भगवान श्रीराम का व्यक्तित्व और कृतित्व केवल अयोध्या या लंका विजय सीमित नहीं है। उनका पूरा जीवन समाज और राष्ट्र निर्माण के लिए समर्पित रहा है। वनवास यात्रा से पहले और राज्याभिषेक के बाद भी वे पूरे भारत को एक सूत्र में बाँधने में सतत सक्रिय रहे। उन्होंने उत्तर से दक्षिण और पूरव से पश्चिम तक पूरे भारत को एक सांस्कृतिक स्वरूप प्रदान किया।
भगवान श्रीराम के वनवास काल के विवरण से हम परिचित हैं। अयोध्या से लंका तक की यात्रा भी सब जानते हैं। उन्होंने अयोध्या से चित्रकूट और चित्रकूट से लंका तक यात्रा में लगभग प्रत्येक ऋषि आश्रम और प्रत्येक समाज से संपर्क किया था। उनके बीच रहे उनकी जीवन शैली समझी और लौटते समय लगभग हर समाज प्रमुख को पुष्पक विमान में अपने साथ अयोध्या लाए थे। ये सभी उनके राज्याभिषेक आयोजन में अतिथि थे। लेकिन अपने वनवास जीवन से पहले भी उन्होंने दो बार वन यात्रा की थी।
पहली बार अध्ययन के लिए महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में गए। इस आश्रम के दो स्थान माने जाते हैं एक आज के जिला बाराबंकी के अंतर्गत और दूसरा उत्तराखंड में। तब ये दोनों क्षेत्र वन और पर्वतीय अंचल थे। दूसरा महर्षि विश्वामित्र के साथ अयोध्या से दंडकारण्य तक की यात्रा की थी। और आसुरी शक्तियों का दमन कर सांस्कृतिक चेतना का वातावरण बनाया था। प्रश्न ये उठता है कि आसुरी शक्तियां क्या थीं। आसुरी शक्तियाँ कोई और नहीं थीं। ऋषियों की संताने ही थीं लेकिन स्वेच्छाचारी थीं। सांस्कृतिक मूल्यों और मानवीय संवेदनाओं का हरण कर रहीं थीं। इनके कारण समाज और राष्ट्र दोनों में विघटन बढ़ने लगा था। इससे चिंतित महर्षि विश्वामित्र ने रामजी से सहायता मांगी और दंडकारण्य तक पूरा भारत एक सूत्र में बंधा। दंडकारण्य आज के छत्तीसगढ़ से उड़ीसा, आन्ध्र तथा महाराष्ट्र की सीमाओं तक छूता था।
वनवास काल में भगवान श्रीराम दंडकारण्य से आगे बढ़े और श्रीलंका तक गए। श्रीलंका तक जाना माता सीता की खोज मान सकते हैं लेकिन जिस प्रकार लौटते समय वे प्रत्येक स्थान पर गए, सभी समाजों से मिले और सभी समाज प्रमुखों को अपने साथ अयोध्या लेकर आए।
रावण वध विजयदशमी को हो गया था। किंतु रामजी को अयोध्या लौटने में पूरे सत्रह दिन लगे। रावण सहित उसके सभी परिजनों के अंतिम संस्कार में एक दिन, दूसरे दिन विभीषण का राज्याभिषेक हुआ और उसी दिन विभीषण सीता माता को लेकर भगवान रामजी के पास आए। यदि भेंट एवं विदाई के लिए एक दिन और मान लें, तो भी ये कुल तीन दिन होते हैं। पुष्पक विमान की गति पवन से भी तेज थी। भगवान श्रीराम कुछ घंटों में ही लंका से अयोध्या आ सकते थे। पुष्पक विमान में बैठकर भगवान श्रीराम ने सीधे अयोध्या नहीं आए। अपितु वे उन सभी वन्य ग्रामों और ऋषि आश्रमों में गए जहाँ अपनी वनवास यात्रा में सीताहरण से पहले गए थे। भगवान श्रीराम सभी समाजों से मिले और समाज प्रमुखों को अयोध्या आने का आमंत्रण दिया।
वास्तव में इस कार्य में ही उन्हें सत्रह दिन लगे। लंका से विदा होने से पहले भगवान श्रीराम ने समस्त लंकावासियों को भी अयोध्या आमंत्रित किया था। भगवान श्रीराम पूरे समाज स्वयं जुड़े और सबको परस्पर जुड़ने का संकल्प भी दिलाया। चूंकि दानवी शक्तियां सदैव समाज के विखराव का लाभ उठातीं हैं। उनका सामना केवल संगठन शक्ति से ही किया जा सकता है। यदि समाज संगठित रहेगा, सशक्त रहेगा तो आसुरी शक्तियां सभ्य सुसंस्कृत समाज को कभी कष्ट न दे सकेंगी।
