Sunday, December 29, 2024
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हिन्दी साहित्य में ऋतुओँ के राजा वसंत की महिमा

प्रकृति और मानव का संबंध आदिकाल से रहा है। प्रारंभ में सभी आवश्यकताओं हेतु उसे प्रकृति पर ही निर्भर रहना पड़ता था और उसी से प्रेरणा ग्रहण करके उसमें कल्पना एवं विचार की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई। प्रकृति के परिवर्तनशील बहुवर्णी स्वरूप को देखकर ही उसके मन में उद्भावनाएँ जागृत हुईं। कश्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात से असाम तक विविधता में एकता का दर्शन कराने वाला भारत उसकी सामाजिक, सांस्कृतिक, प्राकृतिक और भौगोलिक दृष्टि किसी न किसी रूप में एक रही है। प्राकृतिक अवस्था के अनुसार दो-दो महीने की छः ऋतुएँ वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत और शिशिर जैसी ऋतुएँ आकर प्रकृति को शोभायमान करती रहती हैं। जीवनधारियों को एक नए उत्साह के साथ कार्य करते हुए पृथ्वी को मनोहारिणी छटा से अलंकृत कर देती हैं। ऋतुओं को लेकर हिन्दी साहित्य तथा संस्कृत साहित्य के कवि, मनीषी अपनी लेखनी के माध्यम से बड़ा ही मनोहारी दृश्य-चित्र उकेरने का प्रयास करते रहे हैं।

ऋतु चक्र के अनुसार शिशिर ऋतु के बाद चैत्र और वैशाख दोनों ही महीने वसंत ऋतु के माने गए हैं। इस महीने को ‘ऋतुराज’ नाम से, तो कहीं ‘मधुमास’ से भी संबोधित किया जाता रहा है। इस महीने में आकाश से कुहरा कम हो जाता है, ठंड कम पड़ने लगती है, आसमान निर्मल स्वच्छ हो जाता है, नदी, सरोवर, तालाब का जल अपनी भौतिक छवि से सबके मन को आकर्षित करते हैं। इसी महीने में पेड़ों में नई-नई कोपलें फूटती है। महुए की गंध से वन महक जाते हैं। सरसों, जौ, आलू, गेहूँ, चना, मटर, तीसी की फ़सल तैयार होने को होती हैं। वसंत पंचमी के दिन विद्या की देवी सरस्वती का पूजन, होली, रामनवमी और वैशाखी जैसे प्रमुख त्यौहार की प्रतिक्षा होने लगती है।

इसी महीने में भाैंरे, मधुमक्खी, पराग का आनंद लेते हैं तथा मधुमक्खी शहद इकट्ठा करने का काम तेज़ी से करती है। कोयल और पपीहा अमराइयों से मस्त मधुर गान करते हैं। मधुऋतु वसंत के इस सुरम्य प्राकृतिक सुषमा और संपन्न वातावरण को कवियों ने अपनी लेखनी के माध्यम से उसके विविध रूपों में स्थापित करने का प्रयास किया है। ‘आदिकाल के कोकिल’ के उपनाम से विख्यात मैथिली कवि विद्यापति ने वसंत ऋतु का मनोहर चित्रण प्रस्तुत करते हुए लिखा है-

नव बृंदवन नव-नव तरुगण,
नव-नव विकसित फूल।
नवल वसंत नवल मलयानिल,
मातल नव अलिकूल॥
बिहराई नवल किशोर।

विद्यापति ने मनोहारी वसंत के माध्यम से जीवन के कुछ सुखद क्षण को बताया वहीं दूसरी तरफ फूल के आगमन के साथ वृक्षों में नव किसलय सुगंधित वायु से वसंत का आगमन बताया है। निर्गुण भक्तिधारा के कवि कबीरदास ने अपनी ‘साखी’ के माध्यम से इसका वर्णन करते हुए कहा है-

