भारत का जन्म 15 अगस्त 1947 को नहीं हुआ। भारत हजारों वर्ष पूर्व देश है जिसे जंबू द्वीप भी कहा जाता था। हजारों वर्षों से इसे भारत नाम से ही पुकारा जाता रहा है। प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभदेव जी के पुत्र चक्रवर्ती सम्राट भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा है। हमारी तमाम आध्यात्मिक ग्रंथों में बार-बार भारत नाम आया है। महाभारत महाकाव्य के तो नाम में ही भारत है। विदेशियों द्वारा सिंधु नदी को इंटरेस्ट कहने के कारण हमारे देश का नाम इंडिया रखा गया और फिर यूरोपीय मैं जब भारत में अपना साम्राज्य स्थापित किया और अपनी व्यापारिक कंपनियां बनाई तो उन्होंने इसका नाम इंडिया रखा। यही नहीं जब तत्कालीन ब्रिटिश गवर्नर के सचिव ए. ओ. ह्मयू द्वारा कांग्रेस की स्थापना की गई तब उन्होंने ‘इंडियन नेशनल कांग्रेस’ नाम रखा। इस प्रकार यूरोपियन देशों ने भारत नाम के ऊपर इंडिया नाम थोप दिया। लेकिन स्वाधीनता के पश्चात संविधान में भारत के साथ इंडिया नाम रखे जाने का कोई औचित्य नहीं था। भारत की सभी भाषाओं में हमारे देश का नाम इंडिया नहीं भारत है।
उल्लेखनीय है कि अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त होने के पश्चात श्रीलंका ने सीलोन नाम को उठा कर फेंक दिया, म्यंमार ने बर्मा नाम को हटा दिया, जिंबाब्वे ने रोडेशिया से नाम हटा दिया। और भी ऐसी उदाहरण हैं जहाँ अपनी राष्ट्रीय अस्मिता की रक्षा के लिए स्वतंत्रता के तत्काल पश्चात राष्ट्रों ने अपने प्राचीन नाम को अंगीकार किया है। निश्चय ही हमें भी गुलामी के प्रतीक इंडिया नाम को हटाकर केवल ‘भारत’ नाम को अंगीकार करते हुए अपनी अस्मिता और अपने स्वाभिमान की रक्षा करनी चाहिए।
श्री प्रदीप कुमार वरिष्ठ अधिवक्ता, इलाहबाद उच्च न्यायालय।
आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि 299 सदस्यों वाली संविधान सभा में केवल 56 लोगों की उपस्थिति में संविधान सभा में इंडिया नाम लिया गया और इंडिया नाम के पक्ष में सहमति देने वाले सदस्यों की संख्या केवल 35 थी जिसके आधार पर यह निर्णय लिया गया। इंडिया नाम तो हमारा कभी रहा नहीं, इसका कोई औचित्य भी नहीं लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जी चाहते थे कि इंडिया नाम रहे। इंडिया नाम हटाया जाना चाहिए। इसके लिए संविधान संशोधन ही एकमात्र रास्ता है। दो तिहाई बहुमत से सरकार इसे पारित कर सकती है, मुझे नहीं लगता है कि इसमें कोई विशेष कठिनाई होगी। उसके बाद उसे अधिसूचित कर दिया जाएगा। इसके लिए देशवासियों को अपनी आवाज़ उठानी होगी।
श्री देशरत्न सिन्हा, वरिष्ठ अधिवक्ता, इलाहबाद उच्च न्यायालय, लखनऊ पीठ
भारत ही इस राष्ट्र का मूल नाम हज़ारों वर्षों ने केवल रहा है वरन प्रचलित रहा है। किसी भी देश का हिन्दी व अंग्रेजी में दो नाम नहीं हैं वो भी इस्लिये की आक्रांताओं को बोलने लिखने में सुविधा होगी। संविधान सभा ने स्वाधीन भारत का संविधान रचते हुए हिन्दी व भारत के साथ भारी अन्याय किया दबाव में आकर जबकि संविधान सभा कर अध्यक्ष डॉ राजेन्द्र प्रसाद जी समेत बहुत से हिन्दी व सनातन संस्कृति के उपासक इसमे विराजमान थे।
