Saturday, November 23, 2024
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“थोडे शिकवे भी हों. कुछ शिकायत भी हों. तो मज़ा जीने…………………”

जी हाँ, ये थोडे.  -थोडे. शिकवे-शिकायतें,  जीवन में मिठास, सरसता घोल देते हैं। ये रूठना…मनाना … छोटी -छोटी छेडखानियाँ……क्या खूब, खूबसूरत लगती हैं। बड़ा लुत्फ होता है इन में, लेकिन ये सारी बातें … छोटी -छोटी ही अच्छी लगती हैं। जैसे ही ये बड़ी होने लगती हैं. स्थिति खतरनाक होती जाती है। कुछ और देर होने पर हालात संभालते नहीं संभलते. गिले -शिकवे एक ऐसा रोग है। जिनका वक्त पर इलाज नहीं किया जाये तो असाध्य हो जते हैं।
ये सिलसिला जितना बढता है. जीवन में पीडा. परेशानियाँ. तनाव भी बढता जाता है। यदि एक ही वाक्य में कहें तो जिन्दगी में तमाम झगडे…. फसाद का अहम करण ही शिकायतें होती हैं। यूं कहने को ये बातें बहुत महीन नज़र आती हैं। शिकायतकर्ता को भी लगता है कि ऐसा मैंने कह ही क्या दिया. कुछ भी तो नहीं …वो तो यूँ ही ……कुछ कह दिया था. लेकिन सुनने वाले के दिल पर क्या गुजरी ये तो वो ही जानता है। कितनी ही बातें छोटी होती जरूर हैं मग़र दिल पर लग जाती हैं। शिकायतों का दौर यूँ ही छोटी -छोटी बातों से ही प्रारंभ होता है जैसे “तुमने ये नहीं किया”……वो नहीं……”तुम ऐसे हो”……तुम वैसे हो………”तुमने मेरे लिये किया ही क्या है”. तुमने मेरा जीवन ही ……आदि हजारों बातें होती हैं और रतू… तू,र्मैं….मैं बडे झगडों में बदल जाती है। हम कभी गौर करके देखें तो पायेंगे कि हम दिन भर में कितने लोंगों से. कितनी -कितनी शिकायतें करते हैं। हम खुद हैरत में पड़ जायेंगे।
हालांकि गलती इन्सान से ही होती है। कई बार परिस्थितियाँ भी जिम्मेदार होती हैं। ऐसे में व्यक्ति चाहकर भी वो नहीं कर पाता जो वह करना चाहता हैं।जैसे पति या घर का कोई भी सदस्य नियत समय से देरी से घर आता है तो दरवाजे पर ही घर के अन्य सदस्य शिकायतों की झड़ी लगा देते हैं। प्रश्नों की बौछार शुरू कर देतें हैं। हद तो तब और हो जाती है जब उसे सफाई तक देने का अवसर नहीं दिया जाता । उसे बोलने तक नहीं दिया जाता । देर होने के कई कारण हो सकते हैं मगर कोई सुनने को तैयार हो तब ना। यहाँ तक कि बिना कुछ सुने फैसला भी सुना दिया जाता हैं। प्रति दिन इस प्रकार के गिले -शिकवे. हर घर में न जाने कितनी बार परस्पर किए जाते हैं । कभी -कभी जिन के परिणाम बहुत विस्फोटक एवं भयंकर होते हैं। इन से न जाने कितने घर बर्बाद हो जाते हैं. रिश्तों में दरारें पड जाती है. दीवारें उग आती हैं। आदमी के जीवन में नीरसता. अकेलापन घर कर जाता है. क्योंकि रिशतों की नाजुक डोरी को शिकायतों की कैची इतनी निर्ममता से काटती हैं कि गिठान लगा कर भी इन्हें जोड़ना नामुमकिन हो जाता हैं।