रितु वसंत जाचक भया, हरखि दिया द्रुम पात
तोत नव पल्लव भया, दिया दूर नहिं जात।

नए फूलों, नए पत्तों, भवरों के गुंजार और कोयल की कूक के साथ वसंत धीरे-धीरे प्रकृति में अवतीर्ण होता है। आदिकाल के कवि विद्यापति ने तो वसंत के राजसी ठाठ को ही अपनी कविता में साकार कर दिया है-

आयल ऋतुपति राज वसंत
धाओल अलिकुल माधवी पंथ।

‘प्रेम के पीर’ नाम से प्रसिद्ध ‘पद्मावत’ जैसे प्रेम खंडकाव्य की रचना करने वाले सूफ़ीधारा के कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने भी अपने नागमति वियोग खंड के ‘बारहमासा’ में इस वसंत ऋतु का वर्णन करते हुए कहा है-

चैत वसंता होइ धमारी। मांहि लेखे संसार उजारी॥
पंचम विरह पंच सर मारे। रकत रोइ सगरौं बन ढारै॥
बौरे आम फरै अब लागैं। अबहूँ आउ घर, कंत सभागे॥
सहस भाव फूली वनस्पति। मधुकर घूमहूँ संवरि मालती॥
मो कहं फूल भये सब कांटे। दिष्टि परस जस लागहि चांटे॥
फिर जोबन भए नारंग साखा। सुआ विरह अब जाइ न राखा॥

जहाँ वसंत सबके जीवन में नई उल्लास लाने का कार्य करता है वहीं रानी नागमति के वियोग को बढ़ाकर प्रकृति के इस मनोहर दृश्य को जिसमें आम के बौर, टेसू फूल आदि को रानी द्वारा कांटा बताकर नकारा जा रहा है।

इस संदर्भ में गोस्वामी तुलसीदास ने नारद मोह प्रसंग में इस ऋतु का वर्णन करते हुए कहा है-

तेहि आस्रमहिं मदन जब गयऊ। निज माया वसंत निरमऊ।
कुसुमित विविध विटप बहुरंगा। कुजहिं कोकिल गुंजहिं भ्रंगा॥

तुलसीदास ने विभिन्न पुष्पों, कोयल और भौंरे के माध्यम से आश्रम का बड़ा ही सुंदर, मनोहर दृश्य प्रस्तुत किया है। रीतिकाल के कवियों ने भी वसंत को अपनी दृष्टि से वर्णन करने का प्रयास किया है। इस संबंध में सेनापति जी ने ऋतुओं का बड़ा ही सजीव वर्णन करते हुए वसंत के बारे में कहा है-

बरन-बरन तरु फूले उपवन वन
सोई चतुरंग संगदल लहियतु है।
बंदी जिम बोलत विरद वीर कोकिल हैं
गुंजत मधुप गान-गुन महियतु है॥
आवे-आस-पास पहुपन की सुवास सोई
सोने के सुगंध माझ सेन रहियतु है।
सोभा को समाज सेनापति सुख साज आजु
आवत वसंत रितुराज कहियतु है।

उपर्युक्त पंक्ति के माध्यम से ऋतुराज वसंत के आगमन पर चारों ओर सुंदर पुष्प का खिल जाना, भौंरे का गान, कोयल को बोलने से इसका आगमन होता है जो सभी प्राणी के लिए सुख और स्वास्थ्यवर्द्धक होता है। रीतिकाल के प्रमुख कवि बिहारी ने वसंत को जीवन आशा की उम्मीद से इसका वर्णन करते हुए कहा है-

इही आस अटक्यौ रहत अलि गुलाब के मूल
है है फिर वसंत ऋतु इन डारन में फूल

इसी वसंत का रीतिमुक्त काव्य के प्रमुख कवि घनानंद ने बड़े ही सुन्दर ढंग से लिखा है-

घुमड़ि पराग लता तस भोये, मधुरित सौरभ सौज संभोये।
बन वसंत बरनत मन फूल्यौ। लता-लता झूलनि संग झल्यौ।

