भारतीय पत्रकारिता में ब्लिट्ज़ अपने आप में मील का पत्थर था। ये देश का पहला ऐसा अखबार था, जिसे गाँव गाँव में शौक से पढ़ा जाता था। कई जगहों पर तो ब्लिट्ज़ बहुत कम संखया में पहुँच पाता था तो लोग एक दूसरे के घर या दुकान पर जाकर ब्लिट्ज़ पढ़ने की हसरत पूरी करते थे। आज की टीवी पत्रकारिता के दौर में जहाँ कोई भी ब्रेकिंग न्यूज न तो सनसनी मचा पाती है न विश्वसनीयता पैदा कर पाती है, जबकि ब्लिट्ज़ का दौर ऐसा दौर था कि इसका एक एक शब्द विश्वसनीयता, प्रामाणिकता और खोजी पत्रकारिता का ऐसा मानक होता था कि ब्लिट्ज़ में छपी खबर सत्ता के शीर्ष, सिंहासन को भी हिला देती थी। ब्लिटज़ हिन्दी के बरसों तक संपादक रहे वरिष्ठ पत्रकार श्री नंदकिशोर नौटियाल ब्लिट्ज़ के उस सुनहरे दौर की पत्रकारिता को याद कर रहे हैं।
अंगरे़जी `ब्लिट़्ज' का प्रकाशन दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान २ ़फरवरी १९४१ से शुरू हुआ था, जिस समय सोवियत रूस और ना़जी जर्मनी के बीच अनाक्रमण मैत्री-संधि थी। दुनिया के शीर्ष वूâटनीतिज्ञ और जासूस जब यह कल्पना भी नहीं कर सकते थे, उस समय सबसे पहले `ब्लिट़्ज' ने यह सनसनी़खे़ज भविष्यवाणी कर दी थी कि हिटलर ने अपने `पऩजर डिवी़जन' को रूस पर हमला करने की तैयारी करने का आदेश दे दिया है। इसी तरह सबसे पहले `ब्लिट़्ज' ने छापा कि `आ़जाद हिंद ़फौज' (इंडियन नेशनल आर्मी) की स्थापना हो गयी है और उसके कमांडर नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने अंडमान द्वीप को ब्रिटिश ़गुलामी से आ़जाद कराके वहाँ तिरंगा झंडा लहरा दिया है।
विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद नवंबर १९४७ में सबसे पहले `ब्लिट़्ज' ने छापा कि अमरीका-रूस के बीच `शीतयुद्ध' की शुरुआत हो गयी है। पाकिस्तान के निर्माता मोहम्मद अली जिन्ना की कराची में मौत की ़खबर जबकि वहाँ के हुक्मरान ने पाकिस्तान की जनता से छुपाकर रखी थी, `ब्लिट़्ज' ने उसे सबसे पहले छापकर सारी दुनिया के सामने उजागर कर दिया। यह भंडाफोड़ भी सबसे पहले सि़र्पâ `ब्लिट़्ज' ने किया था कि जम्मू-कश्मीर पर कबाइलियों के भेस में घुस आये हमलावर पाकिस्तानी सिपाहियों का तथाकथित पठान कमांडर जनरल तारी़क असल में ओ.एस.एस. (सी.आइ.ए. का पूर्व रूप) का अमेरिकन ब्रिगेडियर रसेल हेट था।
जब जवाहरलाल नेहरू ने अपने गुरु गाँधीजी तथा खुद के वचन से फिरकर देश का विभाजन मं़जूर कर लिया तो कुपित करंजिया प्रधान मंत्री के द़फ्तर में जा धमके और गुस्से में बोले, छिन्नभिन्न देश में रहने से तो बेहतर होगा कि मैं कहीं बाहर चला जाऊँ! नेहरू ने कहा जाने से पहले कल सुबह नाश्ते पर आओ। नाश्ते पर एक और सज्जन मौजूद थे, वी.के. कृष्ण मेनन। करंजिया का रोष नाश्ते पर भी थम नहीं रहा था। अंत में नेहरू ने कहा, जाते ही हो तो अच्छा जाओ, बाहर से तुम हमारी मजबूरी को बेहतर समझ सकोगे और मेनन ने कुछ देशों की सूची और भारत के गैरसरकारी प्रतिनिधि की हैसियत से विदेश यात्रा-कार्यक्रम और अधिकारपत्र रूसी (रुस्तम खोरशीदजी) करंजिया को थमा दिया। यह था नेहरू की दूरदर्शिता और करंजिया की उपयोगिता का एक ज्वलंत उदाहरण जो बाहरी राष्ट्रों के साथ भारत के भावी संबंधों में महत्वपूर्ण मौ़कों पर अत्यंत सहायक सिद्ध हुआ।
सन 'साठ के बरसों में देश में जगह-जगह से सैकड़ोेंं टैबलॉयड विभिन्न भाषाओं में `ब्लिट़्ज' की त़र्ज पर छप रहे थे, मगर वे `ब्लिट़्ज' नहीं थे। यह रूसी करंजिया की पत्रकारिता की लोकप्रियता का ही एक पैमाना था कि बड़े अ़खबारों की टक्कर में `ब्लिट़्ज' प्रतिरोध की एक समानांतर पत्रकारिता (काउंटर मीडिया) का नेता और आदर्श बन गया था। वह भारतीयता, धर्मनिरपेक्षता और नारी-सम्मान का प्रबल समर्थक था। यह सब करंजिया के पारसी संस्कारों के कारण था। युद्धकाल में वार-कॉरस्पोंडेट रहे करंजिया और `ब्लिट़्ज' ने बर्तानवी ़फौजी अ़फसरों की अय्याशी के लिए जो शर्मनाक `वीमेंस ऑग़्जीलियरी कोर (इंडिया)' गठित की गयी थी उसको बंद कराने के लिए ़जबर्दस्त मुहिम छेड़ी और तत्कालिक ब्रिटिश शासन को उसे बंद करने पर मजबूर कर दिया था।
करंजिया की पत्रकारिता का झुकाव समाजवाद की ओर था और गाँधीजी के शब्दों में समाज के सबसे निचले पायदान पर बैठे व्यक्ति की आवा़ज बनकर सामने आना तथा उसके सरोकारों को सबसे पहले स्वर देना। “प्रâी, प्रैंâक एंड फियरलेस'' (बेलौस, बेबाक और बे़खौ़फ) उसका नीति-वाक्य था। राष्ट्रीय घटनाक्रम हो या अंतरराष्ट्रीय, उसकी भनक रूसी करंजिया को पहले ही लग जाती थी। जनता की नब़्ज की सही पहचान करने की बेमिसाल क्षमता थी करंजिया में, जिसका श्रेय जाता है `ब्लिट़्ज' के सूचनातंत्र को, जो ़जमीनीस्तर से लेकर शीर्ष तक हर जगह मौजूद था। `ब्लिट़्ज' १९४२ के `अंगरे़जो, भारत छोड़ो' आंदोलन में `कांगरेस समाजवादी अंडरग्राउंड' का मुखपत्र बन गया था। जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्रदेव, राममनोहर लोहिया, अरुणा, अशोक मेहता, पटवर्धन-बंधु, मीनू मसानी सभी समाजवादी नेता `ब्लिट़्ज' में `टीपू' छद्म नाम से लिखते और छपते रहे थे।
