नई दिल्ली। संसदीय प्रणाली बनाम राष्ट्रपति प्रणाली की बहस नई नहीं है। स्वतंत्रता से पहले, स्वतंत्रता के बाद और संविधान अपनाए जाने तक संसदीय शासन प्रणाली की क्षमता पर गहन बहस चलती रही है। संविधान सभा में भी बहुत से सदस्यों ने भारत जैसे बड़े और विविधता वाले देश में संसदीय प्रणाली की सरकार के स्थायित्व को लेकर सवाल उठाये थे। यह बहस अब तक जारी है, पर इससे पहले किसी भारतीय अथवा विदेशी विद्वान ने इस विषय पर इतने उदाहरण अथवा वज़नदार तर्क नहीं दिये थे जैसे कि भानु धमीजा ने सन् 2015 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘‘ह्वाई इंडिया नीड्स दि प्रेजिडेंशल सिस्टम’’ में पेश किये हैं। इस पुस्तक का खूब स्वागत हुआ और पाठकों ने इसे हाथों-हाथ लिया। यह पुस्तक मात्र एक पुस्तक नहीं है बल्कि एक आंदोलन है, इसी बात को ध्यान में रखते हुए लेखक ने ज्यादा बड़े पाठक वर्ग तक पहुंचने के लिए इसका हिंदी संस्करण भी प्रकाशित करने का विचार बनाया। ‘‘भारत में राष्ट्रपति प्रणाली : कितनी जरूरी, कितनी बेहतर’’ उसी सोच का परिणाम है।
प्रभात प्रकाशन द्वारा प्रकाशित (पृष्ठ 280, मूल्य 500 रुपये) इस पुस्तक का लोकार्पण एक विचारोत्तेजक सेमिनार में हुआ। पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं हिमाचल प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री तथा वर्तमान में भाजपा सांसद शांता कुमार ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की जबकि पूर्व विदेश राज्य मंत्री तथा तिरुअनंतपुरम से कांग्रेसी सांसद शशि थरूर मुख्य वक्ता थे तथा नामचीन संविधान विशेषज्ञ एवं लोकसभा के पूर्व महासचिव सुभाष कश्यप भी वक्ताओं में शामिल थे। श्रोताओं की प्रतिक्रिया और भागीदारी लाजवाब थी, यही कारण था कि इस विषय पर ऐसी गहन चर्चा संभव हो सकी।
शशि थरूर ने ज़ोर देकर कहा कि अब सही वक्त है कि हम शासन के अपने वर्तमान तरीके पर फिर से गौर करें। उनका कहना था कि बंद दिमाग और तंग दिमाग वाले समाज का पतन हो जाता है, इसलिए अब हमें खुले दिमाग से सोचना चाहिए। यह सही वक्त है जब हमें सोचना चाहिए कि क्या संसदीय शासन प्रणाली जारी रहे या हम विश्व के सबसे बड़े जनतंत्र की उन्नति के लिए अन्य उपलब्ध बेहतर विकल्पों के बारे में सोचें। ‘‘मैंने तो एक कदम आगे बढ़कर लोकसभा के पिछले सत्र में संविधान संशोधन बिल (सन् 2016 का बिल नंबर 203) पेश किया था जिसमें मेयर के सीधे चुनाव का सुझाव दिया गया था ताकि नगरपालिकाओं के सदस्यों के कर्तव्यों और अधिकारों को स्पष्टतः परिभाषित करना सुनिश्चित हो सके और स्थानीय निकाय ज्यादा प्रभावी और उत्तरदायी बन सकें।’’
शांता कुमार राष्ट्रपति प्रणाली के शासन के बड़े हिमायती के रूप में जाने जाते हैं। उनका कहना था कि केंद्रीय सरकार के पास शक्तियों के अत्यधिक केंद्रीकरण तथा कमजोर राज्यों के कारण हम कई मोर्चों पर असफल हुए हैं और लोगों का विश्वास टूटा है। लोगों में यह धारणा पक्की होती जा रही है कि यह व्यवस्था शक्तिशाली लोगों के पक्ष में है तथा इस प्रणाली में आम आदमी की काबलियत की कोई कीमत नहीं है। ‘‘मैं राष्ट्रपति प्रणाली की हिमायत करता हूं क्योंकि यह राज्यों को शक्ति देता हैं, उन्हें जनआकांक्षाओं की पूर्ति के साधन उपलब्ध करता है, राज्य सरकारों की स्थिरता सुनिश्चित करता है तथा साथ ही उनकी जवाबदेही भी निर्धारित करता है।‘‘
सुभाष कश्यप का कहना था कि इंग्लैंड सरीखे छोटे और न्यूनतम सामाजिक विषमताओं वाले देश के लिए तो संसदीय प्रणाली सही हो सकती है पर जाति, धर्म, संप्रदाय और संस्कृति के नाम पर बंटे हुए भारत जैसे बड़े देश के लिए राष्ट्रपति शासन प्रणाली ज्यादा मुफीद है। भानु धमीजा की पुस्तक पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा कि लेखक ने दर्जनों दस्तावेजों, पुस्तकों और संवैधानिक अभिलेखों की छानबीन की है जिसके परिणामस्वरूप वे संसदीय शासन प्रणाली पर पुनर्विचार के नतीजे पर पहुंचे हैं। यह पुस्तक शोधकर्ताओं के लिए तथ्यों का एक स्वतंत्र स्रोत सिद्ध होगी।