राहुल खटे, प्रबंधक, भारतीय स्टेट बैंक, नांदेड
अंग्रेजी वर्णनुक्रम की दृष्टि से अगर भारत नाम रखा जाता है तो हमारे देश का नाम बहुत ऊपर आता है और यदि इंडिया नाम रखा जाता है तो हमारा देश का नाम बहुत नीचे चला जाता है। इस प्रकार इंटरनेट की दुनिया में हमारी स्थिति प्रभावित होती है। इसलिए तकनीकी दृष्टि से भी इंडिया के स्थान पर केवल हिंदी रखना उचित होगा।
प्रवीण जैन, कंपनी सचिव व भारत-भाषा सेनानी, मुंबई
भारत नाम में संस्कृति का गौरवशाली इतिहास परिलक्षित होता है और इंडिया नाम के साथ अंग्रेजों की परतंत्रता व गुलामी के पदचिह्न साफ साफ दिखाई देते हैं और कोई भी स्वाभिमानी राष्ट्र गुलामी की निशानियों को सहेज कर नहीं रखता है पर हमारा यह दुर्भाग्य है कि हम स्वतंत्रता के अमृत वर्ष में इंडिया नाम को ढो रहे हैं। समाचार-पत्रों में बार-बार यह बात बढ़ा-चढ़ाकर छप रही है कि वर्तमान मोदी सरकार परतंत्रता के चिह्नों को हटाने के सार्थक प्रयास कर रही है पर आश्चर्य की बात है कि गुलामी की जो सबसे बड़ी निशानी है वह है देश का इंडिया नाम, जिस पर यह सरकार ९ वर्षों से लगातार टाल-मटोल कर रही है। इस सरकार की नयी योजनाओं व संस्थाओं के नाम में इंडिया शब्द अनिवार्यता बना हुआ है।
संजय भारद्वाज, अध्यक्ष, हिंदी आंदोलन परिवार
जिएँगे भारत के लिए, मरेंगे भारत के लिए।हमारे देश के नाम को लेकर ‘भारत’ और ‘इंडिया’ का विवाद नया नहीं है। वर्तमान में विपक्षी दलों के गठबंधन ‘ इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव एलाइंस’ द्वारा लघु नाम ‘इंडिया’ के प्रयोग ने इस विवाद को पुन: हवा दी है। विष्णुपुराण के दूसरे स्कंध का तीसरा श्लोक कहता है,
उत्तरं यत समुद्रस्य हिमद्रेश्चैव दक्षिणं
वर्ष तात भारतं नाम भारती यत्र संतति।
अर्थात उत्तर में हिमालय और दक्षिण में सागर से आबद्ध भूभाग का नाम भारत है। इसकी संतति या निवासी ‘भारती’ (कालांतर में ‘भारतीय’) कहलाते हैं। माना जाता है कि महाराज भरत ने इस भूभाग का नामकरण ‘भारत’ किया था। हम सिंधु घाटी सभ्यता के निवासी हैं। बाद में तुर्कों का इस भूभाग में प्रवेश हुआ। तुर्क ‘स’ को ‘ह’ बोलते थे। फलत: हम हिंदू कहलाए। फिर अंग्रेज आया। स्वाभाविक था कि उस समय इस भूभाग के लिए चलन में रहे ‘हिंदुस्तान’ शब्द का उच्चारण उनके लिए कठिन था। सिंधु घाटी सभ्यता के लिए ‘इंडस वैली सिविलाइजेशन’ नाम के चलते अंग्रेजों ने देश का नामकरण इंडिया कर दिया।