आलम ने अपनी रचना ‘आलम केलि’ में विरह वर्णन शीर्षक में इस ऋतु का वर्णन करते हुए कहा है-

जार्यो मनोज सिव तीजै नैन ज्वाला कारि
बहे जोर जुट आया तेहि ज्वाला जरी है
विरह अपार ताकी पीर को न पार पायी
पीय पर ‘आलम’ वसंत यह बैरी भयो,
बिस से बयारि लागै ते ही बिस भरी है।
कीर की कलह कलमल्यो मनु कोकिल हूँ
कुहकि कुहकि कान कलकान करी है।

प्रस्तुत पंक्ति के माध्यम से आलम मानो यह बता देना चाहते हैं कि जो ऋतु इतना अच्छा होता है वह विरह की मनोदशा में शत्रु हो जाता है। कोयल की आवाज़ भी अच्छी नहीं लगती अर्थात् सबकी अलग-अलग मनोदशा में वसंत ऋतु निर्भर करता है। वसंत का बड़ा सुंदर वर्णन करते हुए पद्माकर ने कहा है-

कूलन में कोलि में कछारन में कुंजन में
क्यारिन में कलित कलीन किलकंत है
कहैं पद्माकर परागन में पौनहू में
पातन में पिक में पलासन पंगत है।

पद्माकर ने चारों ओर पशु-पक्षी, कोयल, पलाश, ब्रज के रास्तों, गलियों, बागों और पुष्पों के माध्यम से प्रकृति का मनोहारी अद्भुत वर्णन प्रस्तुत किया है।

छायावादी के प्रवर्तक हिन्दी के प्रमुख गद्य-पद्य रचनाकार जयशंकर प्रसाद ने ‘वसंत’ नामक शीर्षक से कविता करते हुए लिखा है-

तू आता है, फिर जाता है/जीवन में पुलकित प्रणय सदृश/यौवन की पहली कांति अकृश/जैसी हो, वह तू पाता है, हे वसंत! तू क्यों आता है?

कल्पना ने छायावादी कवियों को प्रकृति के मानवीकरण में बहुत सहायता की है। वासंती-सुषमा से भरी हुई धरा युवती के रूप में खिली हुई दिखाई देती है। वसंत में धरा का अंग-अंग सौंदर्य से पूरित रहने के कारण उसकी प्रसन्नता छलकी पड़ती है। धरा का यह सौंदर्य स्वर्ग की सुषमा से टक्कर लेने को आतुर है। वास्तव में स्वर्ग कहीं और नहीं वरण वासंती-सुषमा में इसी पृथ्वी पर है-

युवती धरा यह था वसंत-काल,
हरे भरे स्तनों पर पड़ी कलियों की माल,
सौरभ से दिक्कुमारियों का मन सींच कर
बहता है पवन प्रसन्न तन खींच कर।
पृथ्वी स्वर्ग से ज्यों कर रही होड़ निष्काम
………… ………… ………..
वही हवा नर्गिस की, मंद छा गई सुगंध,
धन्य, स्वर्ग यही कह किए मैंने दृग बंद।

उपर्युक्त पंक्तियों के माध्यम से प्रसाद जीवन को वसंत से जोड़ते हुए प्रथम यौवन अर्थात् उत्साहित करने वाले आनंद को वसंत के माध्यम से विंब रूप में इसका बड़ा ही मनोहर वर्णन किया है। प्रकृति और वसंत को लेकर प्रकृति का सुन्दर चित्रण करते हुए कहा है-

चंचल पगदीप-सिखा के घर गृह, मग, वन में आया वसंत।
सुलगा फाल्गुन का सूनापन, सौंदर्य शिखाओं में अन्नत।
सौरभ की शीतल ज्वाला से फैल उर-उर में मधुर दाह।
आया वसंत भर पृथ्वी पर, स्वर्गिक सुंदरता का प्रवाह।