`ब्लिट़्ज' के दिल्ली ब्यूरो के प्रमुख मशहरू पत्रकार जी.के. रेड्डी रहे और उनके बाद ए. (अत्ता) राघवन और जोगाराव की जोड़ी; और उस मलयाली कार्टूनिस्ट को `लाँच' करने का श्रेय भी करंजिया और `ब्लिट़्ज' को जाता है जिसका नाम विश्वस्तर पर महानों में शुमार हुआ – आर.के. लक्ष्मण! उस ़जमाने में देश में शासकीय घपलों के पर्दा़फाश का पहला सेहरा भी करंजिया और `ब्लिट़्ज' के सर बँधता रहा, जिनमें `जीप ़खरीदी कांड', `हरिदास मूँधड़ा-जीवन बीमा निगम कांड, `डॉ. तेजा-जयंती शिपिंग कांड', `मोरारजी-पर्मनेंट मैगनेट कांड', जैसे भंडाफोड़ थे जिन्होंने संसद और सरकार को हिला दिया था।
कृष्णराज ठाकर्सी के व्यापारिक घोटालों का पर्दा़फाश करने पर उच्च न्यायालय ने करंजिया पर तीन लाख रुपये का जुर्माना ठोक दिया था। इसकी प्रतिक्रिया यह हुई कि जुर्माना भरने के लिए अब्बास, संतोष साहनी और बीसियों पाठक अपनी चेकबुवेंâ और चंदा लेकर `ब्लिट़्ज' कार्यालय पहुँच गये, जिसे स्वीकार करने से रूसी ने सधन्यवाद इंकार कर दिया, क्योंकि `ब्लिट़्ज' के स्टा़फ ने अपने बोनस, ग्रेचुइटी, एक माह का वेतन करंजिया के हवाले कर दिया, जो तीन लाख रुपये से कहीं ़ज्यादा होता था। आम पाठकों और ़खासकर वंâपनी के कर्मियों का ऐसा प्यार बिरले ही मालिक को प्राप्त होता है, लेकिन करंजिया ने अपने को कभी मालिक नहीं समझा।
`ब्लिट़्ज' के निशाने से मीडिया भी नहीं बचा जब करंजिया ने डालमिया-जैन साम्राज्य के आर्थिक घोटालों की विवियन बोस जाँच रिपोर्ट को कई अंकों में छापा। उन्होंने दूसरे मीडिया मसीहा रामनाथ गोयनका की धाँधलियों को भी उजागर किया। करंजिया ने जब राजीव गाँधी के ़िखला़फ `हेरिटेज केसी प्लॉट' को बेऩकाब किया तो मीडिया और संसद दोनों हिल गये थे। न्याय और राष्ट्रहित में आंदोलन, जनजागरण और “स्वूâप'' रूसी करंजिया का जुनून था।
रूसी करंजिया की पत्रकारिता के प्रति जुनून
करंजिया इस हद तक जुनूनी पत्रकार रहे हैं कि भारत की समाजवाद की ओर प्रवृत्त नीतियों के कट्टर विरोधी सांसद आचार्य कृपालानी को “कृपालूनी'' शीर्षक से – `ब्लिट़्ज' के वकीलों की सलाह के विपरीत – पहले पन्ने पर छापकर संसद की अवमानना करने के दोषी पाये जाने की जो़िखम उठायी और उन्हें संसदीय प्रतारणा झेलनी पड़ी; जबकि वर्षों बाद उसी करंजिया कोे संसद के ऊपरी सदन `राज्यसभा' का सदस्य नियुक्त होने का भी गौरव प्राप्त हुआ। करंजिया की जुनूनी पत्रकारिता का निशाना न्यायपालिका भी बनी जब निचली अदालत ने उन्हें आ़िखरी पन्ने पर कथित “अश्लील चित्र'' (पिन-अप) छापने का दोषी ठहराया, मगर हाइ कोर्ट ने उस निर्णय को उलट दिया था, जिस पर करंजिया ने ऊपरी अदालत के ़पैâसले को आधार बनाकर निचली अदालत के जज की खिल्ली उड़ाते हुए बहुत ही कटु लेख (यह भी वकीलों की सलाह के ़िखला़फ) छाप दिया। इसे हाइ कोर्ट की नागपुर पीठ ने अदालत की अवमानना करार दिया और करंजिया को पंद्रह दिन की ़वैâद की स़जा सुना दी। जब उन्हें ट्रेन से नागपुर जेल ले जाया जा रहा था, बंबई से नागपुर तक हर स्टेशन पर जहाँ गाड़ी रुकती थी, ह़जारों की संख्या में `ब्लिट़्ज' के प्रशंसकों ने करंजिया को हीरो-जैसी विदायी दी और कोई एक ह़फ्ते बाद ही जेल से स़जा काटकर लौटते समय उससे बड़ी संख्या में उनका स्वागत किया। बॉम्बे वी.टी. (अब छत्रपति शवाजी स्टेशन) पर दसियों ह़जार छात्र-युवा-युवतियाँ, शहरी और कामगार और उनके नेतागण, प्रगतिशील मीडिया पूâलमालाएं लेकर पहुँचे और जलूस के साथ करंजिया को ब्लिट़्ज-द़फ्तर लाया गया।
केरल के कम्यूनिस्ट नेता गोपालन को एक राजनीतिक हत्या के आरोप में मौत की स़जा हो गयी थी, उन्हें फाँसी के पंâदे से बचाने के लिए `ब्लिट़्ज' ने राष्ट्रव्यापी हस्ताक्षर आंदोलन छेड़ा और गोपालन को बचाने में सफलता प्राप्त की। जम्मू-कश्मीर, जूनागढ़, हैदराबाद और ़खासकर गोआ को भारत में विलय करने की मीडिया-मुहिम की अगुवाई की। करंजिया के जुनून की अनगिनत मिसालें हैं। वह बुनियादी तौर पर एक जागरूक देशभक्त पत्रकार थे।
`ब्लिट़्ज' के राजनीतिक प्रभाव और आकलन और सक्रिय जुनून की मिसाल बंबई में कोलाबा की सीट से बंबई के `बेताज के बादशाह', वेंâद्रीय मंत्री सादोबा पाटिल के ़िखला़फ समाजवादी म़जदूर नेता जॉर्ज फर्नांडिस को खड़ा करना और जितवा देना भी है, जबकि तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया पाटिल का गुणगान और उनकी जीत की भविष्यवाणी कर रहा था, सट्टा लगा रहा था। `ब्लिट़्ज' ने जॉर्ज की जीत का समाचार “जॉइंट किलर जॉर्ज'' की हेडलाइन से छापा था। करंजिया की पत्रकारिता कांगरेस की धर्मनिरपेक्ष-समाजवादी और विकासनीति का समर्थन करती थी तो साथ ही वामपंथ की ़गरीब-म़जदूर हितैषी माँगों की प्रबल समर्थक थी।
