वप्न में भी नही है ।

अब प्रश्न है कि फिर नमो सरकार और उनका दल किस पन्थ में है ? तो वास्तव में ये भारतीय (हिंदुत्व) पन्थ के हैं । जो विश्व के शासक प्रशासकों के लिए भी स्वीकार्य और आवश्यक बनता जा रहा है ।

क्योंकि विश्व में राजनीतिक दलों को उनके चरित्र के आधार पर दो भागों में वर्गीकृत किया गया है। वामपंथी (लेफ्ट विंग) और दक्षिणपंथी (राइट विंग)।

ये दोनों विचारधाराएं एक लंबी रेखा के दो परस्पर विरोधी सिरे हैं। वामपंथी विचारधारा वर्गों पर आधारित विचारधारा है जिसमे श्रमिकों और कृषकों के इर्द-गिर्द शासन व्यवस्था की संरचना की गई है। राज परिवारों और पूंजीवादी व्यवस्थाओं के शोषण एवं अत्याचारों के विरुद्ध यह एक प्रतिक्रियात्मक विचारधारा है। धुर वामपंथी विचारधारा के अनुसार,वामपंथ के आड़े आ रहे प्रत्येक व्यक्ति का वध करना मान्य है।इस दृष्टि से ये इस्लाम या इसाईत्व के अधिक निकट है ।क्योंकि इन पन्थो का भी नरसंहार का विस्तृत इतिहास है । बीसवीं सदी में माओ त्से तुंग ने चीन में पूरी ताकत से इस विचारधारा पर एक क्रूर शासन स्थापित किया था और करोड़ों लोगों को मौत के घाट उतारा। रूस में लेनिन और बाद में जोसेफ स्टालिन ने वामपंथ के नाम पर भीषण नरसंहार किया। पहले मुगल,अफगान,तुर्क मुसलमानों ने बाद में अंग्रेज ईसाइयों ने भी भारत मे शांतिप्रिय सनातनियों के साथ यही व्यवहार किया ।

अब दूसरी ओर दक्षिणपंथी विचारधारा जो प्रजातियों (रेस), कट्टरवाद और रूढ़िवाद पर आधारित है। इस विचारधारा का सबसे चरम उदाहरण हिटलर का था जिसने नाज़ी व्यवस्था की स्थापना की और अपनी रेस (प्रजाति) को उत्तम समझकर अन्य प्रजाति के करोड़ों लोगों को मौत के घाट उतारा। वर्तमान में भीमआर्मी , नवबौद्ध अतिवादी , बामसेक,अपाक्स ,सपाक्स तथा अन्य कट्टर आतंकी मुस्लिम ईसाई गुट या अन्य अतिवादी जातिवादी संगठन इस विचारधारा का ही प्रतिनिधित्व करते प्रतीत होते हैं ।

बीसवीं सदी में इन कट्टर पंथियों का दौर था किंतु धीरे-धीरे मानव की समझ के विकास और शिक्षा के प्रसार की साथ कट्टर सोच में परिवर्तन आया।

वामपंथ कुछ नरम पड़ा और उसी से समाजवाद का भी जन्म हुआ, दक्षिणपंथी नरम होकर मध्य-दक्षिणपंथी चेहरे के रूप में आये।

वामपंथ और दक्षिणपंथ अब दो विरोधी छोर न रहकर मध्य मार्ग की ओर बढ़ते दिखे। क्रूरता और बर्बरता बीसवीं सदी का इतिहास हो गई। यद्यपि भारत पाकिस्तान में जेहादी आतंकी , मतान्त्रण में लगी ईसाई मिशनरियां तथा रूस और चीन में वाम पंथियों की क्रूरता के किस्से अभी भी यदा- कदा सुनने को मिलते हैं तथापि मानव समाज मध्य-वामपंथ से मध्य-दक्षिणपंथ के बीच में अपना वजूद ढूंढने लगा है।

उपर्युक्त तथ्यों की तुलना में हिंदुत्व या सांकृतिक राष्ट्रत्व आधारित भारतीय पन्थ ,.. वामपंथ और दक्षिणपंथ से सर्वथा भिन्न है । सर्व समावेशी, सर्वधर्म समभाव ,समरसता, सेवाभाव , पेड़ पौधों जीवो में भी ईश्वर को देखने की दृष्टि ,भारतीय (हिन्दू) पन्थ को मानवता के सस्टेनेबल यानी पोषणीय पन्थ या धर्म के रूप में निरूपित करती है । माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसे जीवन जीने का तरीका बताते हुए समर्थन दिया है ।

