क्या सिर्फ राष्ट्रपति के एक आदेश संबिधान ( जम्मू कश्मीर को लागु होना) आदेश १९५४ स.आ.४८ मई १४ १९५४ द्वारा संबिधान के अनुच्छेद ३७० के खंड -१ से शक्ति ले कर भारत के संविधान में संशोधन किया जा सकता है इस पर मैंने लगातार पिछले ५ साल से प्रश्न किए हैं .विधि विशेषज्ञों को संबिधान ( जम्मू कश्मीर को लागु होना) आदेश १९५४ स.आ.४८ मई १४ १९५४ कहाँ तक न्याय संगत है इस पर विचार करना होगा . शायद इस से जम्मू कश्मीर सम्बन्धी कई बिवाद हल किए जा सकें.
अनुच्छेद ३७० को अक्सर विवादों के घेरे में धकेला जाता है. पर अनुषेद ३७० के इलाबा भारत के संबिधान में एक और भी अनुषेद है जो कई प्रकार के विवादों के लिए दोषी ठहरैया जा सकता है. और यह है अनुषेद ३५अ . अनुषेद ३७० की सम्बेधानिक वैधयता पर प्रश्न खड़े नहीं किए जा सकते पर अनुषेद ३५अ की सम्बेधानिक वैधयता पर प्रश्न खड़े किए जा सकते हैं और इस पर विचार करने के लिए नयायपालिका की ऊच्तम पीठ को प्रार्थना करने की आवश्यकता आज दिख रही है. आवश्यकता इस में किए गए प्रभ्धानों की वैद्यता की कम और इस अनुच्छेद को संबिधान में डालने की परिक्रिया की बैध्यता का विश्लेषण करने की ज्यादा है.
१९५४ में संबिधान ( जम्मू कश्मीर को लागु होना) आदेश १९५४ स.आ.४८ मई १४ १९५४ राष्ट्रपति द्वारा संबिधान के अनुच्छेद ३७० के खंड -१ में राष्ट्रपति को प्राप्त शक्तिओं का नाम ले कर अनुच्छेद ३५ के बाद संबिधान में अनुच्छेद ३५अ के नाम से एक नया अनुच्छेद डाला गया जो संबिधान में संशोधन करने जेसा ही है. अनुच्छेद ३७० इस प्रकार की कोई भी शक्ति राष्ट्रपति जी को संबिधान में संशोधन करने की नहीं देता है. संबिधान में कोई भी संशोधन अनुच्छेद ३६८ के अंतर्गत ही किया जा सकता है.
अनुषेद-३५ए की छाया में ही जम्मू कश्मीर विधान सभा एवं जम्मू कश्मीर सरकार द्वारा जम्मू कश्मीर में रहने बाले भारत के नागरिकों ( जम्मू कश्मीर के स्थायी निबासी की श्रेणी में आने बाले ) और भारत के अन्य नागरिकों के बीच भेदभाव किया गया है . जम्मू कश्मीर के विधान की धारा -६, धारा-८, धारा-९ , धारा-५१, धारा-१२७ और धारा – १४० जो भारत के कुछ नागरिकों के मूल अधिकारों का हनन करती हैं अनुच्छेद -३५अ के कारण ही आज तक सम्बिधानिक दृष्टी से नयायपालिका के सामने मान्य हैं. अनुषेद ३५अ में जो कुछ रखा गया है उस में बहुत सी बातों का स्त्रोत ( मूल आधार) शेख अब्दुल्लाह और जवाहर लाल नेहरु के बीच हुए १९५२ के दिल्ली एग्रीमेंट को कहा जा सकता है.
भारत का संबिधान लिखने के बाद कांग्रेस के शीर्ष नेता जवाहर लाल नेहरु ने उस समय के महाराजा हरी सिंह द्वारा नियुक्त प्रधानमंत्री शेख मोहमद अब्दुल्लाह के साथ १९५२ में एक समझोता किया था .
इस अनुबंध जिस को १९५२ दिल्ली अग्रीमेंट के नाम से जाना जाता है . भारत के राष्ट्रपति ने १९५४ में जम्मू कश्मीर से संबंधित एक सबिधानिक निर्देश दे कर भारत के संबिधान में संशोदन कर के एक नया अनुच्छेद ३५अ डाला और इस अनुच्छेद को नज़र में रख कर ही जम्मू कश्मीर के १९५६/५७ में अपनाये गए विधान की कुछ धाराएं लिखी गई जो आज तक कई प्रकार के विवादों का कारण बनी हुई हैं. १९४७ में पश्चिम पाकिस्तान से आकर जम्मू कश्मीर रियासत में बसे शर्णार्थी भारत बासिओं के जो मसले आज तूल पकडे हुए हैं उन का स्त्रोत भी १९५२ दिल्ली एगेइमेंट के तहत जन्मे भारत के विधान के अनुच्छेद ३५अ में है न की अनुच्छेद ३७० में.
