”मैं यह कहते हुए शर्मिंदा हूं कि पिछले सप्ताह वीर सावरकर पर लिखी गई दो किताबों को पढ़ने से पहले तक मुझे उनके बारे में कुछ मालूम नहीं था। स्कूल और कॉलेज में मैंने बड़े शौक से इतिहास की पढ़ाई की थी। लेकिन जिन किताबों से मुझे इतिहास पढ़ाया गया था, उनमें आजादी के आंदोलन के दो महान नायक-महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू थे। मुझे सिखाया गया था कि देश की स्वतंत्रता के लिए इन दो व्यक्तियों ने अपना जीवन बलिदान किया था। अपना पारिवारिक सुख त्याग कर इन्होंने देश के लिए कई-कई साल जेलों में काटे। सावरकर का नाम अगर कभी क्रांतिकारियों की सूची में आया, तो उनको खलनायक के रूप में पेश किया गया। मुझे सिखाया गया था कि सावरकर ने गांधी जी का विरोध किया। मुझे सिखाया गया कि उनकी सोच इतनी कट्टरपंथी थी कि वह मुसलमानों से नफरत करते थे।
पत्रकार बनने के बाद मेरी पूरी रुचि राजनीतिक पत्रकारिता में रही। सो सावरकर का नाम मैंने बहुत बार सुना, लेकिन जिसने भी यह नाम लिया, उनकी आलोचना करते हुए लिया। हाल में कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने लोकसभा में कहा था कि भाजपा की विचारधारा कांग्रेस से इसलिए अलग है, क्योंकि कांग्रेस ने अपने विचार गांधी जी से सीखे हैं और भाजपा ने सावरकर से। तो जब मैंने विक्रम संपथ की किताब सावरकर : भूले हुए अतीत की गूंज पढ़ी, तो यह जानकर हैरान रह गई कि सावरकर ने देश को आजाद कराने के लिए अन्य क्रांतिकारियों के साथ पूरा एक दशक काला पानी में बिताकर कितने कष्ट झेले थे।
जब उनकी उम्र कोई बीस-पच्चीस साल थी, तब अंग्रेजों ने उनको पचास साल की उम्रकैद की सजा सुनाकर काला पानी भेजा था। जेल में हालात बहुत खराब थे। सावरकर और उनके क्रांतिकारी साथियों को सुबह से शाम तक कोल्हू के बैल की तरह मशक्कत करनी पड़ती थी। पूरे पोषण के बगैर उन्हें घंटों काम करना पड़ता था। सुबह के नाश्ते में उनको चावल का पानी मिलता था और शाम को अधपकी रोटी और सब्जी। जब कोई बीमार पड़ता था, तो उसका इलाज तक नहीं किया जाता था, और अगर किसी ने शिकायत करने की हिम्मत दिखाई, तो उसके हाथ-पांव लोहे की बेड़ियों में बांधकर उसे छत से घंटों लटकाया जाता था। सावरकर ने इस नर्क से निकलने के लिए जब माफीनामे लिखे, तो कांग्रेस के आला नेता उनको कमजोर और कायर कहकर बदनाम करने में लग गए। वामपंथी इतिहासकारों ने उनका नाम तक इतिहास की किताबों से मिटाने का प्रयास किया है।
अटल जी जब प्रधानमंत्री बने, तब उन्होंने पोर्ट ब्लेयर में सावरकर का स्मारक बनवाने का आदेश दिया। लेकिन जब 2004 में सोनिया-मनमोहन की सरकार आई, तब मणिशंकर अय्यर ने उस स्मारक को हटा दिया था। सावरकर के असली स्मारक वे किताबें हैं, जो उनके जीवन और विचारों के बारे में अब लिखी जा रही हैं। संयोग से एक ही समय में उन पर दो किताबें छपी हैं। एक विक्रम संपथ ने लिखी है और दूसरी वैभव पुरंदरे ने। मेरा मानना है कि इन किताबों का अनुवाद हर भारतीय भाषा में होना चाहिए, ताकि देश को पता लगे कि सावरकर को वीर सावरकर क्यों कहा जाता है।
भारत की स्वतंत्रता के लिए वीर सावरकर जैसे क्रांतिकारियों ने भी बलिदान दिया है। लेकिन शर्म की बात है कि इतिहास की किताबों से उनके नाम तक मिटा दिए गए। उनके साथ अन्याय हुआ है। उनके साथ न्याय तभी होगा, जब देश के स्कूलों में इतिहास की किताबों में परिवर्तन लाकर वीर सावरकर का नाम सुनहरे अक्षरों में लिखा जाएगा।”