अब राजनीतिक दलों में इन पन्थो का प्रभाव देखें तो भारत में कांग्रेस , सपा, बसपा , आरजेडी, सीपीएम ये सब वामपंथ और दक्षिणपंथ आधारित मध्यमार्गी राजनीतिक या परिवार आधारित दल हैं वहीं भारतीय जनता पार्टी को भारतीय (हिन्दू) पंथी माना जाना चाहिए ।इसी प्रकार इंग्लैंड के दो प्रमुख दलों में लेबर पार्टी को वामपंथी और कन्सर्वेटिव पार्टी को दक्षिणपंथी माना जाता है। उसी तरह यूरोप के अन्य देशों में भी इन्हीं दोनों विचारधारा वाले दलों में राजनैतिक प्रतिद्वन्द्विता होती है।

यूरोपीय संसद के 2014 के चुनावों में तीसरी शक्ति का पुनर्जन्म हुआ। कट्टर दक्षिणपंथी जो लगभग लुप्त हो चुके थे फिर राजनीतिक परिदृश्य में उभरते हुए दिखाई दिए। ये वे दक्षिणपंथी थे जो यूरोप महाद्वीप से पहले अपने राष्ट्र को प्राथमिकता देना चाहते हैं और यूरोप के एकीकरण में गरीब राष्ट्रों का बोझ अपने सिर पर नहीं लेना चाहते थे ।जबकि जिस तरह कोरोना संकट में भारत ने सम्पूर्ण विश्व के सभी देशों की यथाशक्ति सहायता की , इसलिए भी भारत इनकी दक्षिणपंथी श्रेणी में नही आता ।

2014 के यूरोपीय संसद के चुनावों में सबसे बड़ा उलटफेर फ्रांस ने किया जब फ्रांस के कट्टरपंथी राष्ट्रवादियों ने यूरोप एकीकरण के समर्थक राजनेताओं को धता बताते हुए यूरोपीय संसद के चुनाव जीत लिए। उसी तरह इंग्लैंड, ऑस्ट्रिया, हंगरी इत्यादि देशों से भी कट्टर दक्षिणपंथी विजयी हुए।

ग्रीस में तो हद हो गयी जब नव-नाज़ी दल ने दस प्रतिशत मत प्राप्त करने में सफलता पाई। इस बार की यूरोप की संसद में सबसे अधिक कट्टरपंथी सांसद पहुंचे हैं, यद्यपि ये बहुमत से बहुत दूर हैं परन्तु यूरोप के नेतृत्व को झटका देने तथा संयुक्त यूरोप की नीतियों पर अपना प्रभाव डालने के लिए उनकी संख्या पर्याप्त है।

अभी अप्रैल 2018 में अबीय अहमद, इथियोपिया के प्रधानमंत्री बने। सत्ता संभालते ही प्रधानमंत्री अबीय ने पड़ोस के एरीट्रिया के साथ कुछ दशक पुराने झगड़ों को सुलझाने की पहल की जिसके कारण उस पूरे क्षेत्र में शांति और सहयोग का वातावरण बना। इस उपलब्धि के कारण उन्हें वर्ष 2019 का नोबेल शांति पुरस्कार भी मिला।

प्रधानमंत्री अबीय ने कुछ और प्रशंसनीय कार्य किए। उन्होंने इथियोपिया की तानाशाही राजनैतिक और प्रशासनिक व्यवस्था को ध्वस्त; राजनैतिक कैदियों को जेल से रिहा; अर्थव्यवस्था को उदारवादी; तथा राष्ट्र के दमनकारी कानूनों में संशोधन करना शुरू कर किया। साथ ही, विदेशों में निर्वासित विपक्ष और अलगाववादी नेताओं तथा समूह को इथियोपिया वापस बुला लिया। ऐसे कई अन्य प्रशंसनीय कदम उठाए गए।

वर्ष 2018 की शुरुआत में किसी को आशा ही नहीं थी कि कुछ ही महीनों में इथियोपिया इतना बदल जाएगा। प्रत्येक कदम ऐसे थे जिसकी अनुशंसा अंतरराष्ट्रीय संस्थाए, एनजीओ तथा उदारवादी नेतागण किया करते थे।

नोबेल शांति पुरस्कार के बाद लगने लगा कि प्रधानमंत्री अबीय की स्थिति अभेद्य हो गयी है।

लेकिन शांति पुरस्कार मिलने के तुरंत बाद ही इथियोपिया में अशांति, हिंसा तथा अराजकता हावी हो गई। केवल 11 करोड़ नागरिकों के राष्ट्र में जातीय तनाव तथा हिंसा के कारण 30 लाख लोग घर से विस्थापित हो गए। सैकड़ों लोगों की हिंसा में मृत्यु हो गई है। पिछले सप्ताह की हिंसा में लगभग 240 लोग मारे जा चुके हैं। पूरे देश में कानून-व्यवस्था को बनाए रखने का संकट छाया हुआ है।