अंतरराष्ट्रीय मंच पर रूसी करं़जिया नाटोसंधिवाले पश्चिमी पूँजीवादी देशों तथा वारसा संधिवाले सोवियत गुट के देशों की खेमेबंदी से अलग हटकर नेहरू, नासर और टीटो की त्रिमूर्ति के गुट-निरपेक्षता के सिद्धांत का समर्थक था। ़िजयोनि़ज्म (यहूदीवाद) का विरोध, अरब देशों के साथ दोस्ती और विकासशील देशों के निर्गुट संगठन की स्थापना `ब्लिट़्ज' के अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण के आधार रहे हैं और करंजिया के अरब देशों के साथ संपर्कों का भारत सरकार को ़गैरसरकारी स्तर पर यथेष्ट वूâटनीतिक लाभ भी मिलता रहा है, जैसे बाँग्ला-युद्ध में भारत को शाह ईरान से करंजिया की मित्रता का फायदा पाकिस्तान के ़िखला़फ सक्रिय समर्थन मिलने में हुआ।
सिने ब्लिटज़ में न्यूड तस्वीर
रूसी करंजिया ने जब `सिने ाqब्लट्ज' ('७४ में) निकाली तो उसके पहले अंक के मुखपृष्ठ पर एक मॉडल की न्यूड तस्वीर छापी थी।
न्यूड (नंगी, नग्न, नग्नता) के बारे में आम भारतीय धारणा सौंदर्यबोध और वासना में भेद नहीं कर पाती है। '७४ में `सिने ाqब्लट्ज' के पहले अंक के मुखपृष्ठ पर जो ़फोटोग्रा़फ छपा था वह एक फोटो-कलाकृति थी।
करंजिया `ब्लिट़्ज' के लास्ट पेज पर ख्वाजा अहमद अब्बास के लोकप्रिय कॉलम के साथ एक `पिन-अप' हर ह़फ्ते छापते रहे हैं, जिनमें से कुछ चित्रों पर हो-हल्ला भी मचा है। अब्बास `पिन-अप' छापने के विरोधी रहे हैं। करंजिया का कहना था कि कलात्मक “नग्न (न्यूड) या अर्धनग्न तस्वीर'' पूरे अंक में छप रही बोझिल गद्यात्मक सामग्री से पाठक के दिलो-दिमा़ग को राहत दिलाती और उसके सौंदर्यबोध को विकसित करने का काम करती है।
करंजिया के खिला़फ ऐसे ही एक पिन-अप पर मु़कद्दमा चला था, जिसे उच्च न्यायालय ने “सौंदर्यबोध'' करार दिया, मगर ऊपरी अदालत के ़पैâसले के अंशों को आधार बनाकर निचली अदालत की खिल्ली उड़ाने पर उन्हें पंद्रह दिन की स़जा हुई, जो करंजिया ने “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सेनानी'' की तरह भोगी। `सिने ाqब्लट़्ज' के पहले अंक के पहले पेज पर एक सिने अभिनेत्री की इसी अंक के लिए खींची गयी `निरवस्त्र' तस्वीर के छपने पर बड़ा हंगामा मचा, लेकिन अंततः उस तस्वीर को ़फोटोग्राफर की “कलाकृति'' माना गया। आज अंगरे़जी के सभी अ़खबारों के पेज तीन पर और ़खासतौर पर सिनेमा की पत्रिकाओं में ऐसी तस्वीरें, जिनमें कुछ पूâहड़ भी होती हैं, खुले आम छापी जा रही हैं। चैनल तो उनसे भी आगे निकल गये हैं। ऐसी पत्रकारिता को खजुराहो के मंदिरों के बाहर सुदर्शित कामशास्त्रीय भित्तिमूरतों के समकक्ष नहीं माना जा सकता, विंâतु अगर वे तुलनीय भी हों, तो भी हिंदी ब्लिट़्ज' ने उसे भाषायी पत्रकारिता से बाहर ही रखना बेहतर समझा, क्योंकि खजुराहो-युग और आज के १८वीं सदी से लेकर २१वीं सदी तक के काल-समय में एक साथ जी रहे बहुसंख्य भारतीय समाज के संस्कारों से यह मेल नहीं खातीं।
जब यह सवाल `हिंदी ब्लिट़्ज' के सामने भी दरपेश हुआ, तो उसने अपने पाठकों के सामने यह सवाल रखा और उनमें विभाजित राय पायी। `हिंदी ब्लिट़्ज' के संपादक मंडल में भी विभाजित मत था, अतः हिंदी में आ़िखरी पेज पर एक सुंदर नारी के मुखचित्र के मनोभावों के अनुवूâल उसे किसी बड़े शायर या कवि के शे'र या कविता के साथ छापना शुरू किया, जिसकी बड़ी तारी़फ हुई और अनेक पाठकों ने तो उनकी कटिंगें जमा करना भी शुरू कर दांr। एक ऐसा ही चित्र एक तत्कालीन नामी फिल्म-हीरो तथा हीरोइन का छपा था और उसके नीचे छापे गये कैप्पशन र हीरोइन ने एतरा़ज जताया था। `ब्लिट़्ज' ने नायिका से तुरंत मा़फी माँग ली थी, मगर साथ में कैप्शन के शे'र का गूढ़अर्थ भी दिया और वह मुतमईन भी हुर्इं।
ब्लिट़्ज का मुंबई की पत्रकारिता में योगदान
देश और आम जनता के हित में अ़खबार ने `ब्लिट़्ज नेशनल फोरम' की स्थापना की जिसके मंच से देश के सामने मुँह बाये खड़ी अनेक सामयिक समस्याओं और सरोकारों पर विभिन्न विधाओं के शीर्षस्थ विचारकों को प्रस्तुत किया जाता रहा।
राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय मामलों के साथ-साथ मुंबई की पत्रकारिता में `ब्लिट़्ज' का योगदान महत्वपूर्ण रहा है। मुंबई के छात्रों और शहरियों की समस्याओं को स्वर देने के लिए यहाँ छपनेवाले दैनिक तथा अन्य नियतकालिक प्रकाशनों/ अ़खबारों में `ब्लिट़्ज' पहला साप्ताहिक बना जिसने मुंबई पर वेंâद्रित `बॉम्बे ब्लिट़्ज' नाम से सप्लीमेंट शुरू किये। मुंबई की कुल पत्रकारिता के बीच भाषाई पत्रकारिता में हिंदी, उर्दू और मराठी में `ब्लिट़्ज' प्रकाशन प्रारंभ किये। ब्लिट़्ज-संस्थान अंगरे़जी में मुंबई का प्रथम टैबलॉयड दैनिक अ़खबार `द डेली' लेकर आया। सिनेमा के क्षेत्र में `सिने ब्लिट़्ज' का प्रकाशन प्रारंभ किया, तो उसने अपने पहले ही अंक से हंगामा मचा दिया। उस अंक की प्रतियाँ `ब्लैक' में बिकीं!
