कहां गए वो लोग? कोई हंसा क्यों नहीं पाता? अपशब्दों से भरे, प्रदूषण फैलाते कुछ विकृत जुमले अब हास्य कहे जा रहे हैं। जिन शो की काफी चर्चा हो रही है, उनमें भी बस किसी तरह, किसी न किसी का अपमान करने की एक भद्दी होड़ मची हुई है।’ हिंदी अखबार दैनिक भास्कर में छपे अपने आलेख के जरिए ये कहना है वरिष्ठ पत्रकार और दैनिक भास्कर के ग्रुप एडिटर कल्पेश याज्ञनिक का। उनका पूरा आलेख आप यहां पढ़ सकते हैं:
कल्पेश याग्निक का कॉलम: मैं हंसना चाहता हूं ; किन्तु आप तो रुला रहे हैं- बल्कि घृणा फैला रहे हैं।
kalpeshअपनी कुंठा को हास्य, हीनता को व्यंग्य और बौद्धिक आलस्य को कॉमेडी बनाकर पेश कर रहे कुछ अति-चालाक लोग, खूबसूरत जिंदगी को कुरूप बनाने पर तुले हैं।
‘यदि आप लोगों से सच ही बोलना चाहते हैं – तो उन्हें हंसाइए। वरना वे आपको मार डालेंगे।’-जॉर्ज बर्नाड शॉ
कॉमेडी अब बुरी तरह डरा देती है। हास्य क्रूर मजाक बन गया है। व्यंग्य, वीभत्स होते जा रहे हैं। कटाक्ष का उद्देश्य, व्यवस्था पर चोट पहुंचाने की बजाए, किसी के दिल पर चोट करना हो गया है।
इसीलिए, पहले आती थी – अब किसी बात पर नहीं आती। शीर्षक था : हंसी। कितना सटीक। प्रासंगिक। किन्तु जीने के लिए हंसना आवश्यक है। वैसे, जीना पूरा तो तब होगा जब हम रोएंगे। किन्तु जीवन का सार इसी में है कि रोने के करोड़ों पल में हम हंसने का समय निकाल पाए या नहीं?
मुझे कभी समझ में नहीं आता था कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी सब बच्चे कॉमिक्स, कार्टून और फिर विडियो गेम्स से ही मनोरंजन क्यों करते हैं? अमेरिका में मेरे सबसे छोटे भाई की चार साल की बेटी कुछ खाती ही नहीं थी। विनी द पूह देखकर कुछ खा लेती। एक बार मैंने ध्यान से देखा -विनी का पेट शहद खाते-खाते फूलता जा रहा था -बच्ची हंसते-हंसते दोहरी होती जा रही थी। फिर इतना फूल गया कि बाहर ही न निकल पाया- तो बच्ची रोने लगी! तब पता चला कि वॉल्ट डिज्नी क्यों विश्व की उन महान हस्तियों में हैं, जिन्होंने मानव मन की थाह पहचानी। अबोध बच्चे से लगाकर वयोवृद्ध तक, सभी हंसना चाहते हैं।
इसीलिए तो हार्वर्ड का सर्वे कहता है कि मोबाइल फोन से शेयर की जाने वाली सामग्री में 73% ह्यूमर है।
हम सब हंसना चाहते हैं। किन्तु हमें हंसाने वाले चाहिए। क्योंकि हम अभी इतने आत्म-निर्भर नहीं हुए हैं कि खुद से हंस सकें। स्वयं हंसने के लिए एक स्वाभाविक, नैसर्गिक गुण चाहिए। बिरलों में होता है। लाया नहीं जा सकता। और उसके लिए चाहिए माद्दा। क्योंकि खुद की कमजोरियों पर हंसना पड़ेगा।
हास्य (ह्यूमर), व्यंग्य (सटायर) आयरनी (विडंबना) विट (चातुर्य), कॉमेडी (प्रहसन/स्वांग/विनोदपूर्ण प्रस्तुति) इसलिए अनेक रूपों में हमारे गिर्द उपस्थित होती है। हम कभी अपने से इन्हें अपनाते हैं। कभी यह स्वत: उत्पन्न हो जाती है। कभी – या कि अधिकतर हम पर थोप दी जाती है।