यही स्थिति फ्रांस के राष्ट्रपति एमानुएल माक्रों की है जिन्होंने फ्रांस की बदहाल आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए एकाएक कई तरीके के सुधार कर डालें। उन्होंने कॉर्पोरेट टैक्स की दर को कम कर दिया और संपत्ति कर भी लगभग समाप्त कर दिया. रेल कर्मचारियों की रिटायरमेंट उम्र और आर्थिक लाभ में कटौती कर दी (रेल कर्मियों की सेवा शर्ते अन्य सरकारी कर्मचारियों की तुलना में बहुत उदार थी) और उन कर्मियों के द्वारा तीन महीने हड़ताल पे जाने के बावजूद भी माक्रों नहीं झुके. साथ ही उन्होंने फ्रांस की पेंशन व्यवस्था में सुधार कर दिया जिससे कई सेवानिवृत्त व्यक्तियों की पेंशन में कमी आ गई। लेकिन अधिकतर फ्रेंच लोग माक्रों को धनाढ्य लोगो के हितैषी तथा गरीबों के दुश्मन के रूप में देखने लगे। और फ्रांस के ग्रामीण इलाकों में रहने वाले निवासी सरकार के विरुद्ध सड़क पर उतर आए।

इन्ही उदाहरणों के आधार पर वामपंथी या मध्यमार्गी भारत की नमो सरकार के हटने की कल्पना कर वैश्विक नैरेटिव स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं

लेकिन उक्त देशों की तुलना में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी भारतीय अर्थव्यवस्था में रातों रात सुधार कर दिया. इन सुधारों में काले धन को बैंको में वापस लाने और टैक्स बढ़ाने के लिए नोटबंदी, जीएसटी, सात लाख से अधिक फर्जी कंपनियों को बंद करना, दिवालिया कानून लाना, बजट घाटे को कम करना, महंगाई पर कंट्रोल करना, उदारीकरण इत्यादि शामिल है.

सुप्रीम कोर्ट, मीडिया और अभिजात वर्ग के लोग आश्चर्य करते है कि नोटबंदी, GST और किसानो ने उपज के दाम को लेकर कभी भी स्वेच्छा से – (ध्यान दीजिये, स्वेच्छा से )- सरकार के विरूद्ध विद्रोह क्यों नहीं कर दिया. कई बार इन वर्गों ने जनता को भड़काने और हिंसा करने के लिए भी उकसाया.

आखिरकार क्या कारण है कि प्रधानमंत्री मोदी भारत की व्यवस्था में सुधार करते गए और जनता ने स्वेच्छा से हिंसा नहीं की।

इसके कुछ कारण है। प्रथम, अबीय अहमद चुनाव जीतकर इथियोपिया के प्रधानमंत्री नहीं बने थे; बल्कि पूर्व प्रधानमंत्री हाईलेमरियम देसालेन के त्यागपत्र के बाद प्रधानमंत्री बने थे। एक तरह से उनका जनाधार चुनाव में निर्धारित नहीं हुआ था। वे ब्रिटेन में पढ़े थे और वहां की विचारधारा और व्यवस्था को इथियोपिया में एकाएक उतार दिया।

द्वितीय, राष्ट्रपति माक्रों फ्रांस – या यूं कहिए यूरोप – के सबसे अभिजात (एलीट) “स्कूल” या विश्वविद्यालय के ग्रेजुएट थे. वित्त मंत्रालय में नौकरी करते समय वे अति धनाढ्य लोगो के बैंक – रोथ्सचाइल्ड बांक – में एक निवेश बैंकर के रूप में कार्य करने लगे जहाँ उन्होंने तीन वर्ष में करीब तीस करोड़ रुपए बोनस और नियमानुसार कमीशन में कमा लिए.

वही फ्रांस में सत्ता में आने के बाद से माक्रों ने फ्रांस के राष्ट्रपति पद की गरिमा को पुनर्स्थापित करने का निर्णय लिया. उन्होंने कहा कि वे “जुपिटेरियन” प्रेसीडेंसी – जिसमे राष्ट्रपति एक रोमन भगवान के रूप में सम्मानित होगा जो कोई गलत नहीं कर सकता – स्थापित करेंगे जिसमे वे कम बोलेंगे तथा उन तक लोगो की पहुँच सीमित होगी. इस दिशा में उन्होंने पेरिस के पास स्थित 18 वी सदी फ्रांस के स्वघोषित “सूर्य सम्राट” लुइ XIV (चौदह) के भव्य वर्साय महल में संसद का सत्र बुलाकर भाषण दिया. इसी वर्साय महल में वे रूस के राष्ट्रपति पुतिन से मिले. एक तरह से उन्होंने अपनी इमेज जनमानस में एक “सम्राट” के रूप में स्थापित कर दी थी.

