गुरुग्राम। विश्व नागरी विज्ञान संस्थान और के.आई.आई.टी ग्रुप ऑफ कालेजेज़,गुरुग्राम (हरियाणा) के संयुक्त तत्वावधान में कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग के परिसर में रूस में मास्को विश्वविद्यालय के एशियाई एवं अफ्रीकी संस्थान की भारतीय भाषाशास्त्र की प्रोफेसर डॉ. (श्रीमती) ल्यूडमिला खोखलोवा के व्याख्यान का आयोजन किया गया। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता संस्थान के अध्यक्ष श्री बलदेव राज कामराह ने की। विषय था – ‘’अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में हिन्दी: रूस के संदर्भ में”। प्रारंभ में संस्थान के महासचिव एवं निदेशक तथा सुविख्यात भाषाविज्ञानी प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी ने विदुषी प्रो. खोखलोवा का परिचय देते हुए उनका तथा कार्यक्रम में पधारे अतिथियों का स्वागत किया। प्रो. गोस्वामी ने हिन्दी के जनपदीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संदर्भों के बारे में बताते हुए विदेशों में हिन्दी की स्थिति पर चर्चा की। के.आई.आई.टी ग्रुप ऑफ कोलेजेज़ के महा निदेशक और सुप्रसिद्ध प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ डॉ. श्याम सुंदर अग्रवाल ने संस्थान का परिचय दिया।
इसके बाद प्रो.खोखलोवा ने अपने व्याख्यान में बताया कि पंद्रहवीं शताब्दी में रूस में भारतीय भाषाओं के प्रति रुचि झलकने लगी थी, जब एक रूसी विश्व यात्री अफनासी निकितिन ने 1468 में भारत की यात्रा की थी। वर्ष 1801 में गेरासिम लेबिदेव ने कोलकाता के व्यापारियों की हिंदुस्तानी भाषा का व्याकरण लिखा, जो बंगला, मारवाड़ी, अवधी, भोजपुरी, मैथिली, फारसी आदि से प्रभावित खिचड़ी भाषा थी। यह पुस्तक लंदन में A Grammar of pure and mixed East Indian dialects शीर्षक से अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुई. इस प्रकार 19वीं शताब्दी में भारतीय संस्कृति, दर्शन, इंतिहास, कला, भाषाओं के प्रति काफी रुचि बढ़ गई। खोखलोवा जी ने आगे कहा कि रूस के कवियों ने सबसे पहले कालिदास की रचनाओं का रूसी में अनुवाद किया, जिनमें अलेक्सान्दर पूश्किन के पूर्ववर्ती कवि वसीली झुकोवस्की (1783-1852) ने नल और दमयंती का अनुवाद, कंस्तांतिन बालमंत (1867-1942) ने शकुंतला का अनुवाद किया और ईगर सिविरयानिन (1887-1941) ने कालिदास की कई रचनाओं का अनुवाद किया । इस तरह हम देखते हैं कि उन्नीसवीं शताब्दी में रूस में भारत के प्रति लगाव बढ़ता जा रहा था। रूसी लोग प्राचीन भारतीय संस्कृति, दर्शन, इतिहास और कला में गहरी रुचि ले रहे थे। 19वीं सदी के अंत में अ० विगोरनित्स्की (1897), अ० फ़०गिल्फ़ेर्दिंग (1899) और इ० प० यागेल्लो (1902) ने हिन्दुस्तानी भाषा पर अपनी-अपनी पुस्तकें लिखीं। ये मुख्यत: व्यावहारिक पाठ्य-पुस्तकें थीं और इनमें सामान्य नियम दिए गए थे, लेकिन आज इन पुस्तकों का महत्व नहीं रहा। सन् 1917 की क्रांति के बाद रूस में भारतीय आधुनिक भाषाओं पर गंभीर अध्ययन होने लगा। वसीली ब्रिस्कोवनी ने हिन्दी-रूसी शब्दकोश की रचना की, जिसे बहुत ही पसंद किया जाता है। वीक्तर बालिन ने हिन्दी साहित्य के इतिहास का लेखन करते हुए मैथिली, अवधी और ब्रज भाषाओं के साहित्य का भी गहन अध्ययन किया था।
उन्होंने प्रेमचंद के निर्मला, कर्मभूमि, और रंगभूमि जैसे कई उपन्यासों और कहानियों का रूसी में सुंदर अनुवाद किया था। अलेक्सेय बरान्निकोफ ने लेनिनग्राद (सेंट पीटसबर्ग) में लल्लू जी लाल के ‘’प्रेम सागर“ का अध्ययन किया और तुलसी दास के “राम चरित मानस” का रूसी अनुवाद भी किया। चेलिशेव, चेर्निशोफ, तात्याना, लिपिरोव्स्की आदि हिन्दी के सुविख्यात विद्वान हैं। प्रो. खोखलोवा ने रूस में हिन्दी शिक्षण पर चर्चा करते हुए यह भी बताया कि दूसरे विश्व-युद्ध के बाद मास्को, सेंट पीटसबर्ग और व्ल्दीवस्तोक में भारतीय भाषाओं का अध्ययन और अध्यापन शुरू हुआ। मास्को में छठे दशक में मास्को विश्वविद्यालय में पूर्वी भाषा अध्ययन संस्थान की स्थापना हुई जिसमें हिन्दी भाषा का शिक्षण होता है। इन विश्वविद्यालयों में हिन्दी के साथ-साथ संस्कृत, तमिल, बांग्ला, मराठी, पंजाबी, उर्दू आदि कई भारतीय भाषाएँ पढ़ाई जाती हैं। इनके अतिरिक्त भारतीय इतिहास, भारतीय भाषाशास्त्र और साहित्य, भारतीय दर्शन, भारतीय अर्थव्यवस्था तथा भारतीय राजनीति का शिक्षण भी होता है। इन सभी विषयों में बी०ए० और एम०ए० की डिग्री तक पढ़ाई होती है। इन विषयों में डिग्री प्राप्त करने के लिये हिन्दी सीखना अनिवार्य है। खोखलोवा जी रूस में हिन्दी व्याकरण और संरचना के शिक्षण में आने वाली कठिनाइयों की ओर भी संकेत किया। इसके बाद प्रश्नोत्तर हुआ, जिसमें कई विद्वानों ने भाग लिया। अंत में शिक्षा महाविद्यालय के निदेशक प्रो. मंजीत सेनगुप्ता ने खोखलोवा जी का अभिवादन करते हुए सभी अतिथियों का धन्यवाद किया और अध्यक्ष महोदय ने खोखलोवा जी को गांधी जी की प्रतिमाके रूप में स्मृति प्रतीक भेंट किया।
प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी
महा सचिव, विश्व नागरी विज्ञान संस्थान,
गुरुग्राम (हरियाणा)
kkgoswami1942@gmail.com
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साभार
वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
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