21वीं शताब्दी अपने साथ नई चुनौतियाँ तो लेकर आई ही है, नई संभावनाएँ भी लाई है. हिंदी भाषा के संदर्भ में भी यह बात ठीक है. बदलते परिदृश्य ने हिंदी के समक्ष अखिल भारतीय संपर्क की परंपरागत चुनौती से आगे बढ़कर खुलेबाजार की भाषा की बनने और कंप्यूटर की तकनीक को साधने की नई चुनौतियाँ पेश की है तो इन चुनौतियों ने ही हिंदी को नए वैश्विक प्रसार की संभावनाओं से भी जोड़ा है. सामाजिक और आर्थिक ही नहीं व्यावसायिक और कूटनैतिक स्तर पर जो नई परिघटनाएँ इधर के कुछ वर्षों में सामने आई हैं उन्होंने हिंदी जगत में नए उत्साह का संचार किया है. परिणामस्वरूप एक अधिक लोकतांत्रिक वैश्विक भाषा के रूप में हिंदी ने अपने आपको नए सिरे से जाँचना और संवारना शुरू कर दिया है. यथास्थितिवादी और शुद्धतावादी आक्षेपों की परवाह किए बिना हिंदी संवाद और संप्रेषण के नए आयामों के अनुरूप अपनी लोच और लचक को बढ़ाते हुए नित नए अवतार धारण कर रही है जिसका बड़ा श्रेय मीडिया और खास तौर से सोशल मीडिया को जाता है. ऐसी स्थिति में हिंदी के इतिहास और विकास पर प्रगतिशील वैज्ञानिक दृष्टि से विचार-विमर्श जरूरी है. डॉ. ऋषभदेव शर्मा (1957) ने अपने विचारोत्तेजक ग्रंथ ‘हिंदी भाषा के बढ़ते कदम’ (2015) में हिंदी की यात्रा का लेखा-जोखा इसी प्रगतिशील वैज्ञानिक दृष्टि से किया है तथा भाषा संबंधी जड़तावाद पर चोट करते हुए हिंदी के सर्वसमावेशी स्वरूप के विकास के लिए समस्त भारतीयों का आह्वान किया है.
‘हिंदी भाषा के बढ़ते कदम’ शीर्षक इस ग्रंथ में डॉ. ऋषभदेव शर्मा के हिंदी रचनाकार, अध्यापक, समीक्षक, पत्रकार और प्रचारक के रूप में सुदीर्घ अनुभवों का सार छह खंडों में सुनियोजित 43 आलेखों के रूप में प्रस्तुत किया गया है जिसे लेखक के भाषा चिंतन की निष्पत्ति भी माना जा सकता है. लेखक ने बार-बार इस बात की ओर ध्यान दिलाया है कि अपने केंद्र को छोड़कर सब दिशाओं में फैलने की जनपक्षीय प्रकृति के कारण हिंदी विभिन्न भाषा-भाषियों के बीच परस्पर विचार-विनिमय से लेकर उच्च स्तरीय ज्ञान-विज्ञान संबंधी विमर्श तक के लिए उसी प्रकार सर्वाधिक उपयुक्त भाषा है, जिस प्रकार की वह भारत के बहुभाषी समाज के लिए संपर्क भाषा के रूप में सर्वाधिक सहज भाषा है. इसे लेखक का अतिउत्साह भले ही कहा जाए परंतु उनका यह आशावाद न तो निराधार है और न ही असंभव. लेखक ने यथास्थान उदाहरणों और प्रमाणों के आधार पर यह प्रतिपादित किया है कि हिंदी सब प्रकार की छुआछूत से मुक्त उदार भाषा होने के साथ-साथ भली प्रकार नियमबद्ध भाषा है. इसलिए वह बाजार से लेकर मीडिया तक की ही नहीं, पुरातन विद्याओं से लेकर आधुनिक अनुशासनों तक की अभिव्यक्ति में पूर्ण सक्षम है. यह तो मानी हुई बात है कि हिंदी सीखना बहुत आसान है. लेकिन अब यह भी मानना होगा कि बाजार, फिल्म, विज्ञापन, सोशल मीडिया, व्यापार, व्यवसाय, राजनीति, विदेश नीति या और भी तमाम आज की दुनिया के व्यवहार क्षेत्रों में हिंदी को अपनाना कोई मुश्किल काम नहीं है. मुश्किल है तो भारतीयों की भाषिक हीनभावना से मुक्ति!
इस केंद्रीय विचार को लेखक डॉ. ऋषभदेव शर्मा ने अलग-अलग प्रकार से विवेच्य ग्रंथ में प्रतिपादित किया है. उन्होंने यह भी प्रतिपादित किया है कि भाषा और साहित्य दोनों एक दूसरे के माध्यम से पुष्ट होते हैं, एक दूसरे को पुष्ट करते हैं और संस्कृति के वाहक होते हैं. हम चाहें तो ऐसे अनेक उदाहरणों को याद कर सकते हैं जिनके माध्यम से यह बात सहज ही स्पष्ट हो सकती है कि विविध प्रकार के आचरण, शिष्टाचार, विनम्रता आदि को कोई संस्कृति किस प्रकार अपनाती है तथा उनकी अभिव्यक्ति भाषा और साहित्य में किस प्रकार अंतःसलीला बनकर विद्यमान रहती है.
पुस्तक का नाम : हिंदी भाषा के बढ़ते कदम
लेखक : ऋषभदेव शर्मा
प्रकाशन वर्ष : 2015
प्रकाशक : तेज प्रकाशन, नई दिल्ली
पृष्ठ : 305
मूल्य : रु. 650/-
– गुर्रमकोंडा नीरजा