जब समानांतर पत्रकारिता के रूप में स्थापित हो चुके अंगरे़जी `ब्लिट़्ज' परिवार में हिंदी `ब्लिट़्ज' का शुमार हुआ तो यह हिंदी भाषा और भाषायी अभिव्यक्ति में परिवर्तनकारी योगदान करनेवाला साबित हुआ। हिंदी `ब्लिट़्ज' की “सरल, सुबोध और सही'' हिंदी ने उस समय के लगभग सभी हिंदी अ़खबारों और पत्र-पत्रिकाओं की “क्लिष्ट भाषा और उलझी हुई शैली'' को प्रभावित किया। हिंदी `ब्लिट़्ज' अंगरे़जी के अनूदित संस्करण की चाहरदीवारी तक सिमटा हुआ नहीं रहा। हिंदी में अपना एक स्वतंत्र व्यक्तित्व गढ़ने की ताब हिंदी संस्करण के प्रथम संपादक मुनीश नारायण सक्सेना और नंदकिशोर नौटियाल जैसी पत्रकार टीम की वजह से पैदा हुई, जिसका श्रेय रूसी करंजिया को भी देना होगा, क्योंकि उन्होंने हिंदी `ब्लिट़्ज' को पूर्ण संपादकीय स्वतंत्रता दे रखी थी।
इसी आ़जादी की वजह से हिंदी की अपनी अलग रिपोर्टिंग और अलग स्तंभ शुरू हुए। ़ख्वाजा अहमद अब्बास अंगरे़जी का `लास्ट पेज' लिखते थे, तो हिंदी में अंतिम पृष्ठ `आ़जाद ़कलम' के नाम से छपता था, जो बाद में उर्दू `ब्लिट़्ज' निकलने पर उसमें भी छपता रहा, लेकिन `आ़जाद ़कलम' अंगरे़जी के `लास्ट पेज' का अनुवाद कभी नहीं रहा। अब्बास साहब के देहांत के बाद अंगरे़जी का लास्ट पेज मशहूर पत्रकार पी. साईनाथ लिखने लगे। असल में खुद अब्बास साहब ने यह पेज साईनाथ को करंजिया को लिखे पत्र में एक तरह से वसीयत किया था।
हिंदी में यह स्तंभ मुंबई के जानेमाने कवि-साहित्यकार और लोकप्रिय नेता डॉ. राममनोहर त्रिपाठी लिखते रहे। हिंदी में ़िफल्म-नाटक और मनोरंजन स्तंभ `रँगारंग' उमेश माथुर करते थे तो `नयी गुलिस्ताँ' वैâ़फी आ़जमी रचते थे। हिंदी की ़िजले-़िजले में, यहाँ तक कि तालुका स्तर तक एक अलग ही टीम खड़ी हो गयी थी, जिसने ब्लिट़्ज-संस्थान की शक्ति कई गुना ब़ढ़ा दी थी। `ब्लिट़्ज' शुरू से ही प्रगतिशील, जुझारू और भंडाफोड़ करनेवाला अ़खबार था। जहाँं `ब्लिट़्ज' ने इंदिरा गाँंधी को `गरीबी हटाओ' कार्यक्रम में प्रबल समर्थन दिया वहीं आपातकाल की ़ज्यादतियों के खिला़फ इंदिरा गांधी के इर्दगिर्द जमा “चंडाल चौकड़ी'' (गैंग ऑफ फोर) का ़जबर्दस्त भंडाफोड़ भी किया। `ब्लिट़्ज' की दृष्टि और नीति का मापदंड एक ही होता था कि आम आदमी का हित किस बात से सधेगा और कौन-सी बात आम आदमी के हितों के विपरीत जायेगी।
नंदकिशोर नौटियाल के संपादन में हिंदी `ब्लिट़्ज' को आम जनता और युवा-वर्ग ने इस हद तक अपना मददगार मान लिया था कि आपातकाल में जयपुर विश्वविद्यालय के छात्रों ने “नौटियाल ब्रिगेड'' की स्थापना कर डाली थी और वाइस चांसलर के ़िखला़फ अपनी माँगों को लेकर मुहिम छेड़ दी थी। नतीजा यह हुआ कि विद्वान वाइस चांसलर पं. गोबिंद चंद्र पाँडेजी ने संपादक नौटियाल को जयपुर आमंत्रित किया और छात्र संघर्ष को सुलझवाया। इसी प्रकार हिंदी `ब्लिट़्ज' में छपी एक रिपोर्ट को साक्ष्य मानते हुए अदालत ने सागर विश्वविद्यालय के छात्रों को एक आपराधिक मामले में बरी कर दिया था। जनहित की इस नीति पर चलते हुए हिंदी `ब्लिट़्ज' की प्रसार संख्या साढ़े तीन लाख प्रतियाँ हर ह़फ्ते तक पहँुच गयी थींr और यह रिकार्ड नौटियाल के संपादकत्व में (१९७३ के बाद) स्थापित हुआ था। `ब्लिट़्ज' अकेला अ़खबार था जो अपने मुखपृष्ठ पर छापता था “अपना ब्लिट़्ज मिलबाँट कर पढ़ें!''