लेकिन डेमोक्रेसी में जनता ही सम्राट होती है और उन्होंने माक्रों को कुछ ही समय में बतला दिया कि बॉस कौन है।

इन दोनों के विपरीत प्रधानमंत्री मोदी पिछड़ी जाति के और निर्धन परिवार में पैदा हुए थे. उन्होंने बचपन में चाय बेचीं थी और उच्च शिक्षा पत्राचार पाठ्यक्रम या ओपन स्कूल से करी, उनके परिवार में दूर-दूर तक कोई राजनीति में नहीं था. किशोरावस्था में परिवार से दूर यायावरी करते हुए अनुभव और ज्ञान दोनों प्राप्त किया.

प्रधानमंत्री मोदी ने भी भारतीय अर्थव्यवस्था में सुधार और भ्रष्टाचार से निपटने के लिए कठोर कदम उठाने की आवश्यकता को समझा. लेकिन उन्हें यह भी समझ थी कि आर्थिक सुधार का मतलब आम नागरिको को मिलने वाली सुविधाएं और भत्ते में कटौती नहीं है. उन्हें समझ थी कि इस डिजिटल क्रांति के युग में अर्थव्यवस्था का स्वरुप बदल रहा है और सरकार को नए काल के लिए अर्थव्यवस्था और जनता दोनो को रेडी करना होगा. इस पिछड़ी जाति चायवाले, जो ब्रिटेन या फ्रांस में नहीं पढ़ा है, ने पकड़ लिया था कि आर्थिक रिफार्म का सही अर्थ है धनाढ्य वर्ग से मध्यम और निर्धन वर्ग की तरफ समृद्धि का ट्रांसफर. लेकिन फिर भी आम जनता को यह समझने में कठिनाई हो सकती है क्योकि हमारी समृद्धि के साथ हमारी आकांक्षाये भी बढ़ जाती है.

अतः, प्रधानमंत्री मोदी ने अपने आप को प्रधान सेवक के रूप में प्रस्तुत किया. जनता के बीच में उन्होंने हमेशा विनम्रता से व्यवहार किया. हर भाषण के बाद वे झुककर, हाथ जोड़कर जनता जनार्दन का अभिवादन करते है. एक रैली में उन्होंने एक आदिवासी महिला की चप्पल पहनने में मदद की. कुम्भ मेला में सफाई कर्मियों के पैर धोए। कभी भी अवकाश नहीं लिया, या अपने परिवार और नाते-रिश्तेदार को सरकारी खर्च पे सैर करायी हो.

यही एक सही नेतृत्व की पहचान है कि ना केवल ऐसे कदम उठाए जाएं जो उपयुक्त हो, समयानुकूल हो; लेकिन उनकी प्रक्रिया भी ऐसी हो, उन्हें ऐसे समझाया जाए कि जनता भी उन्हें स्वीकार कर ले। ऐसे किसी कदम की उपयोगिता नहीं है जिसके विरोध में जनता सड़क पर आ जाए और राष्ट्र को लाभ की जगह हानि हो जाए।

नरेंद्र मोदी सरकार के नेता ,नीति , आचार,विचार ,व्यवहार में राष्ट्रीय स्वयम सेवक संघ का दर्शन है ।जो भारतीय पन्थ का परिचायक है । इस संघठन के नाम मे जो (स्वयम) “सेवक” शब्द है वह सेवा का पर्यायवाची है । सेवा व्यक्ति ,समाज और राष्ट्र की है ,इसके पीछे मानव धर्म के रूप में हिन्दू धर्म खड़ा है ।

करील के वृक्ष में पुष्प नही आते तो वर्षा ऋतु का दोष नही है । चातक के कंठ में स्वाति नक्षत्र की बूंदे नही गिरती तो मेघों का दोष नही है । और उल्लू को दिन में दिखाई नही देता तो सूरज का दोष नही है ।

इसी प्रकार कथित दक्षिणपंथ से भारतीय (हिन्दू) पन्थ को समान बताने में भी सामान्य वामपंथियो का नही इनके मार्क्स, माओ,लेनिनवादी इनके विचारकों, परिवारवादी राजनीतिक दलों के मुखियाओं और भारत के प्रति इनकी अज्ञानता ही है ।भारत के नागरिकों को चाहिए कि समयानुकूल राष्ट्रहित में विश्वहित में कदम उठाने के लिए प्रधानमंत्री मोदी के भारतीय हिन्दू पंथी विज़न पर विश्वास बनाए रखे।

एक निवेदन

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