स्पष्ट है कि हम ‘इंडिया’ हमारा मूल नाम नहीं है। प्रश्न है कि संविधान निर्माताओं ने इस संवेदनशील और महत्वपूर्ण विषय पर ध्यान क्यों नहीं दिया? तथापि यदि उसी समय इंडिया को ‘भारत’ कर दिया गया होता तो आज इस पर विवाद या किसी तरह की राजनीति की गुंजाइश नहीं रह जाती। 1980 के दशक के अंत में स्वतंत्र हुए अफ्रीका महाद्वीप के छोटे से देश ‘रोडेशिया’ का उदाहरण सबके सामने है। स्वाधीन होते ही रोडेशिया ने निर्णय लिया कि उनका देश अब ‘जिंबाब्वे’ नाम से जाना जाएगा। देश की राजधानी ‘पोर्ट लुई’ त्वरित प्रभाव से ‘हरारे’ कहलाएगी। दो टूक निर्णय लेने का अभाव अनेक बार अनेक समस्याओं को जन्म देता है।
राष्ट्र का नाम नागरिकों के लिए चैतन्य और स्फुरण का प्रतीक होता है। राष्ट्र का नाम अतीत, वर्तमान और भविष्य को अनुप्राणित करता है। भारत हमारे लिए चैतन्य, स्फुरण एवं प्रेरणा है। ‘भा’ और ‘रत’ के योग से बना है ‘भारत।’ इसका अर्थ है, जो निरंतर प्रकाश में रत हो। ‘भारत’ नाम हमें अपनी जड़ों से जोड़ता है, अपने अस्तित्व का भान कराता है, अपने कर्तव्य का बोध जगाता है। गोस्वामी जी ने रामचरितमानस में लिखा है,बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई॥ जो संसार का भरण-पोषण करता है, वही भरत कहलाता है। इसे भारत के संदर्भ में भी ग्रहण किया जा सकता है। दुर्लभं भारते जन्म मानुष्यं तत्र दुर्लभम्। अर्थात भारत में जन्म लेना दुर्लभ है। उसमें भी मनुष्य योनि पाना तो दुर्लभतम ही है।
भारतीय कहलाने का हमारा जन्मजात अधिकार और सौभाग्य है। भारतरत्न अटलबिहारी वाजपेयी जी के भाषण का प्रसिद्ध अंश है- भारत ज़मीन का टुकड़ा नहीं, जीता जागता राष्ट्रपुरुष है। हिमालय मस्तक है, कश्मीर किरीट है, पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं। पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघाएँ हैं। कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है। यह वन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है, यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है। इसका कंकड़-कंकड़ शंकर है, इसका बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है। हम जिएँगे तो इसके लिए, मरेंगे तो इसके लिए। ” इसके बाद हमारे रक्त में प्रवाहित होते ‘भारत’ पर किसी को कोई संदेह नहीं रह जाना चाहिए।
डॉ. रामवृक्ष सिंह, लखनऊ
किंवदन्ती है कि ब्रह्मा ने सृष्टि की उत्पत्ति की। उनके बाद उनके मानस पुत्र स्वयंभू मनु हुए, जिनके दो पुत्र थे- प्रियव्रत और उत्तानपाद। उत्तानपाद के पुत्र थे भक्त ध्रुव। प्रियव्रत के दस पुत्र थे, जिनमें तीन को संसार में कोई रुचि नहीं थी। शेष सात पुत्रों के निमित्त प्रियव्रत ने पूरी पृथ्वी को सात भागों में बाँटकर एक-एक भाग एक-एक को दे दिया। इनमें से आग्नीध्र नामक पुत्र के हिस्से आया जम्बूद्वीप। आग्नीध्र के नौ पुत्र थे, जिनमें सबसे ज्येष्ठ थे नाभि। उन्हें हिमवर्ष का दायित्व मिला, जिसे उन्होंने बाद में अजनाभवर्ष नाम दिया। नाभि के पुत्र थे ऋषभ, और ऋषभ के सौ पुत्रों में सबसे ज्येष्ठ व गुणी थे भरत। ऋषभ के वानप्रस्थी होने पर चक्रवर्ती भरत महाराज ने जिस भूभाग (अजनाभवर्ष) की बागडोर संभाली, उसी को भारतवर्ष कहा गया। यह समस्त वर्णन श्रीमद्भागवत के पंचम स्कंध में उनका वर्णन मिलता है।
