आज के दौर में विकास शब्द ऐसा है जिसकी चर्चा सबसे अधिक होती है। इसलिए मैं मातृभाषा और विकास के संबध पर प्रकाश डालना चाहूँगा।
विश्व में संभवत: कोई ऐसा वैज्ञानिक, शिक्षाविद, दार्शनिक, चिंतक अथवा भाषाविद् नहीं होगा जिसने मनुष्य के विकास के लिए मातृभाषा के महत्व को स्वीकार न किया हो। भाषाविदों के अनुसार समाज विकसित या अविकसित हो सकते हैं लेकिन कोई भी भाषा अविकसित नहीं होती। संसार की हर भाषा में अपने बोलने वालों की सभी संचार-अभिव्यक्ति-आवश्यकताओं को पूरा करने की स्वभाविक क्षमता होती है।
पराधीनता
मातृभाषा दिवस उन देशों में सर्वाधिक प्रासंगिक है जो भाषायी दासता से ग्रस्त हैं। इनमें भारत प्रमुख है। आज भारत में लोग अब न केवल अपनी भाषा से कटते जा रहे हैं बल्कि उसे हीन भाव से भी देखते हैं। इसका मुख्य कारण है हमारी लंबी पराधीनता। बारह सौ वर्ष पूर्व से इस देश पर विदेशी आक्रमणकारियों के हमले होते रहे और अपनी सत्ता को स्थाई बनाए रखने के लिए विदेशी शासकों ने भारतीय भाषाओं और ज्ञान-विज्ञान के स्थान पर अपनी भाषा और ज्ञान विज्ञान को स्थापित करने का प्रयास किया। स्वतंत्रता के पश्चात सत्तासीन वर्ग ने अपना आधिपत्य बनाए रखने के लिए इसका प्रभुत्व बनाए रखा। भारत में अक्सर अंग्रेजी में पढ़े लोग लोग यह प्रश्न पूछते हैं कि की मातृभाषा क्यों ? यह प्रश्न ही गलत है। प्रश्न तो यह होना चाहिए कि मातृभाषा में क्यों नहीं ? मातृभाषा ही वह भाषा है, जिसमें कोई व्यक्ति स्वभाविक रुप से सोचना, समझना और सीखना प्रारंभ करता है। भारत के संदर्भ में प्रश्न यह बनता है कि विदेशी भाषा यानी अंग्रेजी में क्यों ? इस बात को समझने के लिए हमें निम्नलिखित बिंदुओं को समझना होगा।
बौद्धिक विकास और मातृभाषा
इस्लामिक आजाद विश्वविद्यालय, तेहरान के विज्ञान एवं अनुसंधान शाखा के प्रोफ़ेसर रिज़वान नूर मौहम्मदी के अनुसार, परिष्कृत रूप में बौद्धिक (संज्ञानात्मक) विकास को तीव्रता से आगे बढ़ने और तर्क के स्तर पर प्रतिबिंब, समन्वय और सामाजिक संपर्क की प्रक्रिया बचपन से ही भाषा के माध्यम से होती है। इस प्रक्रिया में मातृभाषा जीवन भर प्राथमिक उपकरण की तरह काम करती है। कहने का अभिप्राय यह कि मातृभाषा रूपी इस उपकरण के माध्यम से चिंतन, मनन, विश्लेषण आदि के लिए उसे किसी अतिरिक्त श्रम की या किसी प्रकार के आंतरिक और बाह्य अनुवाद की आवश्यकता नहीं होती। जैसे-जैसे वह बढ़ता है, वह उस भाषा की शब्दावली को आत्मसात करता जाता है और उसकी अभिव्यक्ति क्षमता भी विभिन्न क्षेत्रों में उसी प्रकार बढ़ती चली जाती है। प्रकृति की यही स्वभाविक प्रक्रिया है। इसलिए मातृभाषा को पहली भाषा, मूल भाषा के रूप में सीखना आवश्यक है। मातृभाषा बौद्धिक क्षमता का हिस्सा है। मातृभाषा वह भाषा है जिसे मनुष्य स्वभाविक रूप से जन्म से अर्जित करता है। यह बच्चे को उसके मानसिक, नैतिक और भावनात्मक विकास में मदद करती है।
