Sunday, November 17, 2024
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रेल्वे के इतिहास का सुनहरा पन्ना अब इतिहास में सिमट रहा है

सड़क परिवहन के विकास ने लाइट रेलवे को खत्म कर दिया। केवल हेरिटेज रेलवे के रूप में ही बची रही। देश में लाइट रेलवे के उद्भव, विकास और अंत सहित उसके इतिहास पर समग्र दृष्टि डाल रहे हैं विवेक देवराय

बीस फरवरी 1973 को तत्कालीन रेल मंत्री ललित नारायण मिश्रा ने वर्ष 1973-74 का रेल बजट पेश किया था। उनके भाषण में लाइट रेलवे के लिए अलग से एक पूरा हिस्सा रखा था। लाइट रेलवे का तात्पर्य है कम लागत और कम मानक वाली रेल व्यवस्था। लाइट रेलवे की परिसंपत्तियां पूरी तरह घिसी हुई और जीर्णशीर्ण अवस्था में होती हैं और उनमें बाद के उपयोग के लिए कुछ खास बाकी नहीं होता। शाहदरा-सहारनपुर लाइट रेलवे की बात करें तो जिस कंपनी ने उसकी बची हुई परिसंपत्तियां खरीदी हैं, उसे पहले ही टै्रक का बहुत बड़ा हिस्सा निकालकर बाहर करना पड़ा है। अगर लाइट रेलवे में नई जान फूंकनी है और उनके परिचालन को जारी रखना है तो अभी अथवा आगे चलकर बड़ी भारी लागत के साथ इन परिसंपत्तियों को तब्दील करना ही होगा। बदलाव के दौरान इनके लिए आवश्यक कलपुर्जे और छोटी लाइन के रोलिंग स्टॉक जुटा पाना अवश्य मुश्किल भरा हो सकता है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए तथा भविष्य की परिवहन संबंधी आवश्यकताओं को मद्देनजर रखते हुए रेल मंत्रालय हावड़ा-आम्टा और हावड़ा-शियाखल्ला लाइट रेलवे मार्ग पर ब्रॉड गेज रेल लाइन की व्यवहार्यता के बारे में विचार कर रहा है।

आइए जरा लाइट रेलवे को ठीक से समझ लेते हैं। इसे लेकर हल्की रेल तीव्र परिवहन सुविधा का भ्रम करना ठीक नहीं। देश में रेलवे के विकास के इतिहास पर नजर डालें तो हमें सन 1896 के ब्रिटिश लाइट रेलवेज ऐक्ट तक जाना होगा। दुख की बात है कि इसमें भी लाइट रेलवे की कोई विशिष्ट परिभाषा नहीं नजर आती है। इसके बजाय मैं सन 1896 में प्रकाशित एक किताब का जिक्र करना चाहूंगा जिसे जॉन चार्ल्स मैके ने लिखा। इस पुस्तक का शीर्षक बहुत लंबा है ‘लाइट रेलवेज फॉर द यूनाइटेड किंगडम, इंडिया ऐंड द कॉलोनीज। अ प्रैक्टिकल हैंडबुक सेटिंग फोर्थ द प्रिंसिपल्स ऑन व्हिच लाइट रेलवेज शुड बी कन्स्ट्रक्टेड, वक्र्ड ऐंड फाइनैंस्ड ऐंड डिटेलिंग द कॉस्ट ऑफ कंस्ट्रशन इक्विपमेंट, रेवेन्यू, ऐंड वर्किंग एक्सपेंसेस ऑफ लोकल रेलवे ऑलरेडी इस्टैब्लिश्ड इन द अबव मेंशन्ड कंट्रीज, ऐंड इन बेल्जियम, फ्रांस, स्विटजरलैंड इटसेट्रा।’

पुस्तक की शुरुआत इस कथन के साथ होती है, ‘लाइट रेलवेज के बारे में बात करते वक्त कई लोग इस नतीजे पर पहुंच जाते हैं कि लाइट रेलवे का अर्थ होता है छोटी लाइन की रेलवे।’ यह सच है कि लाइट रेलवे का निर्माण कम लागत से होता है जिसमें हल्की पटरियां, हल्के सामान इस्तेमाल होते हैं, यात्रियों को आराम भी सामान्य रेल की तरह नहीं मिलता और ये ट्रेन बहुत धीमी गति से चलती हैं। छोटी लाइन और लाइट रेल में काफी समानता है लेकिन दोनों एक नहीं हैं। सड़क परिवहन के विकास ने लाइट रेलवे को खत्म कर दिया। वह केवल हेरिटेज रेलवे के रूप में ही बची रही।