मेरा बचपन प्रेमचंद की ‘बड़े भाई साहब’ पढ़कर शुरू हुआ। चूंकि वो व्यंग्यपूर्ण कहानी मुझ पर वास्तव में लागू भी हो रही थी, इसलिए मैं उससे तत्काल जुड़ गया। किन्तु आवश्यक नहीं कि जो हमें पसंद आने लगे – वो हास्य-व्यंग्य वास्तव में हम पर ख़रा उतरता हो। चूंकि न तो शेक्सपीयर की ‘कॉमेडी ऑफ एरर्स’ में हम कहीं हो सकते हैं, न ही उस पर बनी किशोर कुमार की फिल्म ‘दो दूनी चार’ या संजीव कुमार की ‘अंगूर’ में।
फिल्मों ने हमारी जिंदगी को भरपूर हास्य भरा है। और भौंडे हास्य से वितृष्णा भी पैदा की है। इसे फिल्मकारों का चमत्कार ही कहा जाना चाहिए कि उन्होंने साधारण चुटकुलों को विकसित कर अविस्मरणीय बना दिया। दृश्य-संवाद और अभिनय भर कर।
‘शोले’ के सभी हास्य कलाकार या कि सुपर सितारे – ऐसे ही कालजयी बने।
काल को खंडित कर सके – वही सच्चा हास्य।
किताबों को समर्पित जिंदगी जीने वाले मेरे ससुर विष्णु शंकर नागर ने उदयपुर के ऑपरेशन थियेटर में जाने से पहले, मुझे पहले तो फ्रांसिस बेकन के ‘ऑफ स्टडीज़’ निबंध की कुछ पंक्तियां सुनाईं। फिर ऑस्कर वाइल्ड की ‘इंम्पॉर्टेन्स ऑफ बीइंग अर्नेस्ट’ का हास्य सुनाया। ये उनकी अंतिम पंक्तियां रहीं। ऐसा तो हंसाने वाले और ऐसे तो हंसने वाले। बस, रुला ही दिया।
कहां गए वो लोग? कोई हंसा क्यों नहीं पाता? अपशब्दों से भरे, प्रदूषण फैलाते कुछ विकृत जुमले अब हास्य कहे जा रहे हैं। जिन शो की काफी चर्चा हो रही है, उनमें भी बस किसी तरह, किसी न किसी का अपमान करने की एक भद्दी होड़ मची हुई है। पसंद किए जा रहे होंगे – किन्तु संभवत: यह आयरनी है हमारी। सभ्य समाज की। जो उल्टा हो जाए, वह आयरनी। जैसे कि प्राण का वह संवाद : तुमने ठीक ही सुना है, चोरों के ‘ही’ कुछ उसूल होते हैं। तो वही उल्टा हो रहा है। हंसाने वाले बस, पैसे-प्रसिद्धि और प्राइम टाइम कमाने के एक विचित्र चक्र में फंसकर, दर्शकों को त्रस्त कर रहे हैं।
कुछ, या कि काफी कुछ, ऐसे भी होंगे जिन्हें मात्र मनोरंजन चाहिए। वे इसे ‘दिमाग़ क्यों लगाना?’ वाली श्रेणी में रखते हैं। एकदम सही है। हास्य तो है ही दिल से निकलने वाली बात। इसमें दिमाग़ आ कहां से गया? यानी ‘माइंडलेस, अनइंटरप्टेड एंटरटेनमेन्ट’ वाले दर्शकों-श्रोताओं-पाठकों की ही बात को सिद्ध करते हुए पूछना चाहता हूं कि यह कमेडियन या सटायरिस्ट की स्वाभाविक क्रिया क्यों नहीं है? और, चूंकि सहज नहीं है, इसीलिए मनोरंजन नहीं कर पाती।
आज मनोरंजन का विराट कैनवस, फिल्म और लेखन से कहीं आगे टीवी और उससे करोड़ों कोस आगे स्मार्टफोन स्क्रीन पर पसरा पड़ा है। कल तक हरिशंकर परसाई ही थे। और उनका ‘कबिरा खड़ा बाजार में’ था। शरद जोशी ही थे। और ‘प्रतिदिन’ पढ़े जाते थे। हास्य और व्यंग्य को एक कर, समाचारों से, समाज से जोड़ा जा रहा था। याद रहते थे। यादगार बन गए।
आज इंटरनेट पर वे भी मिलते हैं। उनके बाद के भी सब मिलते हैं। लोगों ने चाव से अपलोड कर रखे हैं। और यूट्यूब ने सबको जीवंत बनाए रखा है।
किन्तु इसी इंटरनेट पर वो भयावह विकृती, कॉमेडी के नाम पर पेश की जा रही है। प्रकृति की दया है कि यह अधिकार पूर्णत: लोगों के पास सुरक्षित है कि उसे देखें, न देखें।
भारतीय हास्य-व्यंग्य कला के आरंभिक लोकप्रिय हस्ताक्षर पं. बालकृष्ण भट्ट ने ‘दिल बहलाव के जुदे-जुदे तरीके’ में एक सशक्त बात लिखी थी :