इसी बात को राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के संदर्भ में प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि किसी व्यक्ति के जीवन में उसकी मातृभाषा के महत्व की सबसे अच्छी और सटीक तुलना करने के लिए माँ के दूध से बेहतर कुछ नहीं। जैसे जन्म के एक या दो वर्ष तक बच्चे के शारीरिक और भावनात्मक विकास के लिए माँ का दूध और स्पर्श सर्वश्रेष्ठ होते हैं वैसे ही उसके संवेगात्मक, बौद्धिक और भाषिक विकास के लिए मातृभाषा या माँ बोली। मातृभाषा की इस भूमिका पर संसार में कोई भी मतभेद नहीं है, वैसे ही जैसे माँ के दूध के महत्व, प्रभाव और भूमिका पर कोई मतभिन्नता नहीं है।
इस विषय पर इतने सारे शोध, प्रयोग, अध्ययन हुए हैं, इतनी सारी किताबें लिखी गई हैं कि अब इसे एक सार्वभौमिक निर्विवाद सत्य के रूप में वैश्विक स्वीकृति मिल गई है। लेकिन भारत का कथित शिक्षित समाज इस वैश्विक स्वीकृति के विपरीत अपनी मातृ-भाषा और राष्ट्र-भाषा के स्थान पर औपनिवेशिक भाषा की दासता की ओर तेजी से बढ़ रहा है।
शिक्षा का सर्वश्रेष्ठ माध्यम
अध्ययनों से पता चलता है कि जो बच्चे अपनी मातृभाषा में एक ठोस आधार के साथ स्कूल आते हैं, उनमें साक्षरता क्षमताओं का विकास होता है। कुल मिलाकर बच्चों की मातृभाषा के महत्व के बारे में, अनुसंधान उनके व्यक्तिगत और शैक्षिक विकास के लिए बहुत स्पष्ट है (बेकर, 2000; कमिंस, 2000; स्कुटनब-कांगस, 2000 कमिंस में उद्धृत, 2000)। स्पष्टत: मातृभाषा की शिक्षा में केंद्रीय भूमिका होती है।
शिक्षा के माध्यम के संबंध में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का कहना था कि माता का दूध पीने से लेकर जो संस्कार और मधुर शब्दों द्वारा शिक्षा मिलती है उसके और पाठशाला की शिक्षा के बीच संगती होनी चाहिए । पराई भाषा से वह श्रृंखला टूट जाती है और उस शिक्षा से पुष्ट हो कर हम मातृद्रोह करने लग जाते हैं।
शिक्षाविद कृष्णजी (1990) का दावा है कि कई मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और शैक्षिक प्रयोगों ने साबित किया कि मातृभाषा के माध्यम से सीखने में अधिक गहराई, और अधिक तीव्रता है, और यह अधिक प्रभावी है। वास्तव में, कक्षा में छात्रों की मातृभाषा का उपयोग करके विषय सामग्री पढ़ाने से छात्रों के संज्ञानात्मक कौशल को विकसित किया जा सकता है।
यह कोई कम हैरानी की बात नहीं की लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति और उसकी तमाम प्रयासों के बावजूद भी स्वतंत्रता के समय देश की 99% से भी अधिक लोग मातृभाषा में ही पढ़ते थे लेकिन स्वाधीनता के पश्चात आशा के विपरीत स्थिति बदलती चली गई और आज स्थिति यह है कि छोटे-छोटे गांवों तक और उच्च शिक्षा के स्थान पर नर्सरी तक भी अंग्रेजी माध्यम पहुंच गया है। हर कोई अंग्रेजी रट रहा है। देश के अधिकांश लोग मातृभाषा या तो पढ़ते नहीं और पढ़ते भी हैं तो केवल किसी औपचारिकता को पूरी करने की दृष्टि से। मातृभाषा माध्यम लगभग लुप्त होता जा रहा है। इसके लिए कौन जिम्मेदार है ? यह चर्चा का एक अलग विषय हो सकता है, आज स्थिति यह है कि देश के बड़े भूभाग में हमारे विद्यार्थी न तो ठीक से अपनी मातृभाषा जानते हैं, न देश की भाषा और न ही अंग्रेजी ।
