हमारी जनशक्ति देश की और हमारी हिन्दी की भी ताकत है। बहुत साल नहीं हुए जब हम अपनी विशाल आबादी को अभिशाप मानते थे। आज यह हमारी कर्मशक्ति मानी जाती है। भूतपूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने सही कहा है: ‘अधिक आबादी अपने आप में कोई समस्या नहीं है, समस्या है उस की ज़रूरियात को पूरा न कर पाना। अधिक आबादी का मतलब है अधिक सामान की, उत्पाद की माँग। अगर लोगों के पास क्रय क्षमता है तो हर चीज़ की माँग बढ़ती है।’ आज हमारे समृद्ध मध्य वर्ग की संख्या अमरीका की कुल आबादी जितनी है। पिछले दिनोँ के विश्वव्यापी आर्थिक संकट को भारत हँसते खेलते झेल गया तो उस का एक से बड़ा कारण यही था कि हमारे उद्योगोँ के उत्पाद मात्र निर्यात पर आधारित नहीँ हैँ। हमारी अपनी खपत उन्हें ताक़त देती है और बढ़ाती है।
इंग्लिश-हिन्दी थिसारस द्वारा भारत में कोशकारिता को नया आयाम देने वाले अरविंदकुमार का मानना है कि इसे हिंदी भाषियोँ की और विकसित देशोँ की जनसंख्या के अनुपातोँ के साथ-साथ सामाजिक रुझानोँ को देखते हुए समझना होगा। दुनिया की कुल आबादी मेँ से हिंदुस्तान और चीन के पास 60 प्रतिशत लोग हैँ। कुल यूरोप की आबादी है 73-74 करोड़, उत्तर अमरीका की आबादी है 50 करोड़ के आसपास। सन 2050 तक दुनिया की आबादी 4 से 9 अरब से भी ऊपर हो जाने की संभावना है। इसमेँ से यूरोप और अमरीका जैसे विकसित देशों की आबादी बूढ़ी होती जा रही है। (आबादी बूढ़े होने का मतलब है किसी देश की कुल जनसंख्या मेँ बूढे लोगोँ का अनुपात अधिक हो जाना।) चुनावी नारे के तौर पर अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा कुछ भी कहें, बुढाती आबादी के कारण उन्हेँ अपने यहाँ या अपने लिए काम करने वालोँ को विवश हो कर, मजबूरन या तो बाहर वालोँ को आयात करना होगा या अपना काम विदेशों में करवाना होगा।
युवा भारत से बढ़तीं आशाएँ
इस संदर्भ मेँ संसार की सब से बड़ी साफ़्टवेअर कंपनी इनफ़ोसिस के एक संस्थापक नीलकेणी की राय विचारणीय है। तथ्यों के आधार पर उनका कहना है कि ‘किसी देश में युवाओँ की संख्या जितनी ज़्यादा होती है, उस देश में उतने ही अधिक काम करने वाले होते हैँ और उतने ही अधिक नए विचार पनपते हैं। तथ्य यह है कि किसी ज़माने का बूढ़ा भारत आज संसार में सबसे अधिक युवा जनसंख्या वाला देश बन गया है। इस का फ़ायदा हमें 2050 तक मिलता रहेगा। स्वयं भारत के भीतर जनसंख्या आकलन के आधार पर 2025 मेँ हिंदी पट्टी की उम्र औसतन 26 वर्ष होगी और दक्षिण की 34 साल।’
अब आप भाषा के संदर्भ में इस का मतलब लगाइए। इन जवानों में से अधिकांश हिंदी पट्टी के छोटे शहरोँ और गाँवोँ में होंगे। उन की मानसिकता मुंबई, दिल्ली, गुड़गाँव के लोगोँ से कुछ भिन्न होगी। उनके पास अपनी स्थानीय जीवन शैली और बोली होगी।
तकनीकी दुनिया के साँचे और हिन्दी
नई पहलों के चलते हमारे तीव्र विकास के जो रास्ते खुल रहे हैँ (जैसे सबके लिए शिक्षा का अभियान), उनका परिणाम होगा असली भारत को, हमारे गाँवोँ को, सशक्त कर के देश को आगे बढ़ाना। आगे बढ़ने के लिए हिंदी वालोँ के लिए सबसे बड़ी ज़रूरत है अपने को नई तकनीकी दुनिया के साँचे मेँ ढालना, सूचना प्रौद्योगिकी में समर्थ बनना।तकनीकी विश्व में हिंदी की बहार दिखाई देती है- सोशल नेटवर्किंग और ब्लॉगिंग में। इनमें से पहला माध्यम चढ़ाव पर तो दूसरे में ठहराव है। जिस अंदाज में हिंदी विश्व ने फेसबुक को अपनाया है, वह अद्भुत है। दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों को भूल जाइए, लखनऊ, पटना और जयपुर जैसी राजधानियों को भी भूल जाइए, छोटे-छोटे गाँवों और कस्बों तक के युवा, बुजुर्ग, बच्चे फेसबुक पर आ जमे हैं और खूब सारी बातें कर रहे हैं- हिंदी में।
