इरफ़ान नहीं रहे, यक़ीन नहीं होता. शायद आप को भी नहीं हो रहा होगा. हालांकि दो साल से ऊपर हो गया वो बीमारी से जूझ रहे थे लेकिन मुझे पता था कि ये आदमी कितना जुझारू है और इसीलिए ये भी लगा था कि वो इस बीमारी से भी लड़कर क़ामयाब और स्वस्थ लौटेंगे….और हुआ भी ऐसा ही लेकिन बीमारी भी बड़ी जिद्दी थी, नामाकूल.
इरफ़ान से पहली मुलाक़ात 2003 में नई दिल्ली में अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में हुई थी. मैं वहां एक सत्र में बतौर वक्ता बुलाया गया था और इरफान अपनी फिल्म ‘बोक्षु, दि मिथ’ के निर्देशक श्यामा प्रसाद के साथ वहां फिल्म पर बात करने के लिए आये थे. मैं उन्हीं दिनों लंदन में बीबीसी छोड़कर भारत आया था और स्टार न्यूज़ में काम कर रहा था. उन दिनों लंदन में इरफान काफी चर्चा में थे फिल्म वॉरियर के हवाले से. तो मैं उनसे मिलने को काफी इच्छुक था. तभी हमारे वरिष्ठ साथी अजय ब्रह्मात्मज ने बताया कि वे इरफान से एक इंटरव्यू करने जा रहे हैं, उन्होंने मुझसे बस यूं ही पूछ लिया– चलेंगे?
बस मैंने मौका लपक लिया. अजय जी के इंटरव्यू के बाद मुझे इरफान फिर मिल गये, उन्हें शायद उसी दिन वापस जाना था और उससे पहले किसी और से भी मिलना था पर वह शख्स मिल नहीं रहा था सो हम लोग एक जगह खड़े-खड़े काफी देर बात करते रहे. हमने नंबर लिये और दिये, अपने घर परिवार के बारे में बातें की, उन्होंने मुझे मुंबई में जमने के कई टिप्स दिये और इस बीच हम तीन चार सिगरेट फूंक गये.
फिर उनसे दो तीन साल ढंग से मुलाकात नहीं हुई, यूं एकाध बार लोखंडवाला या फिल्म सिटी के आसपास हम टकराये ज़रूर पर बस दुआ सलाम हुई. तीन साल बाद, शायद 2006 में हम फिर मिले. उन दिनों डायरेक्टर सुशेन भटनागर अपनी फिल्म मोनिका के बाद अगली फिल्म के लिए मेरी एक स्क्रिप्ट पर काम कर रहे थे और उसके लिए इरफान को लेना चाहते थे.
तो जब हम इरफान से मिलने निकले तब पता चला कि हमारे घर तो बिल्कुल आमने सामने थे, मेरे घर से उनके घर जाने के लिए महज़ सड़क पार करना था. मुझे ताज्जुब भी हुआ और शर्म भी आयी कि जब इरफान को पता चलेगा कि मैं सामने ही रहता हूं तो क्या सोचेगें क्योंकि दिल्ली में मुलाकात और फिर मुख्तसर सी दुआ सलामों में हमने अक्सर वायदे किये थे कि एक दिन इत्मीनान से बैठते हैं.
खैर तो जब मैं और सुशेन दोपहर क़रीब बारह बजे उनके घर पहुंचे तो दरवाज़ा उनके भाई ने खोला और इससे पहले कि वो कुछ पूछते और हम कुछ बताते, ट्रैक पैंट के ऊपर टीशर्ट डालते हुए इरफ़ान ही दरवाजे पर आ गए. भाई को उन्होने कुछ इशारा किया, सुशेन से हाथ मिलाया और फिर मेरी तरफ देखकर ठठा पड़े– आज बैठेंगे इत्मीनान से… कहां यार, गायब हो जाते हैं आप… तब सुशेन ने बताया कि अरुण तो यहीं रहते हैं सामने भूमि क्लासिक में…बस.
