भारत ने अपनी पहली अंतरिक्ष वेधशाला एस्ट्रोसेट का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण कर नया कीर्तिमान स्थापित कर दिया। इस सफलता को पाने में भारत अमरीका, रूस, जापान और यूरोपीय संघ के बाद पांचवां देश बन गया है, इस प्रतिस्पर्धा में भारत ने चीन को पीछे छोड़ दिया है। भारत मंगल ग्रह पर पहुँचने के मामले में भी चीन को पछाड़ चुका है। चीन अभी अपने पहले अतंरिक्ष टेलीस्कोप पर काम ही कर रहा है। नासा की खगोलीय दूरदर्शी हबल की तर्ज पर भारत ने एस्ट्रोसेट का निर्माण किया है और उसके मुकाबले खर्च और वजन दोनों में ही यह बहुत कम है। विशेष बात यह है कि हबल के लिए नासा ने यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी का सहयोग लिया था, जबकि भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने स्वयं के संसाधनों के बल पर ऐसा किया है। इसी के साथ गत 28 सितम्बर को भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान के भी 50 वर्ष पूरे हो गए। इससे पूर्व इसरो ने वर्ष 2010 में एक साथ 10 उपग्रहों का प्रक्षेपण किया था। इस प्रक्षेपण के साथ ही इसरो द्वारा अंतरिक्ष में भेजे गए विदेशी उपग्रहों की संख्या 51 पहुँच गई है।
इस सफलता के साथ ही भारत पहला विकासशील देश बन गया जिसका अंतरिक्ष में अपना टेलीस्कोप होगा। 28 सितम्बर की सुबह 10 बजे प्रक्षेपण यान पीएसएलवी-सी-30 ने उड़ान भरी और 31वीं उड़ान शुरू होने के 22 मिनट 32 सेकेंड बाद एस्ट्रोसेट को कक्षा में स्थापित कर लिया। पीएसएलवी-सी 30 रॉकेट के माध्यम से छोड़ा गया एस्ट्रोसेट अपने साथ छह विदेशी उपग्रह भी लेकर गया है जिनमें चार अमरीकी, एक कनाडा और एक इंडोनेशिया का उपग्रह शामिल है। यह भी पहली बार हुआ है कि जब भारत ने अमरीकी उपग्रह प्रक्षेपित किए। आकाशीय वस्तुओं के अध्ययन के लिए एस्ट्रोसेट का प्रक्षेपण सतीश धवन अंतरिक्ष केन्द्र से किया गया है। इसरो का दावा है कि भारत एस्ट्रोसेट प्रक्षेपण के बाद पहला ऐसा देश है जिसके पास बहु तरंगदैर्घ्य वाला अंतरिक्ष निगरानी उपकरण है, अंतरिक्ष में तीव्र गति से होने वाले परिवर्तनों पर विशेष निगरानी बरतने में सक्षम रहेगा। अभी तक चंद्रयान और मंगलयान के सफल प्रक्षेपण के बाद भी भारतीय अंतरिक्ष मिशन ‘रिमोट सेंसिंग, संचार मैपिंग, नेविगेशन’ आदि तक ही सीमित था, लेकिन एस्ट्रोसेट के प्रक्षेपण के बाद से अब खगोलीय घटनाओं का अध्ययन भी किया जा सकेगा। इससे ‘ब्लैक होल्स’ तारे और आकाशगंगाओं के बनने और उनके नष्ट होने के बारे में भी अध्ययन किया जा सकेगा।