भानु धमीजा का मानना है कि वर्तमान शासन प्रणाली ने हमारी पहलकदमी की क्षमता को खत्म किया है और हमारे नैतिक पतन का कारण बनी है। भारतीय शासन प्रणाली की घोर असफलता ने लेखक को वर्तमान शासन प्रणाली के विरुद्ध मत व्यक्त करने के लिए विवश किया है। यह कहना समीचीन होगा कि यह पुस्तक एक ऐसी शासन प्रणाली की खोज की भूख का परिणाम है जो मानवीय क्षमताओं के पूर्ण दोहन को सुनिश्चित कर सके।
अपनी पुस्तक ‘‘भारत में राष्ट्रपति प्रणालीः कितनी जरूरी, कितनी बेहतर’’ के बारे में बोलते हुए भानु धमीजा ने कहा ‘‘राष्ट्रपति शासन प्रणाली का समर्थन करने वाले अन्य विद्वानों में और मुझमें एक ही अंतर है। मैं 18 लंबे सालों तक अमरीका में रहा हूं। उस दौरान मैंने न केवल अमरीकी शासन व्यवस्था का बारीकी से अध्ययन किया बल्कि उसे स्वयं अनुभव किया। बीस वर्ष पूर्व भारत वापिस आने पर मैंने जब संसदीय प्रणाली की कमियां देखीं तो मैं स्तब्ध रह गया और मैंने कुछ करने का निश्चय किया। सालों के शोध के बाद मैं इस परिणाम पर पहुंचा हूं कि वर्तमान संसदीय प्रणाली न केवल हमारे जैसे बड़े और विविधतापूर्ण देश के लिए अनुपयुक्त है बल्कि हम इसकी कमियों के दुष्परिणाम भुगतने के लिए अभिशप्त हैं। मेरे हर तर्क के पीछे वर्षों का गहन अध्ययन और शोध है।‘‘
भानु धमीजा का स्पष्ट मत है कि सरकारें समाज का चरित्र निर्माण करती हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि देश की राजनीतिक प्रणाली न्यायपूर्ण तथा नागरिकों की भागीदारी प्रोत्साहित करने वाली हो। भारतीय शासन प्रणाली में भ्रष्टाचार का घालमेल अविवेकपूर्ण शक्तियों के कारण संभव हुआ है क्योंकि उन पर अंकुश और संतुलन का कोई साधन नहीं था। अमरीकी शासन प्रणाली के प्रणेता इस मामले में ज्यादा समझदार थे क्योंकि वे जानते थे कि एक हाथ में केंद्रित शक्ति भ्रष्टाचार को जन्म देती है इसलिए सरकार के गठन की रूपरेखा बनाते समय उन्होंने शक्तियों के विकेंद्रीकरण की ओर विशेष ध्यान दिया। वे जैफरसन की एक प्रसिद्ध उक्ति दोहराते हैं कि अच्छी और सुरक्षित सरकार के गठन का मंत्र यह है कि सारी शक्तियां एक ही हाथ में देने के बजाए इसे ज्यादा से ज्यादा लोगों में विभाजित कर दो।
संसदीय प्रणाली में बहुमत प्राप्त दल या गठबंधन अपना नेता चुनता है जो प्रधानमंत्री बनता है। प्रधानमंत्री फिर अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगियों का चुनाव करता है जो सामूहिक उत्तरदायित्व के नियम पर काम करती है। अपनी जिम्मेदारियों के लिए निर्वहन के लिए यह कार्यकारी शक्तियों का इस्तेमाल करती है, लेकिन असलियत यह है कि मंत्रिपरिषद् की सामूहिक जिम्मेदारी स्थितियों पर निर्भर करती है। इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और नरेंद्र मोदी के कामकाज के तरीके ने सिद्ध किया है कि प्रधानमंत्री सर्वशक्तिमान है और मंत्रिपरिषद प्रधानमंत्री के इशारे पर चलती है। संसद की सर्वाच्चता का नियम भी एकदम खोखला है। निजी बिल कानून नहीं बन पाते। सरकार बिल पेश करती है, सत्ताधारी दल अथवा गठबंधन के सदस्य उसके पक्ष में मत देने के लिए विवश हैं जिससे वे सभी बिल पास होकर कानून बन जाते हैं। परिणाम यह है कि किसी शक्तिशाली प्रधानमंत्री के पूरे कार्यकाल में संसद में बिल पेश करने या न करने का निर्णय लगभग हमेशा ही केवल प्रधानमंत्री का ही होता है और संसद की सर्वाच्चता का नियम कागजों में ही सिमट कर रह जाता है। राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में दल-बदल विरोधी कानून पास होने के बाद राजनीतिक दल दल के अध्यक्ष द्वारा पूर्णतः प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों की तरह चलाये जा रहे हैं।
केंद्र सरकार के हाथ में अत्यधिक शक्तियां होने के कारण राज्य शक्तिहीन हो गए हैं। ऐसे में राज्यों को छोटे-छोटे मामलों के लिए भी केंद्र के पास दौड़ना पड़ता है। राज्य के नेता सीधे चुने गए होते हैं और उनका जनता से सीधा संपर्क रहता है लेकिन शक्तिहीनता के चलते वे अप्रभावी हो जाते हैं जो लोकतंत्र का सबसे बड़ा मजाक है।
भानु धमीजा की पुस्तक ‘‘भारत में राष्ट्रपति प्रणाली : कितनी जरूरी, कितनी बेहतर‘‘ हमें सोचने और नये विकल्पों की तलाश के लिए विवश करती है ताकि हम तथ्यों के आधार पर सही निर्णय ले सकें।
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