विद्यापति ने जहाँ मनोहारी वसंत के माध्यम से जीवन के कुछ सुखद क्षण को बताया वहीं दूसरी तरफ फूल के आगमन के साथ वृक्षों में नव किसलय सुगंधित वायु से वसंत का आगमन बताया है। निर्गुण भक्तिधारा के कवि कबीरदास ने अपनी ‘साखी’ के माध्यम से इसका वर्णन करते हुए कहा है-

रितु वसंत जाचक भया, हरखि दिया द्रुम पात
तोत नव पल्लव भया, दिया दूर नहिं जात॥

वसंत ऋतु के आ जाने से जहाँ पतझड़ का समापन होता है और ठंडी हल्की हवा में पुष्प की सुगंध चारों दिशाओं में फैल जाती है मानो पृथ्वी पर स्वर्ग वसंत के माध्यम से आ गया है। सुमित्रानंदन पंत ने कोयल के माध्यम से वसंत के आगमन की सूचना का वर्णन करते हुए मानो मनुष्य से श्रेष्ठ पशु-पक्षी को बताते हैं जो कि महक से जान जाते हैं-

काली कोकिल! सुलगा उर में स्वरमायी वेदना का अंगार,
आया वसंत घोषित दिगन्त कहती, भर पावक की पुकार।

इसी प्रकार से महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने ‘ध्वनि’ शीर्षक नामक कविता में इसका वर्णन करते हुए लिखा है-

अभी अभी ही तो आया है
मेरे जीवन में मृदुल वसंत
अभी न होगा मेरा अंत।

उपर्युक्त पंक्ति के माध्यम से निराला ने वसंत ऋतु से अपने जीवन की सुखद शुरूआत करते हुए अपने लेखन और आयु को दीर्घ बताने का प्रयास किया है। स्वतंत्रता संग्राम में लेखनी के माध्यम से देश में अलख जगाने वाली सुभद्राकुमारी चौहान ने एक नए वसंत की ओर ले जाने का कार्य करते हुई देश के वीरों को संबोधित किया है-

आ रही हिमालय से पुकार, है उदधि गरजता बार-बार
प्राची, पश्चिम भू-नभ अपार, सब पूछ रहे दिग्-दिगंत
बीरों का कैसा हो वसंत?

शिवमंगलसिंह ‘सुमन’ देश की पराधीनता और नवयुवकों के बलिदान और स्त्रियों के द्वारा वसंत की कल्पना इस प्रकार करते हैं-

जब सजी वसंती बाने में/इधर नवयुवकों गाती होंगी।
कातिल की तोपें उधर/इधर नवयुवकों की छाती होंगी
तब समझूँगा आया वसंत!

माखनलाल चतुर्वेदी ने ‘आ गए ऋतुराज’ कविता शीर्षक के माध्यम से वसंत आगमन से संसार के सभी प्राणियों नई स्फूर्ति और प्रसन्नता का सूचक बताते हुए इसका बहुत ही मनोहारी प्राकृतिक दृश्य प्रस्तुत करते हुए कहा है- आ गए ऋतुराज/रागिनी पर, नृत्य पर, ‘झूम’ गा उठे ऋतुराज/भ्रमर में मधु में, परन बरसा गए ऋतुराज/आ गए ऋतुराज।

रामकुमार वर्मा ने ‘पतझड़’ कविता शीर्षक के माध्यम से वसंत का वर्णन करते हुए सुख, दुःख के क्रमशः आने-जाने और जीवन जीने की अदम्य जीजिविषा के प्रति ध्यानाकर्षण करते हुए कहा है-

मेरे मन मे यह उठा भाव, यदि आज सुखों का हुआ अंत
तो यह पतझड़, भी कभी अंत-पाएगा आएगा वसंत।

‘क्या कहकर पुकारूँ’ संग्रह में सर्वेश्वरदयाल सक्सेना ने वसंत को विरह रूपी दंश मानते हुए इसका वर्णन करते हुए कहा है-

