मैं जरूर मृत्यु सिखाता हूं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं जीवन का विरोधी हूं। इसका मतलब ही यह है कि जीवन को जानने का, जीवन को पहचानने का द्वार ही मृत्यु है। इसका मतलब यह है कि मैं जीवन और मृत्यु को उलटा नहीं मानता। चाहे मैं उसको मृत्यु की कला कहूं, चाहे जीवन की कला कहूं दोनों बातों का एक ही मतलब होता है। यह किस तरफ से हम देखते हैं। तो आप पूछेंगे कि मैं उसे जीवन की कला क्यों नहीं कहता हूं? कुछ कारण हैं, इसलिए नहीं कहता हूं।
पहली तो बात यह है कि हम सब जीवन के प्रति अति मोह से भरे हुए हैं। वह अनबैलेंस्ट हो गया है मोह। अति मोह से भरे हुए हैं जीवन के प्रति। मैं जीवन की कला भी कह सकता हूं, लेकिन नहीं कहूंगा आपसे, क्योंकि आप जीवन के अति मोह से भरे हुए हैं। और जब मैं कहूंगा कि जीवन सीखने आयें, तो आप जरूर भागे हुए चले आएंगे, क्योंकि आप अपने जीवन के मोह को और परिपुष्ट करना चाहेंगे।
इसलिए मैं कहता हूं मृत्यु की कला। और इसलिए कहता हूं ताकि आप बैलेंस, संतुलन पर आ जाएं। आप मरना सीख लें, तो जन्म और मृत्यु बराबर खड़े हो जाएं, दाएं और बाएं पैर बन जाएं। तो आप परम जीवन को उपलब्ध हो जाएंगे। परम जीवन में न जन्म है, न मृत्यु है; लेकिन परम जीवन के दोनों पैर हैं, जिनको हम जन्म कहते हैं और मृत्यु कहते हैं।
हाँ अगर कोई गांव ऐसा हो, जो सुसाइडल हो, ऐसा कोई गाव हो जहां सारे लोग मरने के मोही हों, जहां कोई आदमी जीना न चाहता हो, तो वहां मैं जाकर मृत्यु की कला की बात नहीं कहूंगा। वहां जाकर मैं कहूंगा कि जीवन की कला सीखें, आयें हम जीवन की कला सीखें। और उनसे मैं कहूंगा कि ध्यान जीवन का द्वार है, जैसा मैं आपसे कहता हूं कि ध्यान मृत्यु का द्वार है। उनसे मैं कहूंगा, आओ, जीना सीखो, क्योंकि अगर तुम जीना न सीख पाओगे तो मर भी न पाओगे। अगर तुम मरना चाहते हो, तो मैं तुम्हें जीवन की कला सिखाता हूं। क्योंकि तुम जीना सीख जाओगे तो मरना भी सीख जाओगे। तभी वे आयेंगे उस गांव के लोग।
आपका गांव उलटा है। आप दूसरे उलटे गांव के निवासी हैं, जहां कोई मरना नहीं चाहता, जहां सब जीना चाहते हैं और जीने को इतने जोर से पकड़ना चाहते हैं कि मृत्यु आए ही नहीं। तो इसलिए मजबूरी में आपसे मरने की बात करनी पड़ती है। यह सवाल मेरा नहीं है, आपकी वजह से मृत्यु की कला मैं कह रहा हूं। मैं निरंतर एक बात कहता रहा हूं।
बुद्ध ने एक दिन एक गांव में प्रवेश किया। सुबह ही सुबह है, अभी सूरज निकल ही रहा है। और एक आदमी उनसे मिलने आया और उसने कहा, सुनिए, मैं नास्तिक हूं, मैं ईश्वर को नहीं मानता हूं। आपका क्या खयाल है, ईश्वर है? बुद्ध ने कहा, ईश्वर है! ईश्वर है ही नहीं, सिर्फ ईश्वर ही है, और कुछ भी नहीं। उस आदमी ने कहा, मैंने तो सुना था कि आप नास्तिक हैं। बुद्ध ने कहा, तुमने गलत सुना होगा। अब तो तुमने मुझसे सुन लिया न! मैं महा आस्तिक हूं। ईश्वर है, उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। वह आदमी बेचैन—सा वृक्ष के नीचे खडा रह गया। बुद्ध आगे बढ़े।
दोपहर को एक आदमी और आया और उस आदमी ने कहा कि मैं आस्तिक हूं, मैं परम आस्तिक हूं मैं नास्तिकों का दुश्मन हूं। मैं आपसे पूछने आया हूं कि ईश्वर के संबंध में आपका क्या खयाल है? बुद्ध ने कहा, ईश्वर? न है, न हो सकता है। ईश्वर है ही नहीं। उसने कहा, क्या कह रहे हैं आप? मैंने तो सुना था कि एक धार्मिक आदमी गांव में आया है, तो मैं पूछने आया था कि ईश्वर है, और आप यह क्या कह रहे हैं? बुद्ध ने कहा, धार्मिक? आस्तिक? मैं महा नास्तिक हूं। वह आदमी बेचैन—सा खड़ा रह गया।