ब्लिट्ज़ अन्याय विरोधी समानांतर पत्र
`ब्लिट़्ज' को सत्ताविरोधी कहना ठीक नहीं रहेगा। वह बुराई के प्रतिरोध का अ़खबार था, बुराई पक्ष-विपक्ष जिस भी दिशा में हो, वह सत्ता के अंध-विरोधी नहीं था। वह अन्याय विरोधी समानांतर पत्र था। वह प्रतिक्रियावाद के ़िखला़फ प्रगतिशीलता का पक्षधर अ़खबार था। संक्षेप में `ब्लिट़्ज' प्रगतिशील और जुझारू अ़खबार था। वह विकास और आधुनिकता का समर्थक, पीछे की ओेर नहीं आगे की ओर देखनेवाला अ़खबार था। `ब्लिट़्ज' ने भाखड़ा-नंगल, नये विज्ञानवेंâद्रों, निजी और सार्वजनिक उद्यमों की स्थापना जैसे “भारत के नये मंदिरों'' का, ़जमींदारी-विनाश, प्रीवी पर्सों का ़खात्मा और बैंकों के राष्ट्रीयकरण आदि कार्यों का पुऱजोर समर्थन किया। राष्ट्रीय विकास के लिए “नदियों की माला'' तथा “भूमि सेना'' बनाने का करंजिया और `ब्लिट़्ज' अंत तक ़जबर्दस्त पैरवी करता रहा, जो इस देश के “जल'' और “जन'' संसाधन को ़जाया जाने से बचाने और देश को आर्थिक रूप से शक्तिशाली बनाने का अचूक मंत्र साबित हो सकता था। करंजिया के अरब देशों के साथ संपर्कों का भारत सरकार को गैरसरकारी स्तर पर यथेष्ट वूâटनीतिक लाभ भी मिलता रहा है, जैसे बाँग्ला-युद्ध के दौरान भारत को शाह ईरान से करंजिया की मित्रता का ़फायदा पाकिस्तान के ़िखला़फ खुला समर्थन मिलने में पहुँचा।
ब्लिट़्ज : पीत पत्रकारिता या खोजी पत्रकारिता
`ब्लिट़्ज' पर कीचड़ उछालनेवालों को मुँहतोड़ जवाब देते हुए खुद करंजिया ने लिखा था, “ब्लिट़्ज को तमाम नकारात्मक रंगों में रँगा जा रहा है, यानी पीले, लाल, काले वगैरह; लीजिये हमने उनके जवाब में अपने अ़खबार को उन तमाम रंगों में प्रस्तुत करते हुए एक होर्डिंग लगा दी है और उस पर लिख दिया है: `जी हाँ, लोग हमें पढ़ते हैं !' अगर यह पूछना चाहते हैं कि हमारी समझ का दार्शनिक आधार क्या है, तो वह था, है और हमेशा रहेगा – नेहरूवाद – अर्थात लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, ़गरीबहितैषी, तटस्थता और दृढ़ता के साथ साम्राज्य-विरोध।''
संक्षेप में `ब्लिट़्ज' प्रगतिशीलता और समानता के सरोकारों का जुझारू अ़खबार था। किसी भी अन्य समकालीन भारतीय पत्रकार का देशहित में, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के हित में करंजिया जितना योगदान शायद ही गिनाया जा सके; जिसे तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया ने हिकारत के साथ “पीत पत्रकार'' कहकर भारत के पत्रकारिता के इतिहास से उसके सकारात्मक रोल के बावजूद `ब्लैक आउट' कर रखा है। `ब्लिट़्ज' की सनसनी़खे़ज भंडाफोड़ पत्रकारिता से जहाँ उल्टे-सीधे काम करनेवाले अ़फसर-नेता-पूँजीपति ़खौ़फ खाते थे, वहीं सेठसेक्टर और उनके पत्रकार घृणा के साथ उसे पीत पत्रकारिता (येलो जरनैलि़ज्म) कहा करते थे। उसका गला घोंटने में कोई कसर उठा नहीं रखते थे।
आज लगभग सभी मीडियावाले “स्वूâप'' के नाम पर एक अजीब दैह्यात्मिक/ऐंद्रिक आनंद का आभास करते हैं, जबकि `ब्लिट़्ज' के “भंडाफोड़'' से होनेवाली आर्थिक धाँधलियों और सामाजिक दुराचारों के – जो आज विकराल रूप धारण कर चुके हैं – पर्दा़फाश पर करंजिया को पानी पी-पीकर कोसते रहते थे!
हवा का रु़ख
सन १९९१-९२ के वर्ष की बात है करंजिया ने अपने वरिष्ठ संपादकीय सहयोगियों की बैठक बुलायी। `ब्लिट़्ज' में रूसी करंजिया नीतिगत निर्णय बैठक बुलाकर उनकी राय सुनने के बाद ही लिया करते थे। उन्होंने कहा कि मेरा आकलन है कि अब वेंâद्र में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सत्ता में पहुँचनेवाली है, इसलिए हमें उसका समर्थन करना चाहिये। आज के मशहूर जुझारू पत्रकार पी. साईनाथ ने इसके विपरीत तर्वâ दिये। होमी मिस्त्री, अल्मीडा, द' डेली के संपादक नायर, सभी की ऩजर में भाजपा अभी सत्ता से बहुत दूर थी। हिंदी के संपादक नौटियाल का कहना था कि भले भाजपा सत्ता के ़करीब पहुँच रही हो मगर हमें उसका विरोध करना चाहिये और उर्दू के संपादक हारून रशीद ने उनकी ताईद की थी। सबकी राय सुनने के बाद करंजिया ने भाजपा-समर्थन की नीति मं़जूर कर ली। क्या यह करंजिया का अवसरवाद था? नहीं। वह हवा के रु़ख भाँपने और उसके साथ चलनेवाला पत्रकार था और हवा कांगरेस के ़िखलाफ बहना शुरू हो गयी थी।
(क्रमशः, हिंदी `ब्लिट़्ज', उर्दू `ब्लिट़्ज')
भारतीय पत्रकारिता में ब्लिट्ज़ अपने आप में मील का पत्थर था। ये देश का पहला ऐसा अखबार था, जिसे गाँव गाँव में शौक से पढ़ा जाता था। कई जगहों पर तो ब्लिट्ज़ बहुत कम संखया में पहुँच पाता था तो लोग एक दूसरे के घर या दुकान पर जाकर ब्लिट्ज़ पढ़ने की हसरत पूरी करते थे। आज की टीवी पत्रकारिता के दौर में जहाँ कोई भी ब्रेकिंग न्यूज न तो सनसनी मचा पाती है न विश्वसनीयता पैदा कर पाती है, जबकि ब्लिट्ज़ का दौर ऐसा दौर था कि इसका एक एक शब्द विश्वसनीयता, प्रामाणिकता और खोजी पत्रकारिता का ऐसा मानक होता था कि ब्लिट्ज़ में छपी खबर सत्ता के शीर्ष, सिंहासन को भी हिला देती थी। ब्लिटज़ हिन्दी के बरसों तक संपादक रहे वरिष्ठ पत्रकार श्री नंदकिशोर नौटियाल ब्लिट्ज़ के उस सुनहरे दौर की पत्रकारिता को याद कर रहे हैं।