फिर वसंत ने मुझे डसा,
फूल भरी डार जिसको था पकड़, खड़ा इतराता।
झूल गिरी मुझ पर अजगर सी,
ठंडी एक लपेट ने
मुझे आज फिर कसा,
फिर वसंत ने मुझे डसा।

जनवादी कवि नागार्जुन ने ‘बादल को घिरते देखा’ कविता में वसंत ऋतु का मनोहरी वर्णन करते हुए कहा है- ऋतु वसंत का सुप्रभात था/मंद-मंद था अनिल बह रहा/बाल‍अरुण की मृदु किरणें थीं/अलग-बगल स्वर्णाभ शिखर थे/एक-दूसरे से विरहित हो/अलग-अलग रहकर ही जिनको/सारी रात बितानी होती।

प्रस्तुत पंक्ति के माध्यम से वसंत के सुन्दर प्रभात के साथ सुखद हवा बहते हुए पृथ्वी पर स्वर्णिम किरणों को उतरते हुए का वर्णन किया गया है जो जीवन जीने की एक नई शुरूआत की ओर संकेत करते हैं। परंपरा और आधुनिकता का स्वर-सेतु बाँधने वाले प्रगतिशील लेखक वासुदेवसिंह ‘त्रिलोचन’ ने वसंत का वर्णन करते हुए प्रकृति के सारे दृश्य जो इस ऋतु की सुन्दरता बढ़ाते हैं उसके प्रति प्रेम, उत्साह, उमंग का दर्शन कराते हुए कहा है-

कोकिल ने गाना गा के कहा – आ गया वसंत।
आमों ने बौर ला के कहा – आ गया वसंत।
क्यों मुझको छेड़ती है हवा, बोल बार-बार
उसने ज़रा बल खाके कहा – आ गया वसंत।
तौताल की लहर में बोल ढोल के उठे
गाँवों में फाग गाके कहा – आ गया वसंत।

प्रकृति के माध्यम से इसका मानव-मन के भावों को विश्वास के साथ सुखकर बताते हुए कहा है-

ले के उपहार चैत घर-घर में/बात बिगड़ी बना रहा है फिर।
फूल ऋतुराज को मिले, मन भी/नए विश्वास पा रहा है फिर।

नईम ने ‘लिखना तो चाहा था’ में वसंत के माध्यम से देश की दशा की ओर संकेत करते हुए कहा है-

लिखना तो चाही गंध पवन, बासंती शाम
लेकिन लिख बैठा में द्रोह दलन जन के पथ बाम।

उपर्युक्त पंक्ति में समाज की एक झलक आज के कवि को लिखने के लिए विवश कर जाती है। यह उस वसंत के मस्त मौसम से दूर जा आज के इस परिवेश पर आधारित हो जाता है। उस वसंत की मोहक गंध को भूल जाता है। इसी प्रकार समकालीन कवि केदाननाथ अग्रवाल ने ‘वसंती हवा’ शीर्षक कविता के माध्यम से पुराने वसंत के मौसम को आज के इस प्राकृतिक वातावरण में उसी तरह महसूस करते हुए कहा है-

हवा हूँ हवा, मैं वसंती हवा हूँ।
वहीं हां, वही जो युगों से गगन को
बिना कष्ट श्रम के सम्हाले हुए हूँ
हवा हूँ, हवा, मैं वसंती हवा हूँ।
वहीं हाँ, वही जो धरा का वसंती,
सुसंगीत मीठा गुँजाती फिरी हूँ
हवा हूँ, हवा, मैं वसंती हवा हूँ।

अशोक वाजपेयी ने ‘युवा जंगल’ शीर्षक कविता को युवा तथा जंगल के युवापन का यह एहसास कुछ इस प्रकार कराया है-

