Sunday, November 24, 2024
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भारतीय सांस्कृतिक विचारधारा

भारतीय संस्कृति विश्व के पुरातन संस्कृतियों में से एक है। कई विद्वान भारतीय संस्कृति को विश्व की सर्वाधिक प्राचीन संस्कृति मानते हैं। भारतीय संस्कृति चीन, रोम, मिस्र, यूनान, सुमेर की संस्कृतियों से भी प्राचीन मानी जाती है। यह संस्कृति व सभ्यता प्राचीन होने के साथ साथ सदैव समृद्ध भी रही है। विज्ञान का क्षेत्र हो या राजनितिक या कलात्मक, भारतीय संस्कृति सदैव से हर क्षेत्र में अग्रणी रही है। हम अपने इतिहास का अवलोकन करें, तो हमें ऐसे कई लिखित तथ्य मिल जाएंगें, जिससे यह ज्ञात होता है की हमारी सभ्यता और संस्कृति कई मायने में ऐतिहासिक समृद्ध रही है। इसी ऐतिहासिक सांस्कृतिक विचारधारा ने भारत को आज भी समस्त विश्व में एक परिचय एवं नाम दिया है, जिसके कारण हमारे राष्ट्र को कला, विज्ञान, राजनीती एवं कई अन्य विषयों की जननी माना जाता है।

संस्कृति हमारे संस्कारों की परिचायक होती है, जो कई वर्षों के जीवन मूल्यों से बनती है। इस कारण हर सभ्यता की एक सांस्कृतिक पहचान होती है। संस्कृति ही सभ्यता की भी जननी होती है, जो जीवन व्यापन करने के क्रिया से जानी जाती है। भारत की संस्कृति और सभ्यता ने न केवल जीवन शैली के बारे में विश्व को बताया है, अपितु विज्ञान एवं गणित के क्षेत्र में भी इसका योगदान अतुलनीय है। कई ऐसी खोज, जो भारत में हज़ारों वर्ष पहले की जा चुकी थी, उसे पाश्चात्य दुनियाँ ने बाद में जाना और समझा।

वेदों एवं उपनिषदों में विज्ञान को धर्म का अभिन्न अंग माना गया है। वेदों को ज्ञान के सिद्धांत स्रोत के रूप में कई वैज्ञानिक खोजों और आविष्कारों का आधार बनाया गया है। विज्ञान के सन्दर्भ में ज्ञान की खोज उस वक़्त के परिपेक्ष्य में भी बहुत ही आधुनिक थी। आज के अधिकांश खोजों को वेदों, पुराणों एवं उपनिषदों में संदर्भित किया गया है, एवं उनके अस्तित्व के प्रमाण भी उपलब्ध हैं। कई वैदिक अवधारणाएं विज्ञान पर ही आधारित हैं। उदाहरणार्थ वास्तुशास्त्र का विज्ञान वेदों में उपलब्ध है। बौद्धों का स्तूप एवं पुराने मंदिरों की वास्तुकला इसके द्योतक हैं। ये विशाल एवं सटीक संरचनाएं इस बात को स्थापित करती हैं कि हज़ारों वर्ष पहले भी भारत की वास्तुकला बहुत विकसित थी।