अंगरे़जी `ब्लिट़्ज' का प्रकाशन दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान २ ़फरवरी १९४१ से शुरू हुआ था, जिस समय सोवियत रूस और ना़जी जर्मनी के बीच अनाक्रमण मैत्री-संधि थी। दुनिया के शीर्ष वूâटनीतिज्ञ और जासूस जब यह कल्पना भी नहीं कर सकते थे, उस समय सबसे पहले `ब्लिट़्ज' ने यह सनसनी़खे़ज भविष्यवाणी कर दी थी कि हिटलर ने अपने `पऩजर डिवी़जन' को रूस पर हमला करने की तैयारी करने का आदेश दे दिया है। इसी तरह सबसे पहले `ब्लिट़्ज' ने छापा कि `आ़जाद हिंद ़फौज' (इंडियन नेशनल आर्मी) की स्थापना हो गयी है और उसके कमांडर नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने अंडमान द्वीप को ब्रिटिश ़गुलामी से आ़जाद कराके वहाँ तिरंगा झंडा लहरा दिया है।
विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद नवंबर १९४७ में सबसे पहले `ब्लिट़्ज' ने छापा कि अमरीका-रूस के बीच `शीतयुद्ध' की शुरुआत हो गयी है। पाकिस्तान के निर्माता मोहम्मद अली जिन्ना की कराची में मौत की ़खबर जबकि वहाँ के हुक्मरान ने पाकिस्तान की जनता से छुपाकर रखी थी, `ब्लिट़्ज' ने उसे सबसे पहले छापकर सारी दुनिया के सामने उजागर कर दिया। यह भंडाफोड़ भी सबसे पहले सि़र्पâ `ब्लिट़्ज' ने किया था कि जम्मू-कश्मीर पर कबाइलियों के भेस में घुस आये हमलावर पाकिस्तानी सिपाहियों का तथाकथित पठान कमांडर जनरल तारी़क असल में ओ.एस.एस. (सी.आइ.ए. का पूर्व रूप) का अमेरिकन ब्रिगेडियर रसेल हेट था।
जब जवाहरलाल नेहरू ने अपने गुरु गाँधीजी तथा खुद के वचन से फिरकर देश का विभाजन मं़जूर कर लिया तो कुपित करंजिया प्रधान मंत्री के द़फ्तर में जा धमके और गुस्से में बोले, छिन्नभिन्न देश में रहने से तो बेहतर होगा कि मैं कहीं बाहर चला जाऊँ! नेहरू ने कहा जाने से पहले कल सुबह नाश्ते पर आओ। नाश्ते पर एक और सज्जन मौजूद थे, वी.के. कृष्ण मेनन। करंजिया का रोष नाश्ते पर भी थम नहीं रहा था। अंत में नेहरू ने कहा, जाते ही हो तो अच्छा जाओ, बाहर से तुम हमारी मजबूरी को बेहतर समझ सकोगे और मेनन ने कुछ देशों की सूची और भारत के गैरसरकारी प्रतिनिधि की हैसियत से विदेश यात्रा-कार्यक्रम और अधिकारपत्र रूसी (रुस्तम खोरशीदजी) करंजिया को थमा दिया। यह था नेहरू की दूरदर्शिता और करंजिया की उपयोगिता का एक ज्वलंत उदाहरण जो बाहरी राष्ट्रों के साथ भारत के भावी संबंधों में महत्वपूर्ण मौ़कों पर अत्यंत सहायक सिद्ध हुआ।
सन 'साठ के बरसों में देश में जगह-जगह से सैकड़ोेंं टैबलॉयड विभिन्न भाषाओं में `ब्लिट़्ज' की त़र्ज पर छप रहे थे, मगर वे `ब्लिट़्ज' नहीं थे। यह रूसी करंजिया की पत्रकारिता की लोकप्रियता का ही एक पैमाना था कि बड़े अ़खबारों की टक्कर में `ब्लिट़्ज' प्रतिरोध की एक समानांतर पत्रकारिता (काउंटर मीडिया) का नेता और आदर्श बन गया था। वह भारतीयता, धर्मनिरपेक्षता और नारी-सम्मान का प्रबल समर्थक था। यह सब करंजिया के पारसी संस्कारों के कारण था। युद्धकाल में वार-कॉरस्पोंडेट रहे करंजिया और `ब्लिट़्ज' ने बर्तानवी ़फौजी अ़फसरों की अय्याशी के लिए जो शर्मनाक `वीमेंस ऑग़्जीलियरी कोर (इंडिया)' गठित की गयी थी उसको बंद कराने के लिए ़जबर्दस्त मुहिम छेड़ी और तत्कालिक ब्रिटिश शासन को उसे बंद करने पर मजबूर कर दिया था।
करंजिया की पत्रकारिता का झुकाव समाजवाद की ओर था और गाँधीजी के शब्दों में समाज के सबसे निचले पायदान पर बैठे व्यक्ति की आवा़ज बनकर सामने आना तथा उसके सरोकारों को सबसे पहले स्वर देना। “प्रâी, प्रैंâक एंड फियरलेस'' (बेलौस, बेबाक और बे़खौ़फ) उसका नीति-वाक्य था। राष्ट्रीय घटनाक्रम हो या अंतरराष्ट्रीय, उसकी भनक रूसी करंजिया को पहले ही लग जाती थी। जनता की नब़्ज की सही पहचान करने की बेमिसाल क्षमता थी करंजिया में, जिसका श्रेय जाता है `ब्लिट़्ज' के सूचनातंत्र को, जो ़जमीनीस्तर से लेकर शीर्ष तक हर जगह मौजूद था। `ब्लिट़्ज' १९४२ के `अंगरे़जो, भारत छोड़ो' आंदोलन में `कांगरेस समाजवादी अंडरग्राउंड' का मुखपत्र बन गया था। जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्रदेव, राममनोहर लोहिया, अरुणा, अशोक मेहता, पटवर्धन-बंधु, मीनू मसानी सभी समाजवादी नेता `ब्लिट़्ज' में `टीपू' छद्म नाम से लिखते और छपते रहे थे।