डॉ. वेदप्रताप वैदिक ठीक कहते हैं कि हिन्दी और संस्कृत मिलकर संपूर्ण कम्प्यूटर-विश्व पर राज कर सकती हैं। वे इक्कीसवीं सदी की विश्वभाषा बन सकती हैं। जो भाषा कम से कम पिछले एक हजार साल से करोड़ों-अरबों लोगों द्वारा बोली जा रही है और जिसका उपयोग फिजी से सूरिनाम तक फैले हुए विशाल विश्व में हो रहा है, उस पर शब्दों की निर्धनता का आरोप लगाना शुद्ध अज्ञान का परिचायक है।
अंतरजाल पर हिन्दी का जाल
यही है हमारी नई दिशा। कंप्यूटर और इंटरनेट ने पिछ्ले वर्षों मेँ विश्व मेँ सूचना क्रांति ला दी है। आज कोई भी भाषा कंप्यूटर तथा अन्य इलैक्ट्रोनिक उपकरणों से दूर रह कर पनप नहीं सकती। नई तकनीक में महारत किसी भी काल में देशोँ को सर्वोच्च शक्ति प्रदान करती है। इसमेँ हम पीछे हैँ भी नहीँ… भारत और हिंदी वाले इस क्षेत्र मेँ अपना सिक्का जमा चुके हैँ। इस समय हिंदी में वैबसाइटेँ, चिट्ठे, ईमेल, चैट, खोज, एसएमएस तथा अन्य हिंदी सामग्री उपलब्ध हैं। नित नए कम्प्यूटिंग उपकरण आते जा रहे हैं। इनके बारे में जानकारी दे कर लोगों मेँ जागरूकता पैदा करने की ज़रूरत है ताकि अधिकाधिक लोग कंप्यूटर पर हिंदी का प्रयोग करते हुए अपना, देश का, हिंदी का और समाज का विकास करें।
हमेँ यह सोच कर नहीँ चलना चाहिए कि गाँव का आदमी नई तकनीक अपनाना नहीं चाहता। ताज़ा आँकड़ोँ से यह बात सिद्ध हो जाती है। गाँवोँ मेँ रोज़गार के नए से नए अवसर खुल रहे हैँ। शहर अपना माल गाँवोँ में बेचने को उतावला है। गाँव अब ई-विलेज हो चला है। तेरह प्रतिशत लोग इंटरनेट का उपयोग खेती की नई जानकारी जानने के लिए करते हैँ। यह तथ्य है कि गाँवोँ में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालोँ का आंकड़ा 54 लाख पर पहुँच जाएगा।
मोबाइल और हिन्दी कुंजी पटल
इसी प्रकार मोबाइल फ़ोन दूरदराज़ इलाक़ोँ के लिए वरदान हो कर आया है। उस ने कामगारोँ कारीगरोँ को दलालोँ से मुक्त कर दिया है। यह उनका चलता फिरता दफ़्तर बन गया है और शिक्षा का माध्यम। हर माह करोड़ों नए मोबाइल ग्राहक बन रहे हैं। अब सेल फोन का इस्तेमाल कृषि काल सैंटरों से नि:शुल्क जानकारी पाने के लिए, उपज के नवीनतम भाव जानने के लिए किया जाता है। यह जानकारी पाने वाले लोगोँ में हिंदी भाषी प्रमुख हैँ। उनकी सहायता के लिए अब मोबाइलों पर इंग्लिश के कुंजी पटल की ही तरह हिंदी का कुंजी पटल भी उपलब्ध हो गया है।
हिंदी वालोँ और गाँवोँ की बढ़ती क्रय शक्ति का ही फल है जो टीवी संचालक कंपनियाँ इंग्लिश कार्यक्रमोँ पर अपनी नैया खेना चाहती थीँ, वे पूरी तरह भारतीय भाषाओँ को समर्पित हैँ। सरकारी कामकाज की बात करेँ तो पुणेँ में प्रख्यात सरकारी संस्थान सी-डैक कंप्यूटर पर हिंदी के उपयोग के लिए तरह तरह के उपकरण और प्रोग्राम विकसित करने मेँ रत है। अनेक सरकारी विभागोँ की निजी तकनीकी शब्दावली को समो कर उन मंत्रालयोँ के अधिकारियोँ की सहायता के लिए मशीनी अनुवाद के उपकरण तैयार हो चुके हैँ। अभी हाल सी-डैक ने ‘श्रुतलेखन’ नाम की नई विधि विकसित की है जिस के सहारे बोली गई हिंदी को लिपि में परिवर्तित करना संभव हो गया है। जो सरकारी अधिकारी देवनागरी लिखने या टाइप करने में अक्षम हैं, अब वे इसकी सहायता से अपनी टिप्पणियाँ या आदेश हिंदी में लिख सकेंगे। यही नहीं इस की सहायता से हिंदी में लिखित कंप्यूटर सामग्री तथा एसएमएस आदि को सुना भी जा सकेगा।
निस्संदेह हिन्दी के विकास में सम्पूर्ण क्रांति की नई लहर-सी चल पड़ी है। वह नए भारत का प्रतीक बनती जा रही है।
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प्राध्यापक,हिन्दी विभाग
दिग्विजय कालेज,राजनांदगांव