आयुर्वेद को सनातन विज्ञान कहा जाता है। आयुर्वेद को दुनिया भर में स्वीकार किए जाने वाले पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों में से एक माना जाता है। भारत में औषधीय पौधों का एक विशाल भंडार है जिसे पारंपरिक चिकित्सा उपचारों में उपयोग किया जाता रहा है। पारंपरिक प्रणालियों में वैकल्पिक दवाएं जड़ी-बूटियों, खनिजों और कार्बनिक पदार्थों से प्राप्त होती रही हैं, जबकि हर्बल दवाओं की तैयारी के लिए केवल औषधीय पौधों का उपयोग किया जाता है। चिकित्सा की इस पारंपरिक प्रणाली में प्राचीन ज्ञान अभी भी पूरी तरह से नहीं खोजा गया है। आयुर्वेद की उत्पत्ति प्राचीन काल से भी प्राचीनतम है। भारत मसालों और रत्नों की सबसे प्रसिद्ध भूमि रही है। आयुर्वेद का समृद्ध इतिहास रहा है; हालाँकि, इसके प्रति दृष्टिकोण में कुछ कमियाँ थीं, जिसने इसके विकास को चिकित्सा प्रणाली के क्षेत्र में कुछ बाधित कर दिया। उस वक़्त भी कुछ हर्बल दवाओं के सक्रिय घटक ज्ञात नहीं थे, और आज भी कई दवाओं को अभी भी अपने सक्रिय घटक के लिए और अन्वेषण की आवश्यकता है।

चिकित्सा के क्षेत्र में भी आयुर्वेद में न केवल औषधियों का वर्णन है, अपितु शल्यचिकित्साओं का भी विस्तारपूर्वक वर्णन है। कुछ जड़ी-बूटियों के साथ सोना, चांदी, जैसे धातुओं का सम्मिश्रण का उपयोग भी वैदिक काल में किया जाता था, जो आज भी किया जा रहा है। भगवन श्री धन्वंतरि आज भी महान चिकित्सक के रूप में जाने एवं पूजे जाते हैं। इधर कुछ समय से जटिल गणित के लिए आयुर्वेदिक गणित की भी उपयोगिता बढ़ गई है। यह बहुत ही सरल भी है। राजा अशोक द्वारा भारत में बनाए गए कई पत्थर स्तंभों में संख्या प्रणाली के संरक्षित उदाहरण हैं।

रासायनिक विज्ञान के क्षेत्र में भी ऐतिहासिक भारत का विशेष योगदान रहा है। Sugar, Camphor जैसे शब्दों की उत्पत्ति संस्कृत से ही है। प्राचीन स्थलों पर खुदाई से धातु के टुकड़ों के अवशेषों का पता चलता है, जो यह स्थापित करता है की उस वक़्त भी इनका उपयोग किया जाता था। संयंत्र स्रोतों से रंजक बनाना, अलंकरण बनाने के लिए सजावटी चांदी, सोना और अन्य तकनीकों का उपयोग इत्यादि कई साक्ष्य यह सिद्ध करते हैं की रसायन विज्ञान का भी उस वक़्त उपयोग होता था।

प्राचीन काल से ही भारत साधुओं एवं द्रष्टाओं के साथ साथ विद्वानों एवं वैज्ञानिकों की भी भूमि रही है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में इतिहास से ही भारत का अतुलनीय योगदान रहा है। गणितिज्ञ आर्यभट्ट ने ‘शुन्य’ की खोज की थी, जो इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण आविष्कार माना जाता है। आर्यभट्ट को खगोल विज्ञान का जनक कहा जाता है। शुन्य के साथ साथ दशमलव प्रणाली की भी खोज भारत में ही हुई थी। सामान्य गणित से लेकर कंप्यूटर की दुनिया में भी शुन्य एवं दसमलव प्रणाली सबसे उपयोगी खोज है।

त्रिकोणमितीय कार्यों को पहले से ही छठी शताब्दी से परिभाषित किया गया था, और आज हम आधे कोण के साइन को क्या कहेंगे, इसके लिए एल्गोरिदम को आर्यभटीय में वर्णित किया गया था। आर्यभट्ट के पश्चात खगोल विज्ञानी-गणितज्ञ में ब्रह्मगुप्त का नाम आता है, जिन्होनें अधिक सटीक कलन गणित (एल्गोरिदम) दिया।

