प्रकृति जब शीतकाल के अवसान के पश्चात् नवल स्वरुप धारण करती है, तब मनुष्य धरती पर विद्या और संगीत की अधिष्ठात्री देवी मां सरस्वती का आह्वान एवं पूजन करते हैं, जो उनमें नव रस एवं नव स्फूर्ति का संचार करती है.
यह वह आनंदमय समय होता है, जब खेतों में पीली-पीली सरसों खिल उठती है, गेहूं और जौ के पौधों में बालियां प्रकट होने लगती हैं, आम्र मंजरियां आम के पेड़ों पर विकसित होने लगती हैं, पुष्पों पर रंग-बिरंगी तितलियां मंडराने लगती हैं, भ्रमर गुंजार करने लगते हैं, ऐसे में आता है ‘वसंत पंचमी’ का पावन पर्व. इसे ऋषि पर्व भी कहते हैं.
माता सरस्वती जिन्हें मां वाणी, मां शारदा, वाग्देवी, हंसवाहिनी, वीणापाणि, वागीश्वरी, भारती और भगवती इत्यादि अनेक नामों से भी जाना जाता है, उनका माघ माह के शुक्ल पक्ष में पंचमी के दिन प्रायः सभी आस्थावान कवि, लेखक, गायक, वादक, संगीतज्ञ, नर्तक, कलाकार और नाट्यविधा इत्यादि से जुड़े हुए लोग पूजन एवं वंदन करते हैं.
वसंत पंचमी के दिन श्रद्धालु जन प्रातः उठकर बेसन और तेल का उबटन शरीर पर लगाकर स्नान करते हैं. इसके बाद पीले वस्त्र धारण कर मां शारदा की पूजा और उनका ध्यान करते हैं. केशरयुक्त मीठे चावल का भोग लगाकर, प्रसाद ग्रहण करते हैं. सरस्वती मां के पूजन का वास्तविक अर्थ तभी है, जब हम अपने मन से ईर्ष्या-द्वेष, छल-कपट, ऊंच-नीच और भेदभाव जैसे तुच्छ विकारों को विसर्जित कर शुद्ध एवं सकारात्मक सोच को अपनाएं, तभी मां वीणापाणि की अबाध अहैतुकी कृपा हम पर संभव होती है.
मां सरस्वती की कृपा होने पर महामूर्ख भी महाज्ञानी बन सकते हैं. जिस डाल पर बैठे, उसी को काटने वाले जड़ बुद्धि कालिदास कैसे एक दिन महाकवि बन गए, यह एक बहुश्रुत दृष्टान्त है. सरस्वती की आराधना से ही यह संभव हुआ. उनकी कृपा के बिना साहित्य और संगीत की साधना अधूरी है.
प्राचीन ऋषि-मुनियों ने ज्ञान, संगीत और कला की देवी सरस्वती की स्तुति जिन शब्दों में की है, उनसे उनकी पवित्र छवि इस प्रकार प्रकट होती है-
” श्वेत कमल के पुष्प पर आसीन, शुभ्र हंसवाहिनी, तुषार धवल कान्ति से संयुक्त, शुभ्रवसना, स्फटिक माला धारिणी, वीणा मंडित करा, श्रुति हस्ता” ऐसी भगवती भारती की प्रसन्नता की कामना की जाती है. यह जन-आस्था है कि मां सरस्वती की कृपा मनुष्य में विद्या, कला, ज्ञान तथा प्रतिभा का प्रकाश देती है. यश उन्हीं की धवल अंग ज्योत्स्ना है. वे सत्त्वरूपा, श्रुतिरुपा, आनंदरूपा हैं. विश्व में श्री सौंदर्य की वही करक हैं. वे वस्तुतः अनादि शक्ति भगवान ब्रह्मा की सृष्टि में स्वर और संगीत की सृजनकर्त्री सहयोगिनी हैं.
आधुनिक हिन्दी साहित्य जगत में महाप्राण निराला द्वारा रचित ‘सरस्वती वंदना’ सर्वाधिक लोकप्रिय है और अक्सर सारस्वत समारोहों के प्रारंभ में गाई जाती है-
“वर दे, वीणा वादिनि वर दे।
प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव
भारत में भर दे।
काट अंध-उर के बंधन-स्तर
बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर,
कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे।
नव गति, नव लय, ताल-छंद नव
नवल कंठ, नव जलद-मंद्र रव,
नव नभ के नव विहग-वृंद को
नव पर, नव स्वर दे।”
वस्तुतः सरस्वती का ध्यान जड़ता को समाप्त कर मानव मन में चेतना का संचार करता है. सरस्वती का यह ज्ञानदायिनी मां का स्वरुप भारत में ही नहीं, विश्व के अनेक देशों में विभिन्न नामों से प्रचिलित है और वे श्रद्धापूर्वक वहां भी पूजी जाती हैं. उदाहरण के लिए हमारी ‘सरस्वती’ बर्मा में ‘थुयथदी’, थाईलैंड में ‘सुरसवदी’, जापान में ‘बेंजाइतेन’ और चीन में ‘बियानचाइत्यान’ कहा जाता है.
भारतीय वांग्मय में सरस्वती के जिस स्वरुप की परिकल्पना हुई है, उसमें देवी का एक मुस्कान युक्त मुख, चार हाथ और दो चरण हैं. वे एक हाथ में माला, दूसरे हाथ में वेद हैं, शेष दो हाथों से वे वीणावादन कर रही हैं. हंस उनका वाहन है. देवी के मुखारविंद पर स्मित मुस्कान से आतंरिक उल्हास प्रकट होता है. उनकी वीणा भाव संचार एवं कलात्मकता की प्रतीक है. स्फटिक की माला से अध्यात्म और वेद पुस्तक से ज्ञान का बोध होता है. उनका वाहन हंस है जो नीर-क्षीर विवेक संपन्न होता है और विवेक ही सतबुद्धि कारक तत्व होता है. अतः माता सरस्वती को नमन करने से चित्त में सात्विक भाव और कलात्मकता की सहज अनुभूति होती है.
वैसे तो प्राचीन शरदापीठ का मंदिर पाक अधिकृत कश्मीर में नीलम ज़िले में है, जो अब एक खंडहर के रूप में वहां भग्नावस्था में स्थित है. भारत में मां शारदा का एकमात्र मंदिर एवं सिद्धपीठ मध्य प्रदेश के सतना ज़िले में त्रिकूट पर्वत पर अपनी संपूर्ण भव्यता के साथ स्थित है, जहां पहुंचने के लिए लाखों दर्शनार्थी लगभग एक हज़ार सीढ़ियां चढ़कर दर्शनार्थ जाते हैं. अब तो वहां जाने के लिए रोप-वे की भी आधुनिक सुविधा हो गई है.
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सुधाकर अदीब
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