ओ जंगल युवा/बुलाते हो/आता हूँ
एक हरे वसंत में डूबा हुआ/आता हूँ।

समकालीन कविता और नवगीतकार वसंत का वर्णन किसी न किसी रूप में करते हुए दिखाई पड़ते हैं। उत्तिमा केशरी ने ‘जीने की चाहत’ शीर्षक में वसंत को जीवन में नया उल्लास लाने वाला मानते हुए कहा है-

अपनी चेतना में, जीवन से भरपूर
नई ऊर्जा लिए मेरे, जीवन वसंत को
उल्लास से प्रदीप्त कर गया।

समकालीन गीतकार राधेश्याम बंधु ने शीर्षक ‘जब वसंत भी’ में कहा है-

जब वसंत भी गंध न दे तो,
किससे मन की बात कहें।

उपर्युक्त पंक्तियों के माध्यम से कवि यह बता देना चाहता है कि अब वह वसंत नहीं रह गया जब लोग उत्साहित होते थे। आज के इस शहरी ज़िन्दगी में इसका अभाव हो गया है। वह प्राकृतिक पर्यावरण नहीं रह गया, वनों का विनाश होता जा रहा है। परिणामस्वरूप सुगंधित सौरभ का अभाव हो गया है। कवि अपनी इस व्यथा को, प्रकृति के उस सुंदर वातावरण को रेखांकित करने का प्रयास कर रहा है।

समकालीन नवगीतकार राजेश रावल ‘सुशील’ ने ‘यादों के जंगल’ शीर्षक गीत के माध्यम से वृक्षों की कटाई और पर्यावरण की चिंता को व्यक्त करते हुए वसंत व्यथा को प्रस्तुत किया है-

सुर्ख, गुलाबी, सेमल, पुष्पों सी मुस्कान हठीली
छुई-मुई सी पलकें, वो आँखें, शर्मीली-शर्मीली
वो कोयल सा कंठ, आम सी बातें मधुर रसीली
चंदन-सा शीतल तन, आभा अमलतास की पीली
वो पलास सा यौवन, बेला वासंती मंगल
यादों के जंगल, रह-रहकर आते नयनों में, भूले-बिसरे पल।

जयकृष्ण राज तुषार ने ‘बासंती पन्नों पर’ गीत के माध्यम से इसका वर्णन करते हुए कहा है-

जीवन के बासंती पन्नों पर, एक क़लम चुपके से डोलेगी
जो कुछ भी अनकहा रहा अबतक, मन की उन परतों को खोलेगी।

इस पंक्ति के माध्यम से लेखक एक नई दिशा में लिखने की बात कर रहा है। तुषार ने ध्यानाकर्षण कराते हुए ‘मोबाइल गेमों में’ नाम शीर्षक मे कहा है-

बासंती बहार कहाँ, चंदा की रातें, खत्म हुई लोककथा, परियों की बातें।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि भारत प्राकृतिक सुषमा का देश है। यहाँ की ऋतु का अपना एक अलग ही अंदाज़ है जिसमें नागाधिराज हिमालय से लेकर चींटी, पशु-पक्षी, जीव-जन्तु, पेड़-पौधे, पुष्पलता आदि सभी मिलकर इसकी शोभा को अलग-अलग किन्तु अनेकता में एकता का दर्शन करते हैं। वसंत का यह ऋतु कवि विद्ववजन से लेकर ग्रामीणों लोगों तक को हर्षित करता रहा है। आज वृक्षों के कटाव और शहरी जीवन की जीने की होड़ में पर्यावरण को प्रभावित किया है। फिर भी आज के कवि इस वसंत से नहीं बच सके हैं। प्रकृति क पुकार दृश्य को बचाने और संवारनें की आवश्यकता है। प्रकृति पर सदैव विजय पाने की इच्छा निश्चय ही घातक सिद्ध हो सकती है। हम सबको प्रकृति के प्रति, जीव-जगत के प्रति सचेष्ट होना होगा।

साभार- http://m.sahityakunj.net/ से

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