Tuesday, November 19, 2024
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पुस्तकें गुणवत्तापूर्ण और तथ्यात्मक हो तो बिकती हैं

भोपाल। यह सही नहीं है कि पुस्तकें बिक नहीं रही हैं। पुस्तकें तथ्यात्मक एवं गुणवत्तापूर्ण हो तो लोग पढ़ते हैं। जरूरत इस बात की है कि लेखन और प्रकाशन का स्तर आसान और सुलभ हो। विदेशों में खासतौर से गिरमिटिया देशों में हिन्दी पुस्तकों के प्रति रुझान बढ़े, इसके लिये विशेष प्रयास करना होंगे और उन्हें सुविधाएँ देना होंगी। दसवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में ‘देश और विदेश में प्रकाशन समस्याएँ एवं समाधान’ विषय पर हुई चर्चा में वक्ताओं ने यह विचार रखे।

सत्र के अध्यक्ष नेशनल बुक ट्रस्ट के अध्यक्ष श्री बलदेव भाई शर्मा ने कहा कि हमारा देश दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा प्रकाशक देश है। यहाँ प्रतिवर्ष एक लाख शीर्षक की पुस्तकें छपती हैं। उन्होंने कहा कि इस रुचि-रुझान को और अधिक बढ़ाने की जरूरत है। यह कहना गलत है कि हमारे देश में हिन्दी और भारतीय भाषाओं की पुस्तकों के पाठक कम हो रहे हैं। उन्होंने कहा कि हरेक व्यक्ति की भागीदारी से ही हम हिन्दी को समृद्ध बना सकते हैं। श्री शर्मा ने कहा कि पुस्तक प्रकाशन से बहुत सारी चीजें जुड़ी हुई हैं। गुणवत्तापूर्ण, तथ्यात्मक, बेहतर विपणन, अच्छा मुद्रण हो तो हम बाजार में हिन्दी पुस्तकों को बेहतर ढंग से प्रचारित और प्रसारित कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि छपी हुई पुस्तकों का महत्व कभी नहीं घटेगा। हमें निराश होने की जरूरत नहीं है। उन्होंने कहा कि पुस्तक प्रकाशन कारोबार का विषय नहीं है, यह सांस्कृतिक चेतना का सशक्त संवाद है।

मॉरिशस से आये श्री राजनारायण गति ने विदेश में रहने वाले हिन्दी लेखकों को भारत में उपलब्ध सुविधाएँ विषय पर कहा कि गिरमिटिया देशों के लेखकों के सामने प्रकाशन और इसके विक्रय की बड़ी चुनौतियाँ हैं। उन्होंने बताया कि वर्तमान में इन देशों में लेखक खुद ही प्रकाशक, प्रचारक और विक्रेता हैं। उन्होंने कहाकि भारत सरकार को इन देशों में हिन्दी में लिखी जा रही पुस्तकों के प्रकाशन में भारत में उपलब्ध सुविधाएँ देने पर गंभीर प्रयास करना होंगे। उन्होंने कहा कि भारतीय मूल के बच्चों में हिन्दी के प्रति रुचि बढ़े, इन प्रयासों में भी सहयोग की जरूरत है।

भारतीय प्रकाशक परिसंघ के अध्यक्ष श्री अशोक गुप्ता ने कहा कि जिस तरह ब्रिटेन और अमेरिका ने हमारे देश में पुस्तकालय स्थापित किये हैं, ऐसे ही पुस्तकालय विदेशों में भारत की तरफ से खोले जायें, ताकि वहाँ रह रहे प्रवासी भारतीयों को हिन्दी की पुस्तकें पढ़ने को मिल सकें। उन्होंने इस दिशा में भी प्रयास की आवश्यकता बतलायी कि विदेशों में रह रहे भारतीय वहाँ के पुस्तकालय में हिन्दी पुस्तकों की माँग करें, ताकि वे लोग भारतीय भाषाओं की पुस्तकें रखें। उन्होंने स्कूली पाठ्यक्रम में भी प्रतिवर्ष हिन्दी पुस्तक को शामिल करने का सुझाव दिया ताकि बच्चों में हिन्दी के प्रति लगाव पैदा हो। श्री गुप्ता ने पुस्तक निर्यात की लागत को कम करने की दिशा में भी विचार करने पर बल दिया, जिससे विदेशों में लोगों को सस्ती कीमत पर हिन्दी की पुस्तकें मिल सकें। उन्होंने पुस्तक प्रकाशन पर लगने वाले कर को भी कम करने का सुझाव दिया। श्री गुप्ता ने कहा कि इसके साथ यह भी जरूरी है कि लेखक अपनी पुस्तक के प्रचार-प्रसार की रणनीति भी बनाये और इसमें आधुनिक संसाधनों का उपयोग करें।

झारखण्ड से आयी कथाकार डॉ. ऋता शुक्ल ने हिन्दी पर गाँव-गाँव में कार्यशाला करने पर बल दिया। उन्होंने कहा कि पुराने समय में यह परम्परा थी कि गाँव के चौपाल पर चर्चाएँ होती थीं। इस परम्परा को जीवित करने का हमें प्रयास करना चाहिये। उन्होंने स्कूलों में भी बच्चों में प्रारंभ से ही हिन्दी पढ़ने-लिखने के प्रति रुचि पैदा करने पर बल दिया। सत्र का संयोजन श्री प्रभात कुमार ने किया।

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