राजनांदगाँव। शासकीय दिग्विजय महाविद्यालय के हिन्दी विभाग के प्राध्यापक डॉ.चन्द्रकुमार जैन ने बताया कि अपनी ज़िन्दगी के सबसे बेशकीमती वर्ष संस्कारधानी राजनांदगाँव को देने वाले गजानन माधव मुक्तिबोध की कविता अँधेरे में दरअसल लोकतंत्र के अंधेरों की पड़ताल और पहचान से जनमानस को रूबरू करवाने वाली अनोखी रचना है। जब इसकी रचना हुई थी तब शायद ये संभावना और आशंका की कविता रही होगी, लेकिन डॉ .जैन का कहना है कि आज ये वास्तविकता की गवाह है। वे मुक्तिबोध की लंबी कविता के मर्म पर अपना वक्तव्य दे रहे थे।
डॉ.जैन ने जानकारी दी कि अँधेरे में जैसी सर्वाधिक चर्चित कविता का सम्बन्ध मुक्तिबोध के नागपुर और राजनांदगांव के दरम्यानी जीवन क्रम से जुड़ा है। यह कविता आज के समय की जटिलताओं और विडंबनाओं को कहीं बेहतर ढंग से उजागर करती है। ‘अंधेरे में’ ऐसी कविता है, जिसे सामने रखकर राजनीति और कला तथा विभिन्न कलाओं के बीच के अंतर्संबंधों और विरोधाभासों को समझा जा सकता है। ये कविता अँधेरे की जड़ों तक पहुंचाती है। मुखौटों और दोहरे चरित्रों को बेनकाब करती है। यह कविता जीवन और जगत के तरह-तरह के अंधेरों की गहन पड़ताल करती है, जिससे मानवता के सामने मुंह बाए खड़े अनगिन प्रश्नों को समझने और उनसे झूझने की ताकत भी मिलती है।
डॉ .जैन के मुताबिक़ अँधेरे में, सोच और स्वप्न के साथ-साथ मानवता के स्थायी मूल्यों के निर्माण की कविता है। वह परम अभिव्यक्ति की अंतहीन खोज की कविता है। हर तरह के अंधकार से टकराने के जीवट की कविता है। साथ ही ‘अँधेरे में’ ही वह मशाल भी है, जो हमें अँधेरे के पार ले जा सकती है। लेकिन, मुक्तिबोध जी के ही शब्दों में अभिव्यक्ति के खतरे उठाकर ही उस अँधेरे के पार पहुंचा जा सकता है।
डॉ.जैन कहते हैं कि यह सचमुच बड़ी बात है कि अपने समय से बहुत आगे की बात लिखने वाले मुक्तिबोध जैसे सर्जक का साथ संस्कारधानी राजनांदगांव और छत्तीसगढ़ को मिल सका। इतना ही नहीं उनकी सर्वश्रेष्ठ रचनाओं के सृजन का सम्बन्ध भी हमारी भूमि से जुड़ा है। अंधेर और अँधेरे के अचूक उद्घाटक मुक्तिबोध न कभी झुके और न ही टूटे। दरअसल जो औरों के लिए विष था उसे अपने लिए अन्न मानने वाले मुक्तिबोध सहने और कहने की दूरियां मिटाने में जीवन भर संघर्षरत रहे। यही साहस उनकी कला के बेजोड़पन की भी पहचान है।