`ब्लिट़्ज' के दिल्ली ब्यूरो के प्रमुख मशहरू पत्रकार जी.के. रेड्डी रहे और उनके बाद ए. (अत्ता) राघवन और जोगाराव की जोड़ी; और उस मलयाली कार्टूनिस्ट को `लाँच' करने का श्रेय भी करंजिया और `ब्लिट़्ज' को जाता है जिसका नाम विश्वस्तर पर महानों में शुमार हुआ – आर.के. लक्ष्मण! उस ़जमाने में देश में शासकीय घपलों के पर्दा़फाश का पहला सेहरा भी करंजिया और `ब्लिट़्ज' के सर बँधता रहा, जिनमें `जीप ़खरीदी कांड', `हरिदास मूँधड़ा-जीवन बीमा निगम कांड, `डॉ. तेजा-जयंती शिपिंग कांड', `मोरारजी-पर्मनेंट मैगनेट कांड', जैसे भंडाफोड़ थे जिन्होंने संसद और सरकार को हिला दिया था।
कृष्णराज ठाकर्सी के व्यापारिक घोटालों का पर्दा़फाश करने पर उच्च न्यायालय ने करंजिया पर तीन लाख रुपये का जुर्माना ठोक दिया था। इसकी प्रतिक्रिया यह हुई कि जुर्माना भरने के लिए अब्बास, संतोष साहनी और बीसियों पाठक अपनी चेकबुवेंâ और चंदा लेकर `ब्लिट़्ज' कार्यालय पहुँच गये, जिसे स्वीकार करने से रूसी ने सधन्यवाद इंकार कर दिया, क्योंकि `ब्लिट़्ज' के स्टा़फ ने अपने बोनस, ग्रेचुइटी, एक माह का वेतन करंजिया के हवाले कर दिया, जो तीन लाख रुपये से कहीं ़ज्यादा होता था। आम पाठकों और ़खासकर वंâपनी के कर्मियों का ऐसा प्यार बिरले ही मालिक को प्राप्त होता है, लेकिन करंजिया ने अपने को कभी मालिक नहीं समझा।
`ब्लिट़्ज' के निशाने से मीडिया भी नहीं बचा जब करंजिया ने डालमिया-जैन साम्राज्य के आर्थिक घोटालों की विवियन बोस जाँच रिपोर्ट को कई अंकों में छापा। उन्होंने दूसरे मीडिया मसीहा रामनाथ गोयनका की धाँधलियों को भी उजागर किया। करंजिया ने जब राजीव गाँधी के ़िखला़फ `हेरिटेज केसी प्लॉट' को बेऩकाब किया तो मीडिया और संसद दोनों हिल गये थे। न्याय और राष्ट्रहित में आंदोलन, जनजागरण और “स्वूâप'' रूसी करंजिया का जुनून था।
रूसी करंजिया की पत्रकारिता के प्रति जुनून
करंजिया इस हद तक जुनूनी पत्रकार रहे हैं कि भारत की समाजवाद की ओर प्रवृत्त नीतियों के कट्टर विरोधी सांसद आचार्य कृपालानी को “कृपालूनी'' शीर्षक से – `ब्लिट़्ज' के वकीलों की सलाह के विपरीत – पहले पन्ने पर छापकर संसद की अवमानना करने के दोषी पाये जाने की जो़िखम उठायी और उन्हें संसदीय प्रतारणा झेलनी पड़ी; जबकि वर्षों बाद उसी करंजिया कोे संसद के ऊपरी सदन `राज्यसभा' का सदस्य नियुक्त होने का भी गौरव प्राप्त हुआ। करंजिया की जुनूनी पत्रकारिता का निशाना न्यायपालिका भी बनी जब निचली अदालत ने उन्हें आ़िखरी पन्ने पर कथित “अश्लील चित्र'' (पिन-अप) छापने का दोषी ठहराया, मगर हाइ कोर्ट ने उस निर्णय को उलट दिया था, जिस पर करंजिया ने ऊपरी अदालत के ़पैâसले को आधार बनाकर निचली अदालत के जज की खिल्ली उड़ाते हुए बहुत ही कटु लेख (यह भी वकीलों की सलाह के ़िखला़फ) छाप दिया। इसे हाइ कोर्ट की नागपुर पीठ ने अदालत की अवमानना करार दिया और करंजिया को पंद्रह दिन की ़वैâद की स़जा सुना दी। जब उन्हें ट्रेन से नागपुर जेल ले जाया जा रहा था, बंबई से नागपुर तक हर स्टेशन पर जहाँ गाड़ी रुकती थी, ह़जारों की संख्या में `ब्लिट़्ज' के प्रशंसकों ने करंजिया को हीरो-जैसी विदायी दी और कोई एक ह़फ्ते बाद ही जेल से स़जा काटकर लौटते समय उससे बड़ी संख्या में उनका स्वागत किया। बॉम्बे वी.टी. (अब छत्रपति शवाजी स्टेशन) पर दसियों ह़जार छात्र-युवा-युवतियाँ, शहरी और कामगार और उनके नेतागण, प्रगतिशील मीडिया पूâलमालाएं लेकर पहुँचे और जलूस के साथ करंजिया को ब्लिट़्ज-द़फ्तर लाया गया।
केरल के कम्यूनिस्ट नेता गोपालन को एक राजनीतिक हत्या के आरोप में मौत की स़जा हो गयी थी, उन्हें फाँसी के पंâदे से बचाने के लिए `ब्लिट़्ज' ने राष्ट्रव्यापी हस्ताक्षर आंदोलन छेड़ा और गोपालन को बचाने में सफलता प्राप्त की। जम्मू-कश्मीर, जूनागढ़, हैदराबाद और ़खासकर गोआ को भारत में विलय करने की मीडिया-मुहिम की अगुवाई की। करंजिया के जुनून की अनगिनत मिसालें हैं। वह बुनियादी तौर पर एक जागरूक देशभक्त पत्रकार थे।
`ब्लिट़्ज' के राजनीतिक प्रभाव और आकलन और सक्रिय जुनून की मिसाल बंबई में कोलाबा की सीट से बंबई के `बेताज के बादशाह', वेंâद्रीय मंत्री सादोबा पाटिल के ़िखला़फ समाजवादी म़जदूर नेता जॉर्ज फर्नांडिस को खड़ा करना और जितवा देना भी है, जबकि तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया पाटिल का गुणगान और उनकी जीत की भविष्यवाणी कर रहा था, सट्टा लगा रहा था। `ब्लिट़्ज' ने जॉर्ज की जीत का समाचार “जॉइंट किलर जॉर्ज'' की हेडलाइन से छापा था। करंजिया की पत्रकारिता कांगरेस की धर्मनिरपेक्ष-समाजवादी और विकासनीति का समर्थन करती थी तो साथ ही वामपंथ की ़गरीब-म़जदूर हितैषी माँगों की प्रबल समर्थक थी।