इरफान की आंखों में शिकायत, शरारत और फिर माफी एक के बाद एक खटखटा आये. वही तो इरफान की खासियत रही है, आंखें. असल में इरफान की आंखें उनकी एक्टिंग का सबसे मजबूत पक्ष रही है. एक बार ओमपुरी साहब ने कहा था- एक बार उसका चेहरा और आंखें सामने हों तो उसके हाथ पांव बांध दो, मुंह पर टेप लगा दो फिर भी वो जो कर देगा ना, वो आज के लड़कों में कोई माई का लाल (यहां उनके चंद शब्द बदल दिये गये हैं) नहीं कर सकता. ओमपुरी जैसे महान कलाकार यूं ही किसी की तारीफ नहीं करते.
तो उस दिन हम इरफान के घर गये तो डेढ़ घंटे के लिए थे पर हमारी बैठक जमी करीब साढ़े तीन घंटे तक. जिसमें से स्क्रिप्ट को मिले होंगे शायद एक घंटे. इरफान अपनी खिड़की पर चिड़ियों का खेल दिखाते रहे उनकी हरकतें बताते रहे, बिल्डिंग के लोगों के किस्से सनते सुनाते रहे… फिर बातों-बातों में बात ‘हासिल’ की आ गयी. तिग्मांशु धूलिया की ‘हासिल’ से इरफान और जिमी शेरगिल ही नहीं तिग्मांशु धूलिया को भी एक अलग और मज़बूत पहचान मिल गयी थी. हम हासिल की बात कर ही रहे थे कि इरफान ने अचानक हमें रोक दिया- रुको रुको रुको.. देखो प्रॉमिस करो कि ‘चरस’ की बात नहीं करोगे तब हम आगे हासिल की बात करेंगे, वरना नहीं. असल में हासिल के बाद इरफ़ान ने तिग्मांशु के साथ यशराज की फिल्म चरस की थी. फिल्म उतनी बुरी नहीं थी जितनी बुरी तरह वह पिट गयी थी. और उन दिनों तमाम लोग इरफान को नसीहतें दे रहे थे. हालांकि हमने उस का ज़िक्र भी नहीं किया था पर ये इरफान की बेबाकी, साफगोई और ईमानदारी ही थी कि खुद ही अपनी एक ताज़ा फ्लॉप का ज़िक्र ले आये, और ये भी कहा– भइया पैसा तो मिल गया मस्त पर गड़बड़ हो गयी कहीं, वरना…
तीसरा किस्सा जो मुझे और अच्छे से याद है वह 2016 का. ‘मदारी’ रिलीज़ होने वाली थी, मैंने मिलने की इच्छा जतायी, एसएमएस आ गया नौ तारीख के बाद कभी भी. मैने मदारी फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखने की सोची और रात में ही टिकट ऑनलाइन बुक करा लिये. सुबह थियेटर में बैठते ही ट्वीट किया– मदारी फिल्म का पहला शो देख रहा हूं. फिल्म खत्म हुई ही थी कि एसएमएस आया थैंक यू, कैसी लगी? हम कोई गहरे दोस्त नहीं थे हालांकि होते तो मुझे बेइंतिहा खुशी होती पर मैं उनको अच्छे से जानता हूं, मेरे लिये वही खुशी की बात थी, मैंने तड़ से फोन कर दिया, झट से फोन उठा लिया इरफान ने.
एक मिनट की बात गर्मजोशी भरी, दोस्ताना अंदाज़ – ‘बज गया डमरू… वो देखा वो वाला सीन.. नौ तारीख के बाद मिलते हैं, इस बार मढ़ पर, फुर्सत से आना’ तय हुआ. तब तक इरफान मेरा पड़ोस छोड़कर मढ़ आइलैंड शिफ्ट हो चुके थे. पर उसके बाद मेरा दिल्ली आने जाने का सिलसिला बढ़ गया और इरफान भी पहले से ज्यादा बिज़ी हो गये थे. हिंदी फिल्म इंडस्ट्री ने भी आखिर उनको पहचान और मान दोनों दे जो दिया था. फिर वे बीमार पड़ गये और हम नहीं मिल पाये फुरसत से, इत्मीनान से. अब मिल भी नहीं पायेंगे कभी.
ईश्वर करे अब उनको इत्मीनान मिले.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं. अमर उजाला, बीबीसी और स्टार न्यूज़ में काफी समय काम करने के बाद अब वॉयस ऑफ अमेरिका और कनाडा ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन जैसे अंतरराष्ट्रीय मीडिया नेटवर्कों के लिए अक्सर काम करते हैं. वो इरफान खान से हुई उनकी मुलाकात को याद कर रहे हैं)
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