शोधों ने यह सिद्ध किया है कि जीवन के आरंभिक वर्षों और प्राथमिक शिक्षा में मातृभाषा माध्यम में पढ़ने वाले बच्चों में सर्वश्रेष्ठ संवेगात्मक विकास के साथ साथ सभी विषयों की समझ और अधिगम भी बेहतर होते हैं दुनिया के किसी भी स्थान-समाज में जन्म लेने वाले बच्चों के लिए मातृभाषा भाषा ही सर्वांगीण विकास तथा सभी विषयों के बारे में सीखने के लिए सर्वोत्तम माध्यम होती है। यह बात सुदूर जंगलों में रहने वाले वनवासी बच्चों पर भी उतनी है लागू होती है, जितनी सबसे विकसित, संपन्न समाजों-देशों के बच्चों पर।
यह प्रसन्नता की बात है कि नई शिक्षा नीति में मातृभाषाओं के माध्यम से शिक्षा और उनके अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था की गई है यह किस प्रकार और किस हद तक लागू हो सकेगी, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।
मौलिक चिंतन, ज्ञान-विज्ञान और मातृभाषा
जो लोग विज्ञान को समझते हैं वे समझ सकते हैं कि ज्ञान-विज्ञान का संबंध किसी भाषा विशेष से नहीं हो सकता है? ज्ञान-विज्ञान का संबंध तो तर्क से है। विषय वस्तु को समझते हुए तथ्यों का विश्लेषण करते हुए जब हम किसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं तो ज्ञान – विज्ञान आगे बढ़ता है। लेकिन हमारे देश में और हम जैसे कई पूर्व गुलाम देशों में अधिकांशत: हम मौलिक रूप से चिंतन – मनन न करके केवल आयातित ज्ञान-विज्ञान को रटते हुए सामान्यतः उसका प्रयोग करते हैं । स्थापित तथ्य है कि मौलिक चिंतन अपनी भाषा से ही संभव है और मातृभाषा से बढ़कर कोई माध्यम हो नहीं सकता।
एक और बात भारत में विज्ञान के जितने विद्यार्थी हैं उतने शायद पूरे विश्व में न हों। 2019 के शिक्षा मंत्रालय के ‘अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वेक्षण’ के मुताबिक देश में सबसे ज्यादा विज्ञान वर्ग के छात्र पीएचडी के लिए नामांकन कराते हैं। विज्ञान व प्रौद्योगिकी में मिलाकर 40 प्रतिशत जो कि अन्य सभी संकायों से अधिक है। इसके बावजूद आज विभिन्न क्षेत्रों में नई अवधारणाओं और आविष्कारों आदि के मामले में विपुल जनसंख्या के बावजूद भारत विश्व के छोटे – छोटे देशों से भी काफी पीछे है। कारण यह कि विदेशी भाषाओं की दासता ने हमें मौलिक चिंतन और नए विचारों के बजाए औपनिवेशिक भाषाओं पर निर्भर बना दिया और हम विदेशी भाषाओं के माध्यम से उपलब्ध विदेशी ज्ञान-विज्ञान पर निर्भर होते चले गए।
मौलिक चिंतन तो मातृभाषा में ही होता भाषायी दासता के चलते हम देखें तो हमारे ज्यादातर लोग मूलभूत विज्ञान के बजाए Applied Science यानी प्रायोगिक विज्ञान के क्षेत्र में हैं। यदि हम किसी से स्वतंत्र भारत में कोई मूल आविष्कारक पूछें तो बताना कठिन हो जाएगा।
तेहरान के प्रो. नूरमोहम्मदी के अनुसार शिक्षा के बीच स्वतंत्र सोच को प्रोत्साहित करने के लिए एक संभावित साधन मातृभाषा है। यूनेस्को के 2008 के समाचार पत्र के अनुसार, “मातृभाषा में सीखने का संज्ञानात्मक और भावनात्मक मूल्य है। जब बच्चे अपनी मातृभाषा के माध्यम से सीख रहे हैं, तो वे अवधारणाएँ और बौद्धिक कौशल सीख रहे होते हैं
