Monday, November 18, 2024
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बच्चे को पैसे की अहमियत कैसे समझाएं?

पैसों को लेकर तीन बुनियादी सबक सीखने की जरूरत है, जिनसे बड़ा होने पर काफी फायदा हो सकता है। इसमें पहला है- ऑपर्च्युनिटी कॉस्ट ऑफ मनी। दूसरा, पैसे से जुड़े फैसलों में इमोशनल इंटेलिजेंस और तीसरी बात यह है कि पैसे की वैल्यू समय के साथ बदलती रहती है।

समुद्र के किनारे सूरज की धूप सेंकते हुए मां अपने बच्चे को फ्लेमिंगो पक्षी के इतिहास से लेकर सही रोशनी और फ्रेम के साथ उसके फोटोग्राफ लेने के बारे में बता रही थीं। वह लगातार बोल रही थीं और उनके पास जो भी जानकारी थी, वह बच्चे से बांटना चाहती थीं। वह यहां एक गलती भी कर रही थीं। सब कुछ बताने के चक्कर में वह बच्चे को खुद कुछ सीखने का मौका नहीं दे रही थीं। हममें से ज्यादातर लोग यह गलती करते हैं। अगर हम एक पक्षी के बारे में बताने को लेकर ऐसी भूल कर सकते हैं तो पैसे जैसे गंभीर विषय की कल्पना आप खुद ही कर लीजिए।

अक्सर हम बच्चे को अपने साथ बैंक ले जाकर पैसों के बारे में बताने की शुरुआत करते हैं। हम पहले उनका खाता खुलवाते हैं और गिफ्ट के रूप में मिली रकम को उसमें जमा कराते हैं। इस तरह से हम उसे बालिगों की दुनिया में ले जाते हैं और उम्मीद करते हैं कि इस नॉलेज से उसे मदद मिलेगी। इस पूरी प्रक्रिया में दिक्कत यह है कि बैंक खाता बच्चे की मनी लाइफ का केंद्र नहीं होता। आखिर उसके खाते में बहुत छोटी रकम होती है और वैसे भी उसके मनी-मैटर्स का फैसला माता-पिता करते हैं।

पॉकेट मनी के लिए बच्चे का बैंक खाता खुलवाना अच्छी बात है, लेकिन यह बोरिंग भी है। जब पैरंट्स खुद अपना बजट नहीं बनाते या खर्च का हिसाब-किताब नहीं रखते तो बच्चों पर उसे कैसे थोपा जा सकता है। बजट और हिसाब-किताब से बच्चों में इस मामले में और सीखने की इच्छा नहीं पैदा होती। ना ही, वे इससे बहुत कुछ सीख सकते हैं। माता-पिता बच्चों को बचत करने के फायदे बताते हैं, लेकिन सिर्फ इतने से बात नहीं बनती। अगर परिवार के बड़े सदस्य इस पर अमल ना कर रहे हों तो ऐसी सीख का कोई मतलब नहीं होता।

जब बच्चे बड़े होते हैं, तब माता-पिता उनका एनरॉलमेंट फाइनैंशल लिटरेसी प्रोग्राम में कराते हैं। ऐसे प्रोग्राम में उन्हें पैसों और निवेश के बारे में बताया जाता है। बच्चों के लिए असल जिंदगी में इन पर अमल मुश्किल होता है। ऐसे प्रोग्राम दिलचस्प हो सकते हैं और इन्हें लेकर उनके मन में जिज्ञासा भी हो सकती है, लेकिन ये साइंस के वैसे सबक से अलग नहीं हैं, जिनका असल जिंदगी में इस्तेमाल नहीं होने पर हम उन्हें भुला बैठते हैं। पैसों को लेकर तीन बुनियादी सबक सीखने की जरूरत है, जिनसे बड़ा होने पर काफी फायदा हो सकता है। इसमें पहला है- ऑपर्च्युनिटी कॉस्ट ऑफ मनी। दूसरा, पैसे से जुड़े फैसलों में इमोशनल इंटेलिजेंस और तीसरी बात यह है कि पैसे की वैल्यू समय के साथ बदलती रहती है।

पहले ऑपर्च्युनिटी कॉस्ट की बात करते हैं। एक-एक रुपये के कई इस्तेमाल हो सकते हैं। अगर किसी बच्चे को यह लगे कि जरूरत पड़ने पर कितना भी पैसा एटीएम से निकाला जा सकता है तो वह पैसे से जुड़े फैसलों को नहीं समझेगा। जब माता-पिता तय करते हैं कि बच्चों के लिए वे क्या खरीदेंगे या क्या नहीं, तो बच्चों को लगता है कि वे अभिभावक होने के नाते ऐसा कर रहे हैं। छोटे बच्चे अपनी बात मनवाने के लिए जहां नौटंकी करते हैं, वहीं बड़े बच्चे अभिभावक को अपराधबोध से ग्रस्त कराते हैं। टीन एजर्स तो ऐसी सिचुएशन में सीधे विरोध पर उतारू हो जाते हैं और वे मांग पूरी नहीं होने पर पैरंट्स को धमकी भी देते हैं। बच्चे यह नहीं समझते कि पैसा सीमित होता है, जबकि यह अडल्ट लाइफ का सबसे बड़ा सबक होना चाहिए।

यह समझना गलत होगा कि बच्चे खुद ही घर से जुड़े खर्च को संभालना सीख जाएंगे। इसमें कई पहलुओं के बीच तालमेल बिठाना पड़ता है, जिन पर बच्चों का कोई कंट्रोल नहीं होता। अच्छा यही होगा कि आप बच्चे को तय रकम दें और अपनी जरूरत इससे पूरी करने को कहें। इससे उसे कई जरूरतों के बीच तालमेल बिठाने का सबक सीखने को मिलेगा। अगर आप बच्चे के लिए अलग से पैसे खर्च कर रहे हैं तो उसमें उसे शामिल करें। आप बच्चे को अपनी बर्थडे पार्टी का बजट मैनेज करने दें। इससे उसे ऑपर्च्युनिटी कॉस्ट की जानकारी मिलेगी।

इमोशनल इंटेलिजेंस के सबक पैसे खर्च करने से जुड़े फैसलों से सीखे जा सकते हैं। पर्याप्त पैसा न होने पर किसी खर्च को टालना एक महत्वपूर्ण स्किल है। एडल्ट लाइफ में क्रेडिट कार्ड पर डिफॉल्ट आमतौर पर वैसे बच्चे करते हैं, जिनकी हर जिद पूरी होती आई है। वे किसी खर्च को टाल नहीं पाते।

पैसों के बारे में सबसे गंभीर सबक उसकी टाइम वैल्यू से जुड़ा है। किस तरह से महंगाई दर से पैसों की वैल्यू कम होती है और कैसे निवेश के जरिये इसे बढ़ाया जा सकता है, यह समझ बहुत जरूरी है। अगर आपको बच्चे को कुछ सिखाना ही है तो इसके कॉन्सेप्ट, साइंस को उदाहरण देकर समझाइए।

साभार- इकॉनामिक टाईम्स से

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