एक समय देश में मार्टिंस लाइट रेलवेज (एमएलआर) नामक एक कंपनी थी जिसे लोग मैसर्स मार्टिन ऐंड कंपनी भी कहते थे। इसका कार्यालय कोलकाता में था। एमएलआर एक प्रबंधन कंपनी थी। इसने सन 1897-98 में हावड़ा-शियाखल्ला लाइट रेलवे मार्ग का निर्माण शुरू किया। यह लाइन सन 1971 तक चली। हावड़ा-आम्टा मार्ग को भारतीय रेल ने 1962 में ब्रॉड गेज में तब्दील कर दिया जबकि शांतिपुर-कृषनगर -नवद्वीप लाइट रेलवे को सन 1904 में पूर्वी बंगाल रेलवे में शामिल कर लिया गया। राणाघाट-कृषनगर लाइट रेलवे 1899 में बनी और उसे 1904 में पूर्वी रेलवे में शामिल कर लिया गया। बख्तियारपुर-बिहार लाइट रेलवे 1902 में बनी और 1962 में उसका राष्ट्रीयकरण हो गया। बारासात-बशीरघाट लाइट रेलवे सन 1905 में बनी और सन 1952 में राष्ट्रीयकृत कर दी गई। शाहदरा-सहारनपुर लाइट रेलवे 1907 में शुरू हुई और सन 1970 में बंद। बाद में भारतीय रेल ने इसका अधिग्रहण कर लिया। आरा-सासाराम लाइट रेलवे की शुरुआत 1911 में हुई थी। सन 1978 में इसके बंद होने के बाद लाइट रेलवे ने इसका भी अधिग्रहण कर लिया। वहीं फतवा-इस्लामपुर लाइट रेलवे को सन 1986 में राष्ट्रीयकृत कर दिया गया। इनमें से बख्तियारपुर-बिहार लाइटर रेलवे थोड़ा अलग है। सन 1950 में भारतीय रेल द्वारा अधिग्रहीत किए जाने से पहले जिला बोर्ड ने इसका अधिग्रहण किया था। सभी एमएलआर लाइनें छोटी लाइन थीं। इनमें से अधिकंाश ढाई फुट चौड़ाई वाली जबकि अन्य दो फुट की थीं। एमएलआर लाइनों में नाम के अलावा हेरिटेज कहे जाने लायक कुछ भी नहीं है। सड़क परिवहन से मिल रही तगड़ी प्रतिस्पर्धा के मद्देनजर इनको बंद किया जाना ही श्रेयस्कर है। अगर मैं भूल नहीं रहा तो एमएलआर का संबंध राजेंद्र नाथ मुखर्जी के नाम से भी है।

लेकिन क्या फैसले यू सिद्घांतों पर आधारित होते हैं? मैं के हनुमंतैया के सन 1971-72 के अंतरिम रेल बजट भाषण का उल्लेख करूं तो, ‘वर्ष 1970-71 के दौरान तीन लाइट रेलवे कंपनियों ने करीब 246 किलोमीटर पर अपना परिचालन बंद किया। ये कंपनियां मैसर्स मार्टिन बर्न लिमिटेड, कोलकाता द्वारा संचालित थीं।’ ये लाइन थीं उत्तर प्रदेश की शाहदरा- सहारनपुर लाइट रेलवे (148.9 किमी) जिसका संचालन 1 सितंबर 1970 से बंद किया गया, पश्चिम बंगाल में हावड़ा-आम्टा (70.3 किमी) और उसी राज्य में हावड़ा-शियाखल्ला रेल लाइन (27.1 किमी) का परिचालन एक जनवरी 1971 से बंद है। प्रबंधन ने घोषणा की कि साल दर साल घाटा होने के कारण कंपनियों को तालाबंदी पर मजबूर होना पड़ा। इस दौरान इन इलाकों में सड़क परिवहन की ओर से जबरदस्त प्रतिस्पर्धा मिल रही थी। इन रेलमार्ग के रोलिंग स्टॉक, पटरियां और अन्य परिसंपत्तियों का भी उचित रखरखाव नहीं हो पा रहा था। उनकी हालत बहुत बुरी थी और उनके रखरखाव के लिए उचित काफी खर्च की आवश्यकता थी। यात्री सुविधाओं का स्तर भी भारतीय रेल की तुलना में काफी कमजोर था। लाइट रेलवे का राष्ट्रीयकरण या रेल विभाग द्वारा उसका प्रबंधन संभालने पर भी विचार किया गया लेकिन सतर्कतापूर्वक जांच परख से पता चला कि ऐसा करना जनहित में नहीं होगा।

हमें न केवल उपकरणों को बदलने और सुधारने में भारी मात्रा में धन खर्च करना होगा बल्कि इसकी परिचालन लागत भी बहुत अधिक होगी क्योंकि हमें उसे सरकारी मानकों के अनुरूप बनाना होगा। लाइट रेलवे से बेरोजगार होने वाले तकरीबन 3,000 कर्मचारियों को बचाने के लिए केंद्र सरकार ने उनको भारतीय रेल की उपयुक्त श्रेणियों में शामिल करने का निर्णय लिया। लेकिन हकीकत में ऐसा हो नहीं सका। शाहदरा-सहारनपुर लाइट रेलवे को सन 1970 के दशक में स्वैच्छिक रूप से समाप्त कर दिया गया। अगर बागपत संसदीय क्षेत्र सन 1970 में इतना अहम नहीं होता तो शायद ही उस वक्त इस लाइन को बड़ी लाइन में बदलने का काम शुरू होता। यह कोई वाणिज्यिक निर्णय नहीं था।

(लेखक नीति आयोग के सदस्य हैं। लेख में प्रस्तुत विचार निजी हैं।)

साभार-http://hindi.business-standard.com से

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