ऊपर उल्लेखित बीजगणित कई अन्य लोगों द्वारा बहुत आगे ले जाया गया था, जिसमें भास्कर II का विशेष रूप से योगदान है। उन्होंने विमान और गोलाकार ज्यामिति और बीजगणित दोनों पर ग्रंथ की रचना की। उनकी प्रसिद्ध रचनाओं में एक आकर्षक पुस्तक है, जिसे लीलावती कहा जाता है, जिसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें कई समस्याओं का कविताओं के रूप में वर्णन किया गया है।

भास्कर II एवं ब्रह्मगुप्त ने एक हल भी किया था जो बाद में पेल के समीकरण के रूप में जाना जाने लगा। केरल स्कूल ने प्रचलित भूगर्भीय दृश्य को चुनौती दी एवं इसके बजाय एक आंशिक रूप से हेलियोसेंट्रिक मॉडल का प्रस्ताव किया, जिसमें आंतरिक ग्रह सूर्य के चारों ओर घूमते थे, जो अभी भी पृथ्वी की परिक्रमा करते थे। ज्यामिति के लिए भारतीय दृष्टिकोण का सबसे पहला उपलब्ध खाता सुलवा सूत्र में है। इन सूक्तों का दृष्टिकोण निवारक के बजाय व्यावहारिक और रचनात्मक है।

पाकुड़ कात्यायन ने परमाणु सिद्धांत पर शोध किया था। आणविक सिद्धांत (atomic theory) की खोज का श्रेय भी लगभग 2600 वर्ष पहले, महर्षि सनद को जाता है, जिन्होंने परमाणु सिद्धांत लिखा। अग्नि पुराण में भी इसका वर्णन है। खगोल विज्ञान के क्षेत्र में महर्षि आर्यभट की देन अतुलनीय है। उन्होंने यह सिद्धांत स्थापित किया की पृथ्वी गोल है एवं वह अपनी ही धुरी पर घूमती है तथा सूर्य का चक्कर लगाती है, जिसे हेलिओसेंट्रिक सिद्धांत कहते हैं। उन्होंने सूर्य और चंद्र ग्रहण का भी अन्वेषण किया। उपनिषदों के अनुसार, प्रकृति के पांच तत्व पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश हैं, जो आज भी पृथ्वी का प्रतिनिधित्व करता है।

चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में महर्षि सुश्रुत की देन भी अतुलनीय है। महर्षि सुश्रुत द्वारा रचित सुश्रुत संहिता प्राचीन शल्य चिकित्सा के क्षेत्र में व्यापक पाठ्यपुस्तक है। नासासंधान (rhinoplasty) के क्षेत्र में इनका महत्वपूर्ण योगदान है। महर्षि सुश्रुत के द्वारा ही सबसे पहली बार मोतियाबिंद ऑपरेशन भी किया गया था।

आयुर्वेद के प्राचीन विज्ञान का मूलभूत पाठ महर्षि चरक द्वारा चरकसंहिता में लिखा गया। पाचन की अवधारणा, उपापचय (metabolism) एवं रोग प्रतिरोधक शक्ति की संकल्पना भी महर्षि चरक के द्वारा की गई। वैदिक विद्वान पिंगल के द्वारा सर्वप्रथम अपनी किताब छन्द शास्त्र में द्विआधारी संख्या पद्वति (binary number system) के विषय में बताया गया।

दंत चिकित्सा से सम्बंधित साक्ष्य भी सिंधु घाटी सभ्यता में मेहरगढ़ में मिली है। जल युक्त शौचालय एवं मलजल प्रणाली का भी उपयोग हरप्पा एवं मोहनजोदाड़ो में की जाती थी। वजन पैमाना का भी उपयोग सिंधु घाटी सभ्यता में किया जाता था। हरप्पा की खुदाई में शासक माप (Ruler Measurements) की भी पुष्टि हुई है। मोहेंजोदारो और हरप्पा में 5,000 साल पहले नियोजित शहर में कई नागरिकों से संबंधित संरचनाएं थी। ऋग्वेद में 100 ओरों वाले जहाजों का उल्लेख है।