ऐसे में शिकायतकर्ता तो अपनी भड़ास का ठीकरा सामने वाले के सर पर रखकर हल्का फुल्का हो लेता है और सुनने वाला बोझ से दबकर कराह उटता हैं। वैसे देखा जाये तो शिकायत के रस को हम निन्दा – रस के समक्ष रख सकते है. क्योकि शिकायत करने में  निंदा रस की ही तरह आनंद की अनुभूति होती है. जब तक कि सामने वाला चुपचाप सुनता रहता है. मगर जैसे ही वह उलट प्रहार कर बैठता है फिर तो भगवान ही मालिक है। उनकी “तू.. तू.., मैं …मैं रोद्र- रस का रूप धारण करने में जरा भी देर नहीं लगाती।
अभी आप जरूर सोच रहे होंगें कि मैं भी क्या शिकायत जैसी छोटी सी बात को तूल देने बैठ गई। मगर जनाब. आप स्वयं एक दिन शयन- पूर्व अपनी दैनन्दिनी पर गौर फरमाइएगा कि दिन भर में आप जिन लोगों से रूबरू हुए हैं. उन से कितनी बार. कितने गिले – शिकवे किए है। आप खुद आश्चर्य में पड़ जाएगें कि अधिकांश लोगों से शिकायतों के साथ ही मिले हैं। मसलन,  एक मित्र अचानक आपके समक्ष आ जाता है या आपके घर तशरीफ लाता है तो दरवाजे के बाहर से ही शिकवों की बारिश शुरू हो जाती है. “अरे. आज हमारे घर का रास्ता कैसे भूल गए”. “इतने दिनों तक आप को हमारी याद तक नहीं आई”. “आप हमें पहचानते तो है ना”. “आप तो हमें भूल ही गये” आदि -आदि । ये बात अलग है कि कभी -कभी ये शिकवे मासूम. स्नेहिल एवं प्रेम रस से परिपूर्ण होते हैं । लेकिन ऐसा नही होने पर सामने वाला तिलमिला कर रह जाता है। कुछ लोगों का तो लहजा ही शिकायती होता है। जब भी मिलेगें. शिकायतें ही शिकायतें लेकर मिलेगें और कोई बात ही नहीं …। ऐसे में लोग इनसे कतराने लगते हैं। दूर से ही कन्नी काटकर निकल जाते में अपनी भलाई मानते हैं।
हाँ. हर बात की तरह शिकायत के दो पहलू हैं। कितने ही मुआमलों में शिकायत ज़रूरी होती है। जहाँ ये अहम एवं सकारातमक भूमिका निभाती हैं. जैसे अकर्मण्य व्यक्ति को उस के कर्तव्य की याद दिलाने के लिए. भूल सुधार के लिए. भ्रष्टाचार रोकने के लिए. ग़लत काम पर रोक लगवाले हेतु. शोषण के खिलाफ़ अभ्रदता पर अंकुश लगाने के लिए। ऐसी सैकडों बाते हैं प्रसंग हैं. जहाँ शिकायतें दर्ज करवाना बहुत जरूरी होता है। क्योंकि ऐसे में शिकायत नहीं करने के. व्यक्ति बुराई को बढ़ावा देकर खुद दोषी बनता है।
देखा जाए तो अन्य प्रसंगों की ही तरह शिकायत के भी कर्ई-कई रूप है यथा- प्यार भरी शिकायत, मासूम शिकायत. झूठी शिकायत. सच्ची शिकायत. द्वेष -भाव से परिपूर्ण शिकायत. भोली शिकायत आदि -आदि । अतः शिकायत सुनने. उस पर कार्यवाही करने. जाँच -पड़ताल करने. फैसला सुनाने से पूर्व उपरोक्त बातों का भी ध्यान रखना अनिवार्य है। इसी प्रकार कुछ शिकायत सामने वाले के रूबरू होकर की जाती हैं. वहीं कई लोग पीठ पीछे दूसरें लोगों से अन्य व्यक्ति की शिकायत करते हैं। चलिये. बालक तो अमूमन ऐसा करते ही हैं, वो घर. स्कूल. पडौस में परस्पर शिकायत करके बहुत खुश भी होते हैं और यहां पर झूठी शिकायतें भी अधिकांश होती हैं। आखिर बच्चे जो ठहरे. मगर बडे भी इससे बाज नहीं आते। कार्यस्थल पर देखिये. कार्मचारी अपने ही सहकर्मियों की सच्र्ची -झूठी शिकायतें अधिकारी से करके उनकी नज़रों में श्रेष्ठ बनने की कोशिश करते रहतें हैं।इन शिकायतों में द्वेष व चुगली की भी मिलावट देखी जाती है। इसी के साथ शिकायत का दण्ड से भी गहरा रिश्ता होता है। दोनों को सहोदर की उपाधि आसानी से दी जा सकती है। क्योंकि शिकायत सही पाई जाने पर कसूरवार को दण्ड मिलता ही मिलता है। मिलना भी चाहिये।