लेकिन इनकी बेचैनी तो ठीक थी। बुद्ध के साथ एक भिक्षु था आनंद। उसके तो प्राण संकट में पड़ गए। उसने दोनों बातें सुन ली थीं। अब वह बेचैन हुआ कि यह तो बड़ी मुश्किल हो गई, मामला क्या है? सुबह तक बात ठीक थी, दोपहर में बात मुश्किल हो गई। यह बुद्ध को हो क्या गया है? सुबह कहते हैं महा आस्तिक, दोपहर कहते हैं महा नास्तिक। सोचा, सांझ जब सब लोग चले जाएंगे, तो पूछ लूंगा। लेकिन सांझ को और मुश्किल हो गई।
एक आदमी और सांझ होते —होते आया और उसने बुद्ध से पूछा कि मुझे कुछ समझ में नहीं आता कि ईश्वर है या नहीं। वह आदमी एगनॉस्टिक रहा होगा, अज्ञेयवादी रहा होगा, जो कहते हैं हमें पता नहीं, ईश्वर है या नहीं। और किसी को पता नहीं, और कभी पता नहीं हो सकता। उसने कहा, कुछ पता ही नहीं है, है या नहीं। आप क्या कहते हैं? आपका क्या खयाल है? बुद्ध ने कहा, जब तुम्हें भी पता नहीं है तो मुझे भी पता नहीं है। और अच्छा हो कि इस संबंध में हम चुप रह जाएं। वह आदमी भी हैरान रह गया। उसने कहा, मैंने तो सुना था कि आपको ज्ञान हो गया है, आपको पता हो गया। बुद्ध ने कहा, वह गलत सुना होगा। मैं तो परम अज्ञानी, मुझे कैसा ज्ञान?
आनंद की मुसीबत समझें आप, अपने को रख लें आनंद की जगह। कैसी मुश्किल में पड़ गया! रात हो गई, सब लोग चले गए। आनंद ने बुद्ध के पैर पकड़ लिये। उसने कहा, मेरी जान लेंगे आप? क्या करते हैं? मेरी फांसी लग गई। आज दिन भर से मैं इतना बेचैन हूं जितना जिंदगी में कभी भी नहीं था। आप कहते क्या हैं? आप कर क्या रहे हैं? आप होश में हैं? आप बोल क्या रहे हैं? सुबह कुछ, दोपहर कुछ, सांझ कुछ। आपने तीन उत्तर दे दिए। बुद्ध ने कहा, तुझे तो मैंने कोई उत्तर नहीं दिया था। जिन्हें दिया था, उन्हें दिया था। तूने सुना क्यों? दूसरे की बात सुननी उचित है? मेरी उनसे बात हो रही थी, तूने सुना क्यों? उसने कहा, और मुश्किल देखिए! मैं मौजूद था, कान तो बंद नहीं किए हुए था, सुनाई पड़ गया। और आप बोलें और सुनने का मन न हो? होगा पाप, लेकिन आप बोलें तो सुनने का मन होता है, किसी से भी बोलें। बुद्ध ने कहा, तुझे मैंने कोई उत्तर न दिया था। आनंद ने कहा, न दिया होगा, लेकिन मैं मुश्किल में पड़ गया हूं। मुझे उत्तर दें, अब दे दें। सच क्या है? और आपने ऐसी तीन बातें क्यों कहीं?
बुद्ध ने कहा, तीनों को संतुलन पर लाना था, बैलेंस पर। सुबह जो आदमी आया था, वह नास्तिक था और अकेला नास्तिक अधूरा है। क्योंकि जिंदगी विरोध से मिलकर बनी है।
यह समझ लेना आप कि जो सच में धार्मिक आदमी है, उसमें दोनों ही बातें होती हैं। वह एक तरफ से नास्तिक भी होता है, दूसरी तरफ से आस्तिक भी होता है। उसके दोनों ही पहलू होते हैं। और उन दोनों के विरोध के बीच वह सामंजस्य बना लेता है। उसी सामंजस्य में धर्म है। और जो सिर्फ आस्तिक है, वह अभी अधूरा धार्मिक है। अभी वह धार्मिक हुआ नहीं, अभी जिंदगी का संतुलन आया नहीं, अभी बैलेंस आया नहीं।
तो बुद्ध ने कहा, उसे बैलेंस में लाना था। उसका एक पलड़ा बहुत भारी हो गया था, इसलिए दूसरे पलड़े पर मुझे पत्थर रख देने पड़े। और फिर मैं उसे बेचैन भी कर देना चाहता था, क्योंकि वह कहीं निश्चित हो गया था कि बस नहीं है। उसके निश्चय को डिगा देना जरूरी था। क्योंकि जो निश्चित हो जाता है, वह मर जाता है। यात्रा जारी रहनी चाहिए जिज्ञासा की। दोपहर जो आदमी आया था, वह आस्तिक था। तो उससे मुझे कहना पड़ा कि मैं नास्तिक हूं। क्योंकि उसका पलड़ा भी बहुत भारी हो गया था, वह भी असंतुलित हो गया था। जिंदगी है संतुलन। बुद्ध ने कहा, संतुलन को जो पा लेता है, वह सत्य को पा लेता है।