पुरातत्वविदों का मानना है कि मोहनजोदारो के पूरे पड़ोस को अच्छी तरह से बनाने से पहले योजना बनाई गई थी। ईंट नालियों को इस तरह निर्मित किया गया था, ताकि वे सभी एक साथ जुड़ जाएं ताकि शहर से अपशिष्ट बाहर निकल सकें। सिंधु घाटी सभ्यता में प्रौद्योगिकी का उपयोग कृषि में सहायता के लिए किया गया था। उस समय व्यापक सिंचाई प्रणालियों का विकास भी किया गया था।

प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में प्रगति के कारण गाड़ियाँ और शुरुआती नावें चलीं, जिनका उपयोग व्यापार और यात्रा की मुख्य विधि के रूप में किया जाता था। ऋग्वेद की 10 वीं पुस्तक में एक नारा भगवान इंद्र की प्रशंसा के लिए लिखा गया है। उस श्लोक का तकनीकी अनुवाद 28 अंकों तक पाई के मूल्य को सटीक रूप से बताता है।

महर्षि वराहमिहिर नें वाराही (बृहत्) संहिता में भूकंप बादल सिद्धांत के विषय में बताया। उन्होंने सबसे पहले बताया की दीमक एवं वृक्ष भूमिगत जल की उपस्थिति के सूचक हैं। महर्षि वराहमिहिर का योगदान जल विज्ञान, भूगर्भशास्त्र, पारिस्थितिकी विज्ञान एवं गणित के क्षेत्र में रहा है।

वराहमिहिर राजा विक्रमादित्य के नव रत्नों में से एक थे। उन्होंने ही यह भी बताया की चन्द्रमा एवं अन्य गृह सूर्य की रौशनी के चलते ही शोभायमान हैं, अपने स्वयं के प्रकाश के कारण नहीं। गणित के क्षेत्र में उनका योगदान त्रिकोणमितीय सूत्र बताने में रहा है। उन्होंने पास्कल का त्रिकोण का एक संस्करण भी खोजा था। उन्होंने इसका उपयोग द्विपद गुणांक की गणना करने के लिए किया था।

भारत के इतिहास में जैन गुरुओं को द्विघातीय समीकरण (quadratic equations) का भी कार्यविधि ज्ञान था। उन्होंने बीजगणितीय समीकरण, लघुगणक और प्रतिपादक (logarithms and exponents), समुच्चय सिद्धान्त (set theory) का भी वर्णन किया है। 850 A.D में जैन गुरु महावीराचार्य नें गणित सारा संग्रह की रचना की, जो की अंकगणित पर प्रथम पाठ्यपुस्तक मानी जाती है। उन्होंने आम एकाधिक (Least Common Multiple) के विषय में भी बताया।

उपरोक्त वर्णित तथ्यों एवं उदाहरणों से यह स्पष्ट है की हमारा इतिहास एवं हमारी सांस्कृतिक विचारधारा हमेशा से आगे रही है। विज्ञान भारतीय संस्कृति, सभ्यता एवं परंपरा का अभिन्न अंग रहा है। हमारे पास हमारा अपना पारंपरिक ज्ञान है। प्राचीन भारत को शून्य के उपयोग, ग्रहण की सटीक गणना, परमाणु की अवधारणा से समृद्ध वैज्ञानिक योगदान के लिए जाना जाता है।

मोहनजोदारो और हड़प्पा की सभ्यता इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि प्राचीन भारत उस समय दुनिया के बाकी हिस्सों की तुलना में अधिक उन्नत था। हमें उस प्राचीन ज्ञान को पुनः स्थापित करने की आवश्यकता है। हमें उसे समझना होगा, उसकी पहचान करनी होगी, उसे प्रोत्साहित करना होगा और आगे बढ़ना होगा। हम अपने इतिहास से सीखकर अपने वर्तमान और भविष्य को और उज्जवल बना सकते हैं।

चित्र medium.com के सौजन्य से
साभार- https://www.indictoday.com/ से

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