20 अक्टूबर 1917 को गुजरात के भरूच में एक शिक्षा सम्मेलन में दिए गए अपने लंबे संबोधन में गांधी जी ने कहा था, ‘विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा पाने में दिमाग पर जो बोझ पड़ता है, वह बोझ हमारे बच्चे उठा तो सकते हैं लेकिन उसकी कीमत हमें चुकानी पड़ती है। वे दूसरा बोझ उठाने लायक नहीं रह जाते। इससे हमारी स्नातक अधिकतर निकम्मे, कमजोर, निरुत्साही, रोगी और कोरी नकलची बन जाते हैं। उनमें खोज करने की शक्ति, विचार करने की शक्ति, साहस, धीरज, वीरता, निर्भयता और अन्य गुण बहुत क्षीण हो जाते हैं। इससे हम नई योजनाएं नहीं बना सकते, और यदि बनाते हैं तो उन्हें पूरा नहीं कर पाते। कुछ लोग जिनमें उपर्युक्त गुण दिखाई देते हैं, अकाल ही काल के गाल में चले जाते हैं। उन्होंने आगे कहा, ‘एक अंग्रेज ने लिखा है कि मूल लेख और सोखता कागज के अक्षरों में जो भेद है, वही भेद यूरोप के और यूरोप के बाहर के लोगों में है। इस विचार में जो सच्चाई है वह एशिया के लोगों की स्वभाविक अयोग्य योग्यता के कारण नहीं है, इसका कारण शिक्षा का माध्यम है।’
गाँधी जी कहते हैं, ‘हम जगदीश चंद्र बसु और डॉक्टर प्रफुल्ल चंद्र राय को देखकर मोहित हो जाते हैं। मुझे विश्वास है कि यदि 50 वर्षों तक मातृभाषा द्वारा पढ़ाई होती तो हममें इतने बसु और राय होते कि उन्हें देखकर हमें अचंभा न होता।’ महात्मा गांधी का स्पष्ट मत था कि जब तक वैज्ञानिक विषय मातृभाषा में नहीं समझाए जा सकते, तब तक राष्ट्र को नया ज्ञान नहीं मिल सकता।
प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक जयंत विष्णु नारलीकर ने भारत में विज्ञान की शिक्षा के सेबंध में कहा, ‘अगर भारत की सोई हुई प्रतिभाओं को जगाना है तो विज्ञान की शिक्षा का माध्यम हिंदी को बनाना होगा। इसके बिना भारतीय जनता और वैज्ञानिक विचारों के बीच विद्यमान दूरी को खत्म नहीं किया जा सकता और ऐसी दशा में भारतीय जनता और वैज्ञानिक विचारों के बीच जनभाषा का सहारा लेना बहुत जरूरी है।’
आर्थिक विकास और मातृभाषा
आईआईटी कानपुर और टेक्सास विश्वविद्यालय के स्नातक, सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र के विशेषज्ञ, उद्यमी, लेखक और शोधकर्ता संक्रांत सानु जिन्होंने विश्व के विभिन्न देशों में कार्य करते हुए भाषाओं की भूमिका पर भी अध्ययन किया, उन्होंने ‘भाषा का अर्थशास्त्र’ समझाते हुए अपनी चर्चित पुस्तक ‘अंग्रेजी माध्यम का भ्रमजाल’ में भाषायी अनुसंधान के आधार पर विश्व के विभिन्न देशों में प्रति व्यक्ति आय के आंकड़ों का विश्लेषण करते हुए यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया कि विश्व के सर्वाधिक धनी बीस देश वे हैं, जहां शिक्षा का माध्यम और कामकाज की भाषा वहां की जनभाषा है, इसके ठीक विपरीत विश्व के सर्वाधिक निर्धन बीस देश वे हैं, जहां जनभाषा वहाँ की राजभाषा नहीं है और शिक्षा और कामकाज प्रायः उस भाषा में होता है जिस देश के वे कभी गुलाम थे। यह अनुसंधान भारत में प्रचलित उस मिथ्या धारणा को ध्वस्त करता है जिसमें अंग्रेजी को देश के आर्थिक विकास से जोड़ कर देखा जाता है।
मातृभाषा तथा समाज व संस्कृति का विकास