काव्यशास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमताम।
व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा।
अर्थात बुद्धिमानों का समय (काव्य) पढ़ने-पढ़ाने में आनंद से बीतता है। बुद्धिहीन, दुर्व्यसन और सो कर प्रसन्न होते हैं – समय नष्ट करते हैं।
इतने बरसों पहले पं. भट्ट ने यह व्यंग्य लिखा था कि दिल बहलाने के सभी के तरीके अलग होते हैं। संभवत: अब यही कारण है कि हंसाने वालों ने अलग-अलग पसंद खोजकर, अलग-अलग हास्य रचनाएं, भंगिमाएं, भूमिकाएं करने का परिश्रम बंद कर दिया। और अपशब्दों, आपत्तिजनक मुद्राओं, विवाद पैदा कर, प्रचार बढ़ाने वाले विषयों को चुनना शुरू कर दिया।
तिस पर बड़े-बड़े लोगों, प्रसिद्ध व्यक्तित्वों पर निकृष्ट शब्दावली का प्रयोग, प्रचलित कर दिया। चूंकि मनुष्य है – तो दो मत हैं। चूंकि चार ब्राह्मण हैं – तो पांच चूल्हे होंगे। चूंकि टीवी है – तो आठ पक्ष-विपक्ष चेहरे हैं। चूंकि सोशल मीडिया है – तो करोड़ों विचार हैं। कई लाख छद्म, अलग होंगे।
क्योंकि ट्रॉलिंग के लिए सबके पास समय कहां। इसलिए, आपका विचार, कोई और डाल देगा। सोशल बूथ कैप्चरिंग! गोलमाल है।
इतना, कि व्यंग्य की सर्वाधिक सशक्त विधा- कार्टून- ही लुप्तप्राय हो रही है। कहने को वाट्सएप पर दिन में पचास कार्टून-जैसा ही कुछ-कुछ शेयर किया जा रहा है। किन्तु कहां वो दृष्टि रखने वाले कॉर्टूनिस्ट? और कहां वो नई दृष्टि देने वाले कॉर्टून? सब कुछ तो गुम हो रहा है।
बूढ़ों जैसी बात कर रहा हूं, न मैं? ऐसा तो वो कलाकार कहते हैं जो पूछे नहीं जाते। वे ‘वो भी क्या जमाना था…’ की बेसुरी धुन बजाते रहते हैं। खुशी है कि मैं व्यंग्यकार नहीं हूं। -दुख है कि क्यों नहीं हूं? हंसी ढूंढ़ने तो नहीं जाना पड़ता।
धुन कितनी भी बेसुरी क्यों न हो, कर्कश शोर से तो बेहतर ही होगी।
इसलिए, हास्य-व्यंग्य-कॉमेडी, उस नए-नए तरह से ऊंचे स्तर पर न भी ले जा सकें – तो कम से कम कर्कश और कलहपूर्ण वातावरण पैदा होने से तो रोकें। कॉमेडी का अर्थ दूसरों के लिए ट्रैजेडी नहीं है।
न ही यह निरुद्देश्य है।
हास्य-व्यंग्य का स्पष्ट उद्देश्य है – मानवीय कमजोरियों को उजागर करना, अनैतिक पर हमला करना और कुल जमा सच्चा, अच्छा संसार रचे, ऐसा परिवर्तन लाना।
किन्तु कभी भी, भूलकर भी ऐसी भारी-भरकम बात किसी को कहना या बताना नहीं। सिर्फ हंसाना।
और कहना – कि उद्देश्य मात्र मनोरंजन है। जब भी वो कहें कि किसी पात्र या घटना का ऐसा होना संयोग या काल्पनिक है -तो मान कर चलिए- मजाक कर रहे हैं!
हमें हमेशा हंसाने वाले, दिल से हंसाने वाले, मिल सकें, असंभव है। किन्तु होते ही होंगे। वे हंसी-हंसाने के काम को अपनाएं- यह आवश्यक नहीं। बल्कि उल्टा है।
जो दिल से हंसा रहे हैं – वे तो इस कारोबार में हैं ही नहीं। फिर कहां हैं? हमारे आस-पास। मित्रों में। शत्रुओं में।
हंसते जख्म। जग हंसाई। हाहा-ठीठी करते। खिल्ली उड़ाते। मखौल बनाते।
स्किट। माइम। एलिगरी। स्वांग। नाटक। नकल। ठगी। धोखा।
और इसलिए चाहिए : हंसना।
ताकि घुटन से हटकर, कुछ पल जी सकें।
इस हंसी को तो गंदा मत कीजिए।
(साभार: दैनिक भास्कर से)