अपने राज्याभिषेक के बाद भी भगवान श्रीराम का यह अभियान यथावत रहा। उन्होंने लक्ष्मण, शत्रुघ्न और हनुमान जी को विभिन्न दिशाओं में भेजा और पूरे भारत को एक सूत्र में पिरोया।
अपनी पसंद, रुचि या क्षेत्र विशेष की प्रकृति के अनुरूप जीवन शैली में विविधता एक बात है और सांस्कृतिक विविधता दूसरी बात। भारत प्रकृति की विविधता से भरा देश है। यहाँ यदि वर्फ ढका हिमालय है तो राजस्थान में रेगिस्तान भी है। तीन ओर से समंदर से घिरी सीमाएं भी हैं। इसके कारण रहन सहन में भेद है। लेकिन यह केवल वाह्य रूप है। आंतरिक रूप से तो भारत राष्ट्र का सांस्कृतिक स्वरूप एक ही है। इसी सिद्धांत को जीवन में उतारने का काम प्रभु श्रीराम ने किया था। भारतीय संस्कृति समूची वसुंधरा के निवासियों को कुटुम्ब मानती है। संसार का एक-एक प्राणी उसके कुटुंब का अंग हैं। सभी समाज, वर्ग और क्षेत्र जन परस्पर प्रीति करें, एक दूसरे का पूरक बनें, यह संदेश रामजी की प्रत्येक यात्रा और अभियान में रहा। किसी में कोई भेद न हो, न नगर वासी में, न ग्रामवासी में और न कोई वन के निवासी में। भगवान श्रीराम ने एक एक व्यक्ति, वर्ग और क्षेत्र को राजमहल से जोड़ा।
उनकी वनवास यात्रा के विवरण से स्वमेव स्पष्ट है कि रामजी ने वनवासियों को तंग करने वाले और उनका शोषण करने वाले संगठित समूहों का अंत किया। आसुरी प्रवृत्तियां वनों में ही सर्वाधिक सक्रिय थीं। जिससे ऋषिगण और वनवासी समाज आक्रांत हुआ। रामजी महर्षि विश्वामित्र के साथ गए हों या अपनी बनवास यात्रा में। उन्होंने उन सभी राक्षसों का अंत किया जो इन समूहों को तंग करते थे। जिस प्रकार एक ही वृक्ष की शाखाएं अलग-अलग दिशाओं में फैलती हैं या उसके पके हुए फल से निकला बीज किसी दूसरे स्थान पर पनपकर नया वृक्ष बन जाता है और उसी से समाज का विस्तार होता है। विश्व की संपूर्ण मानवता का केंद्रीभूत बिंदु एक ही है। रामजी का आचरण इसी भाव का था और यही संदेश उन्होंने समाज को दिया।
भारत एकत्व स्वरूप को आराध्य प्रतीकों से भी समझा जा सकता है। नारायण महासागर में निवास करते हैं और शिव कैलाश पर। अर्थात एक सिरे से दूसरे सिरे तक भारत एक है। यदि संबंधों की व्यापकता को देखे तो रावण की पत्नि मंदोदरी मध्यप्रदेश के मंदसौर जिले की मानी जाती है तो राम की माता देवी कौशल्या छत्तीसगढ़ की। श्रीलंका में रावण के अनुज विभीषण की पत्नी सरमा कैकये प्रदेश की थीं जहाँ की राजकुमारी कैकेयी राजा दशरथ की पत्नी थीं। मैसूर में, तमिलनाडु में, बंगाल में, असम में कितनी लोक-कथाओं के नायक राम हैं। कितने स्थलों के नामों में राम शब्द आता है। यह सब भगवान राम के व्यक्तित्व की व्यापकता का सूचक है। इसके दो ही कारण हो सकते हैं। एक तो राम स्वयं वहां गए हों अथवा कोई और उनका संदेश लेकर वहां गया हो। अब राम स्वयं गए हों अथवा कोई संदेश लेकर गया हो उद्देश्य केवल एक है- पूरे भारत राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोने का।
शोधकर्ता डॉ. राम अवतार ने 48 वर्षों तक लगातार भगवान राम से संबद्ध तीर्थों पर शोध किया है। उनकी पुस्तक “वनवासी राम और लोक संस्कृति” में प्रभु राम के विभिन्न प्रयाणों से संबंधित 290 स्थानों को चिन्हित किया गया है। कुछ स्थानों पर तो शिलालेख भी मिले। ये सभी स्थानों में रामजी की यात्रा के प्रमाण हैं। स्वयं रामजी की अथवा उनका संदेश लेकर गए प्रतिनिधियों की यात्रा का केवल एक ही उद्देश्य शोषित पीड़ित एवं वंचित वर्ग को राजमहल से जोड़कर उचित सम्मान प्रदान करना था।
(लेखक ऐतिहासिक व अध्यात्मिक विषयों पर शोधपूर्ण लेख लिखते हैं)