आज के दिन अगर जम्मू कश्मीर में हालात शांति पूर्ण नहीं हैं और विदेशी शक्तियां भी इस राज्य में असथ्रिता बनाने में कुछ कामयाब हुई हैं इस के लिए यह कहना भी गलत नहीं होगा की जम्मू कश्मीर के कुछ मुख्यधारा के दलों या नेताओं ने जिस प्रकार से १९५२ के दिल्ली अग्रीमेंट से जुड़े विवादों में जम्मू कश्मीर के लोगों को उलझाये रखा है एवं जिस प्रकार से दिल्ली की सरकारों ने आम आदमी तक तथ्य ले जाने में सम्भेदन्हीनता दर्शायी है भी कुछ सीमा तक इस का कारण हैं. जिन विषयों को जम्मू कश्मीर राज्य को पिछले ६० साल से विवादों और दूरियों के घेरे में रखा गया है उन में स्टेट सब्जेक्ट या जम्मू कश्मीर का स्थाई निबासी का दर्जा , भारत के बे नागरिक जो जम्मू कश्मीर के स्थाई निबासी हों उन के लिए सरकारी सेवा और सथाई सम्पति के ख़ास अधिकार, जम्मू कश्मीर का राज्य चिन्ह ( राज्य ध्बज) और जम्मू कश्मीर राज्य सम्बंदित लिखे जाने बाले सम्बेधानिक प्रभ्धानों के डंग जेसे विषय कहे जा सकते हैं. इन सभी विवाद से भरे मुद्दों पर दिल्ली में आई बीजेपी की सरकार को सत्ता की राजनिति से ऊपर उठ कर बैचारिक स्तर पर, सम्बेधानिक स्तर पर , राजनीतिक स्तर पर और सामाजिक स्तर पर सुधार करने होंगे.
जैसे मैंने पहले भी कहा है अनुषेद ३७० की सम्बेधानिक वैधयता पर प्रश्न खड़े नहीं किए जा सकते पर अनुषेद ३५अ की सम्बेधानिक वैधयता पर प्रश्न जरूर खड़े किए जा सकते हैं. इस अनुच्छेद के जनम को ही असंवैधानिक कहा जा सकता है और इस पर संघ की नयायपालिका की ऊच्चतम पीठ द्वारा विचार करने की मांग की जा सकती है.
अनुच्छेद ३७० की नजह से नहीं अनुच्छेद ३५अ की बजह से ही है की जम्मू कश्मीर में भारत के अन्य नागरिक और इस राज्य में १९४७ से रह रहे पच्छिम पाकिस्तान से आएं शर्णार्थी यहाँ के कानून के अनुसार न ही राज्य की विधान सभा में जा सकते हैं, न ही सरकारी सेवा में जा सकते हैं , न ही स्थाई सम्पति ले सकते हैं और यहाँ की सरकार जम्मू कश्मीर के स्थाई निबासी कहे जाने बाले भारत के नागरिकों के लिए किसी भी प्रकार के विशेष प्रभ्धान कर सकती है उन को सम्बेधानिक स्तर पर भी अनुचित नहीं कहा जा सकता और एसा ही आज जम्मू कश्मीर में पच्छिम पाकिस्तान से आये शर्णार्थीयोँ के साथ तो हो ही रहा है जम्मू कश्मीर रियासत की आधी आबादी को अपनी इच्छा से अपना जीवन साथी चुनने का भी अधिकार नहीं है. दूसरे शब्दों में अगर कहें तो जम्मू कश्मीर की स्थायी निबासी कोई नारी भी अगर किसी पंजाबी या बंगाली से शादी कर लेती है तो उस के पति और बचों को भी जम्मू कश्मीर की विधानसभा में जाने जा यहाँ जमीन खरीदने का अधिकार नहीं होगा. डॉक्टर फारूक अब्दुल्लाह भी कह चुके हैं कि बे खुद जाति तोर पर इस प्रकार के नियम बदलना चाहते हैं पर उन के साथी ऐसा नहीं करने देते. इस से साफ़ निष्कर्ष निकलता है की जम्मू कश्मीर की राजनिति आज ऐसी दिशा में जा चुकी है जिस में कश्मीर घाटी में सत्ता हासिल करने के लिए कश्मीर को भारत से कुछ अल्ग कर दिखाना लाभदायक दीखता है.
(लेखक जम्मू कश्मीर मामलों के विशेषज्ञ हैं औ खुद भी इन सिवंगतियों के भुक्तभोगी हैं)
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