दक्षिण में कन्याकुमारी से लेकर उत्तर में हिमालय-पर्यन्त और पश्चिम में ईरान की पूर्वी सीमा से लेकर पूरब में बर्मा तक के विस्तृत भूभाग को सदियों से भारतीय और विश्व मनीषा ने ‘भारतवर्ष’ के नाम से जाना है। भारत शब्द इस देश की साहित्यिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक चेतना में रचा-बसा है। पुराकालिक मिथकीय आख्यानकों से लेकर अब तक असंख्य बार इस देश को ‘भारत’ कहकर अभिहित किया गया है। महाभारत के भीष्म पर्व के नौवें अध्याय में धृतराष्ट्र को संबोधित करते हुए संजय कहते हैं-
अत्र ते वर्णयिष्यामि वर्षम् भारत भारतम्। प्रियं इन्द्रस्य देवस्य मनोः वैवस्वतस्य च।
पृथोश्च राजन् वैन्यस्य तथेक्ष्वाकोः महात्मनः। ययातेः अम्बरीषस्य मान्धातुः नहुषस्य च।
तथैव मुचुकुन्दस्य शिबेः औशीनरस्य च। ऋषभस्य तथैलस्य नृगस्य नृपतेस्तथा।
अन्येषां च महाराज क्षत्रियाणां बलीयसाम्। सर्वेषामेव राजेन्द्र प्रियं भारत भारतम्।।
{(हे महाराज धृतराष्ट्र) अब मैं आपको बताऊँगा कि यह भारत देश सभी राजाओं को बहुत ही प्रिय रहा है। इन्द्र, पृथु, विवस्वान्, मनु, ईक्ष्वाकु, ययाति, अम्बरीष, मान्धाता, नहुष, मुचुकुन्द, शिबि, ऋषभ, महाराज नृग – इन सभी राजाओं को तथा इनके अलावा जितने भी महान और बलवान राजा इस देश में हुए, उन सबको भारत देश बहुत प्रिय रहा है।}
परस्त हैं, इसलिए हमने बिना सोचे-विचारे ‘आइ लव माइ इंडिया’ का तराना गाने लगे।अपनी जड़ों से कटा हुआ, आत्म-गौरव-विहीन आदमी और कर क्या सकता है!
इंडिया शब्द की मूल अर्थ-व्यंजना को देखते हुए, हम जितनी जल्दी उसे अपने देश के नाम के बतौर इस्तेमाल करना बंद कर दें, उतना ही हमारे लिए श्रेयस्कर रहेगा। यूरोपीय उपनिवेशवादियों से पहले यह शब्द कहीं भी भारत के पर्याय के रूप में प्रयोग नहीं हुआ है, जबकि हमारे सभी प्रमुख ग्रंथों, इतिहास, कला और संस्कृति- हर जगह इस भूभाग के लिए भारत का ही नाम प्रयोग हुआ दिखता है। मसलन कहावत है- यन्न भारते, तन्न भारते। यानी जो महाभारत में नहीं है, वह भारत में भी नहीं है।
भारत नाम में जो अर्थ-गौरव है, संस्कृति-संपन्नता की जो अर्थ-विवृति निहित है, वह इंडिया में कहाँ! भारत शब्द का अर्थ है प्रकाश युक्त। जहाँ ज्ञान का, अध्यात्म का, दर्शन का, कला-कौशल का, मानवता के सर्वोत्तम गुणों का प्रकाश विद्यमान है, वह देश। जो आभा में निरंतर स्नात रहता है, ऐसा देश। क्या ‘इंडिया’ कहने से इस प्रकार की कोई अर्थ-व्यंजना निकलती है? तो हम तिरस्कार और अपशब्द-सूचक ‘इंडिया’ शब्द को अपने देश के नाम के रूप में क्यों ग्रहण करें? अतः भारत सरकार से निवेदन है कि वह यथाशीघ्र ‘इंडिया’ शब्द का प्रयोग बन्द करके हमारे देश का एकमेव नाम ‘भारत’ अंगीकार करे।
(लेखक वैश्विक हिंदी सम्मेलन के ( समन्वयक), निदेशक हैं
वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
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