 इसीलिए तो बच्चे झूठ -मूठ की शिकायत करके खुश होते रहते हैं। भार्ई-बहन भी लड़ाई होने पर. कोई भी आपस में मम्मी से झूठी शिकायत कर देता है। फिर अमुख को मम्मी द्धारा डाँट पड़ने पर परम् आनंद की अनुभूति प्राप्त करते है। मन ही मन मुस्कुरा कर जीत का जश्न मनाते हैं। अस्तु।
  वैसे शिकायत कोई छोti-मोटी हस्ती नहीं है। इस महारानी का एक छत्र साम्राज्य पूरी दुनिया पर है। आखिर ग्लोबलाईजेशन का जमाना जो है। व्यक्ति. परिवार. समाज़ राज्य. देश से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक इसका विस्तार है। व्यक्ति की तरह राज्य एवं राष्ट्र भी एक दूसरे से बकायदा शिकायतें करवाते हैं।वाकई. हवा की तरह सर्वव्याप्त है शिकायत। इस ग्लोबल युग में शिकायतें करने के तरीकें भी ग्लोबल ही हैं। जहाँ पहले शिकायतें रूबरू, पत्रों या फोन द्वारा की जाती थीं. अब ईमेल. टी. वी. द्वारा होने लगी हैं। फेसबुक पर भी काफी शिकायतें दर्ज मिलेंगी । पत्रों के प्रकार में तो “शिकायटी -पत्र” एक अलग विधा तक है। दफ्तरों में आज भी शिकायती -पत्रों से फाईले लदी रहती हैं।
 हर क्षेत्र की तरह ही यहाँ भी सन्तुलन बनाये रखने की बहुत जरूरत है। केवल मन की भड़ास निकालने. बदला लेने. किसी को नीचा दिखाने की भावना से बचना चाहिये। शिकायतें सच्ची और वाजिब होना चाहिये. तर्क पूर्ण भी और शिकायत करने से पूर्व या बीच में सामने वाले की बात हर हाल में सुननी चाहिये। क्योंकि व्यक्तिगत स्तर पर अधिकांश शिकायतें. अनुमानित. काल्पनिक़ मनगढंत और खुद के ही विचारानुकूल निकलती हैं। जब कोई हमारी झूठी शिकायत करता है तो हमें कितनी तकलीफ होती है। याद रहे दूसरे को भी उतनी ही पीड़ा होती है. जब हमारी शिकायत गलत निकलती है। अतः यहाँ धेर्य बहुत बडा मित्र साबित हो सकता है ।फिर भी…
“देखा पलटकर उसने, चाहत उसे भी थी,
दुनिया से मेरी तरह  शिकायत उसे भी थी”
लेकिन जनाब,  इसी प्रसंग में किसी ने बहुत बडी बात कह दी र्है “यदि आप को शिकायत नही है तो आप संत हैं।”
हाँ. जहाँ तक संभव हो, बहतर तो ये ही है कि हम परस्पर शिकायत करने का अवसर ही न दें।काश, ऐसा हो जाए तो कहना ही क्या……शिकायत शब्द दुनिया से ही छूमन्तर हो जायेगा, चुटकी बजाते ही। मगर यह इतना आसान भी नहीं हैं। अतः जरूरत पड़ने पर अपनी बात को सकारात्मक तरीके से रखें ताकि सामने वाले को शिकायत नहीं लगे। और वह अपनी समस्या सरलता से बता भी सके। क्योंकि जानबूझ कर कोई किसी को दुख नहीं पहुँचाना चाहता। मजबूरी वश ही ऐसा हो जाता है. न चाहते हुए भी मेरा ही अपना एक शैर….
