आज के अर्थ-प्रधान और भौतिक युग में किसी भी भाषा का सम्मान उसका साहित्य और उसके प्रति हमारी अत्यधिक भावुकता नहीं वरन रोज़गार देने की उसकी क्षमता निर्धारित करेगी। आज की युवा पीढ़ी में हिंदी के प्रति जो उदासीनता और अंग्रेजी के प्रति जो झुकाव देखने को मिलता है, वह अकारण नहीं है। व्यावहारिक दृष्टि से विचार करें तो हिंदी में कविता-कहानी के अलावा कुछ भी काम का नहीं लिखा गया ।इसका एक कारण यह भी है कि हिंदी भाषियों ने कुछ नया तो किया नहीं है। चाहे विज्ञान हो, तकनीकी ज्ञान हो,चिकित्सा-शास्त्र या फिर भाषा-विज्ञान, समाज-शास्त्र या अर्थ-शास्त्र, इन सभी क्षेत्रों में पश्चिमी देशों में किये गए नए शोध या सिद्धांतों को ही भारत में सिखाया-पढ़ाया जाता रहा है।
अगर हमारे युवा-छात्र विज्ञान, मेडिकल, इंजीनियरिंग, प्रबंधन, विधि आदि की पढ़ाई करना चाहते हैं तो अंग्रेजी जाने बिना उनके पास कोई चारा नहीं है। विधि के अलावा इन विषयों पर हिंदी में ढंग से लिखी पुस्तकें हैं ही नहीं। विधि की भी जो किताबें हिंदी में उपलब्ध हैं उनका अनुवाद इतना जटिल और दुरूह है कि अंग्रेजी की किताबें पढ़ लेना विद्यार्थी को ज्यादा सुविधजनक लगता है। आज तक अंग्रेजी के वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दों का ठीक से हिंदी अनुवाद तक हम नहीं करा सके हैं । अनुवादकों द्वारा अंग्रेजी के तकनीकी शब्दों के जैसे अनुवाद गढ़े गए हैं, उन्हें देख-पढ़कर अजीब-सा लगता है। जब तक अनुवाद मूल जैसा और पठनीय न बन पड़े तब तक उस अनुवादित पुस्तक को खरीदने वाला कोई नहीं मिलेगा।इसके लिए अच्छे अनुवादकों का विषयवार एक राष्ट्रीय पैनल बनना चाहिए।ग्रन्थ अकादमियों की पुस्तकों के अनुवाद डिक्शनरियों के सहारे हुए हैं।शब्द के लिए शब्द,बस।संबंधित विषय का सम्यक ज्ञान होना,स्वयं एक अच्छा लेखक होना,दोनों भाषाओं पर पकड़ होना आदि एक अच्छे अनुवादक की विशेषतायें होती हैं।संगीतशास्त्र की पुस्तक का अनुवाद संगीत जानने वाले हिंदी विद्वान से ही कराया जाना चाहिए।नहीं कराएंगे तो पुस्तक स्टोर में दीमक का शिकार बनेगी ही।
विज्ञान, मेडिकल, इंजीनियरिंग, प्रबंधन आदि विषयों में जब तक मूल-लेखन सामने नहीं आएगा,हिंदी का भविष्य सुधरेगा नहीं। हिंदी-प्रेमियों अथवा हिंदी-आयोजकों को इस मुद्दे पर हिंदी-पखवाड़े,हिंदी सप्ताह,हिंदी दिवस आदि के दौरान इस विषय पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।भाषण देने या फिल्म देखने के लिए हिंदी ठीक है,मगर अच्छी नौकरियों के लिए अब भी अंग्रेजी का दबदबा बना हुआ है।इस दबदबे से कैसे मुक्त हुआ जाए? हिंदी दिवस से जुड़े आयोजनों के दौरान इस मुद्दे पर भावुक हुए विना विचार-मंथन होना चाहिए।
वस्तुस्थिति यह भी है कि हममें से ‘हिंदी हिंदी’ करने वाला शायद ही कोई व्यक्ति होगा जो अपनी संतानों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में न पढ़ाना चाह रहा हो।अगर अगले एक-दो दशकों में हिंदी को विज्ञान, तकनीकी शिक्षा और रोज़गार की भाषा के रूप में स्थापित नहीं किया जा सका तो आने वाली पीढ़ियां इसे मात्र साहित्यकारों और भाषणबाज़ों की भाषा कहकर हाशिये पर डाल देगी।
डॉ. शिबन कृष्ण रैणा
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