कोई भी भाषा न केवल अपने क्षेत्र की संस्कृति की वाहक होती है बल्कि हजारों वर्षों से संचित ज्ञान-विज्ञान की वाहक भी होती है। यदि कोई भाषा सिमटती है या समाप्त होती है तो उसके साथ ही साथ वहां की पूरी संस्कृति भी नष्ट हो जाती है यदि हमें अपनी प्राचीन ज्ञान विज्ञान अपने गीत-संगीत साहित्य सहित भाषा में निहित विभिन्न तत्वों को संरक्षित रखना है तो उसके लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि हम अपनी भाषा को अपनाएं इससे न केवल हमारी भाषा संस्कृति और ज्ञान विज्ञान का संरक्षण होगा बल्कि हमारा स्वयं का भी समुचित विकास हो सकेगा। भारत में जैसे-जैसे भारतीय भाषाओं के स्थान पर अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ता गया है वैसे-वैसे भारतीय धर्म – संस्कृति, अध्यात्म, भारतीय मूल्य, संस्कार तथा भारत का वैभवशाली ज्ञान-विज्ञान भी तिरोहित होता जा रहा है। इन्हें बचाने और बढ़ाने के लिए सबसे अधिक आवश्यक हैं हमारी भाषाएँ।
महात्मा गांधी का कहना था कि ‘मुझे यह नहीं बर्दाश्त होगा कि हिंदुस्तान का एक भी आदमी अपनी मातृभाषा को भूल जाए, उसकी हंसी उड़ाए, उससे शर्माए या उसे यह लगे कि वह अपने अच्छे से अच्छे विचार अपनी भाषा में नहीं रख सकता।’ वे आगे कहते हैं, ‘मेरी मातृभाषा में कितनी ही खामियां क्यों न हों मैं उससे उसी तरह चिपटा रहूँगा, जिस तरह अपनी माँ की छाती से। वही मुझे जीवनदायी दूध दे सकती है।’
इस संबंध में महात्मा गांधी का कहना था, ‘यदि हम मातृभाषा की उन्नति नहीं कर सके और हमारा यह सिद्धांत रहे कि अंग्रेजी के जरिए ही हम अपने उनके विचार प्रकट कर सकते हैं उनका विकास कर सकते हैं तो इसमें जरा भी शक नहीं है कि हम सदा के लिए गुलाम बने रहेंगे’
मातृभाषा के संबंध में समग्र चर्चा को भारतेंदु हरिश्चंद्र नें निम्नलिखित चार पंक्तियों में बहुत पहले ही स्पष्ट कर दिया था, जो उनकी प्रसिद्ध कविता निज भाषा से ली गई है।
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।।
इसमें उन्होंने कहा है कि अपनी भाषा से ही सभी प्रकार की उन्नति संभव है, क्योंकि यही सारी उन्नतियों का मूलाधार है। मातृभाषा के ज्ञान के बिना हृदय की पीड़ा का निवारण संभव नहीं है। विभिन्न प्रकार की कलाएं, असीमित शिक्षा तथा अनेक प्रकार का ज्ञान, सभी देशों से जरूर लेने चाहिये, परन्तु उनका प्रचार मातृभाषा के द्वारा ही करना चाहिये।
यदि हमें भारत का और भारत के नागरिकों का सर्वांगीण विकास करना है तो हमें अपनी मातृभाषाओं का सर्वोपरि महत्व देना होगा। और इस कार्य के लिए हमें पूरी कोशिश करनी होगी, केवल कविता कहानी से बात न बनी है, न बनेगी। एक लंबी लड़ाई लड़नी होगी। ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ पिछले करीब 10 वर्ष से देश – दुनिया के पंद्रह हजार लोगों और भारत – भाषा प्रेमियों को एकजुट कर इस कार्य में लगा है।
( लेखक ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ के निदेशक हैं)
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वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
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