“कोई किसी को यूँ ही नहीं सताता,
उस की भी मज़बूरियाँ रही होंगी।
अतः ऐसे अवसर पर शिकायत के बदले प्यार से पेश आना चाहिये क्योंकि सामने वाले के साथ ज़रूर कुछ ऐसा हुआ होगा कि…… सम्भव हो तो कोई हमसे शिकायत करें. इसके पूर्व ही निडर होकर अपनी बात कहने का प्रयास कर लेना चाहिये क्योंकि कितनी ही बार आदमी डर के मारे सच बात बतानें से कतराता है और कुछ बातें छिपाकर रख लेता है। इस तरह डर से भी शिकायत का पुराना रिश्ता है।
बहारहाल, शिकायत का दूसरा पहलू और भी रोचक होता है। कुछ लोग इसी बात से हैरान, परेशान, दुखी हैं कि उनके अपने उन से कभी,  भूल कर भी शिकायत ही नहीं करते। उन से किसी को शिकायत ही नहीं। उनका मानना है कि उनके अपनों को उनकी किसी भी अच्छी या बुरी बात से कोई फर्क ही नहीं पड़ता. यानी उन से कोई लेना -देना ही नहीं अपनापन ही नहीं। क्योंकि गिले -शिकवे अधिकांश अपनों से ही किए जाते हैं। वाकई, यह तो हद हो गई यार। एक फिल्मी गीत यही बयाँ कर रहा र्है :
“उनको ये शिकायत है कि  हम
कुछ नहीं कहतें……।”
       और इसी बात पर एक और चुटकी…
               “कुछ शिकायत करे वो मुझ से भी,
                       कुछ उसे भी मलाल तो होवें। “
अब ऐसे में क्या करें, क्या न करें। यही करें कि शिकायत करने से कुछ अच्छा हो रहा हो तो शिकायत करें. वरना अपना मुँह बंद ही रखें। अमूमन, शिकायत में नतीजे नकारात्मक ही होते हैं। शिकायत का जवाब शिकायत में ही मिलता है। बस कभी -काभार. छोती -छोटी. दिलकश. बिन्दास शिकायतें ज़रूर परस्पर कर लेनी चाहिये ताकि जीवन में मधुरता के साथ – साथ कुछ नमकीन -रस भी घुला *मिला रहे। बड़ी शिकायतों से थोड़ा दूर ही रहे तो अच्छा है। वैसे तो शिकायतों का सिलसिला बहुत पुराना व अन्तहीन है। जब से दुनिया बनी है तब से ही शिकायतें चली आ रही हैं और जब तक दुनिया रहेगी शिकायतें बरकरार रहेंगी।प्लीज़, मुझ से पत्र, फोन या ई मेल द्वारा यह शिकायत मत कीजिएगा कि मैनें शिकायत के प्रसंग में कुछ भी लिखने की जुर्रत क्यों की।और चलते चलते –
 “अभी गुस्से को मुल्तवी कर दे. अभी शिकवे तमाम रहने दे,
              मुश्किलों से जो पाई है फुरसत. उसे उल्फत के नाम रहने दे”।
——-
   डॉ. कृष्णा कुमारी
सी -368, तलवंडी
कोटा (राज.)-324005

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