अंतरराष्ट्रीय मंच पर रूसी करं़जिया नाटोसंधिवाले पश्चिमी पूँजीवादी देशों तथा वारसा संधिवाले सोवियत गुट के देशों की खेमेबंदी से अलग हटकर नेहरू, नासर और टीटो की त्रिमूर्ति के गुट-निरपेक्षता के सिद्धांत का समर्थक था। ़िजयोनि़ज्म (यहूदीवाद) का विरोध, अरब देशों के साथ दोस्ती और विकासशील देशों के निर्गुट संगठन की स्थापना `ब्लिट़्ज' के अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण के आधार रहे हैं और करंजिया के अरब देशों के साथ संपर्कों का भारत सरकार को ़गैरसरकारी स्तर पर यथेष्ट वूâटनीतिक लाभ भी मिलता रहा है, जैसे बाँग्ला-युद्ध में भारत को शाह ईरान से करंजिया की मित्रता का फायदा पाकिस्तान के ़िखला़फ सक्रिय समर्थन मिलने में हुआ।
सिने ब्लिटज़ में न्यूड तस्वीर
रूसी करंजिया ने जब `सिने ाqब्लट्ज' ('७४ में) निकाली तो उसके पहले अंक के मुखपृष्ठ पर एक मॉडल की न्यूड तस्वीर छापी थी।
न्यूड (नंगी, नग्न, नग्नता) के बारे में आम भारतीय धारणा सौंदर्यबोध और वासना में भेद नहीं कर पाती है। '७४ में `सिने ाqब्लट्ज' के पहले अंक के मुखपृष्ठ पर जो ़फोटोग्रा़फ छपा था वह एक फोटो-कलाकृति थी।
करंजिया `ब्लिट़्ज' के लास्ट पेज पर ख्वाजा अहमद अब्बास के लोकप्रिय कॉलम के साथ एक `पिन-अप' हर ह़फ्ते छापते रहे हैं, जिनमें से कुछ चित्रों पर हो-हल्ला भी मचा है। अब्बास `पिन-अप' छापने के विरोधी रहे हैं। करंजिया का कहना था कि कलात्मक “नग्न (न्यूड) या अर्धनग्न तस्वीर'' पूरे अंक में छप रही बोझिल गद्यात्मक सामग्री से पाठक के दिलो-दिमा़ग को राहत दिलाती और उसके सौंदर्यबोध को विकसित करने का काम करती है।
करंजिया के खिला़फ ऐसे ही एक पिन-अप पर मु़कद्दमा चला था, जिसे उच्च न्यायालय ने “सौंदर्यबोध'' करार दिया, मगर ऊपरी अदालत के ़पैâसले के अंशों को आधार बनाकर निचली अदालत की खिल्ली उड़ाने पर उन्हें पंद्रह दिन की स़जा हुई, जो करंजिया ने “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सेनानी'' की तरह भोगी। `सिने ाqब्लट़्ज' के पहले अंक के पहले पेज पर एक सिने अभिनेत्री की इसी अंक के लिए खींची गयी `निरवस्त्र' तस्वीर के छपने पर बड़ा हंगामा मचा, लेकिन अंततः उस तस्वीर को ़फोटोग्राफर की “कलाकृति'' माना गया। आज अंगरे़जी के सभी अ़खबारों के पेज तीन पर और ़खासतौर पर सिनेमा की पत्रिकाओं में ऐसी तस्वीरें, जिनमें कुछ पूâहड़ भी होती हैं, खुले आम छापी जा रही हैं। चैनल तो उनसे भी आगे निकल गये हैं। ऐसी पत्रकारिता को खजुराहो के मंदिरों के बाहर सुदर्शित कामशास्त्रीय भित्तिमूरतों के समकक्ष नहीं माना जा सकता, विंâतु अगर वे तुलनीय भी हों, तो भी हिंदी ब्लिट़्ज' ने उसे भाषायी पत्रकारिता से बाहर ही रखना बेहतर समझा, क्योंकि खजुराहो-युग और आज के १८वीं सदी से लेकर २१वीं सदी तक के काल-समय में एक साथ जी रहे बहुसंख्य भारतीय समाज के संस्कारों से यह मेल नहीं खातीं।
जब यह सवाल `हिंदी ब्लिट़्ज' के सामने भी दरपेश हुआ, तो उसने अपने पाठकों के सामने यह सवाल रखा और उनमें विभाजित राय पायी। `हिंदी ब्लिट़्ज' के संपादक मंडल में भी विभाजित मत था, अतः हिंदी में आ़िखरी पेज पर एक सुंदर नारी के मुखचित्र के मनोभावों के अनुवूâल उसे किसी बड़े शायर या कवि के शे'र या कविता के साथ छापना शुरू किया, जिसकी बड़ी तारी़फ हुई और अनेक पाठकों ने तो उनकी कटिंगें जमा करना भी शुरू कर दांr। एक ऐसा ही चित्र एक तत्कालीन नामी फिल्म-हीरो तथा हीरोइन का छपा था और उसके नीचे छापे गये कैप्पशन र हीरोइन ने एतरा़ज जताया था। `ब्लिट़्ज' ने नायिका से तुरंत मा़फी माँग ली थी, मगर साथ में कैप्शन के शे'र का गूढ़अर्थ भी दिया और वह मुतमईन भी हुर्इं।
ब्लिट़्ज का मुंबई की पत्रकारिता में योगदान
देश और आम जनता के हित में अ़खबार ने `ब्लिट़्ज नेशनल फोरम' की स्थापना की जिसके मंच से देश के सामने मुँह बाये खड़ी अनेक सामयिक समस्याओं और सरोकारों पर विभिन्न विधाओं के शीर्षस्थ विचारकों को प्रस्तुत किया जाता रहा।
राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय मामलों के साथ-साथ मुंबई की पत्रकारिता में `ब्लिट़्ज' का योगदान महत्वपूर्ण रहा है। मुंबई के छात्रों और शहरियों की समस्याओं को स्वर देने के लिए यहाँ छपनेवाले दैनिक तथा अन्य नियतकालिक प्रकाशनों/ अ़खबारों में `ब्लिट़्ज' पहला साप्ताहिक बना जिसने मुंबई पर वेंâद्रित `बॉम्बे ब्लिट़्ज' नाम से सप्लीमेंट शुरू किये। मुंबई की कुल पत्रकारिता के बीच भाषाई पत्रकारिता में हिंदी, उर्दू और मराठी में `ब्लिट़्ज' प्रकाशन प्रारंभ किये। ब्लिट़्ज-संस्थान अंगरे़जी में मुंबई का प्रथम टैबलॉयड दैनिक अ़खबार `द डेली' लेकर आया। सिनेमा के क्षेत्र में `सिने ब्लिट़्ज' का प्रकाशन प्रारंभ किया, तो उसने अपने पहले ही अंक से हंगामा मचा दिया। उस अंक की प्रतियाँ `ब्लैक' में बिकीं!
जब समानांतर पत्रकारिता के रूप में स्थापित हो चुके अंगरे़जी `ब्लिट़्ज' परिवार में हिंदी `ब्लिट़्ज' का शुमार हुआ तो यह हिंदी भाषा और भाषायी अभिव्यक्ति में परिवर्तनकारी योगदान करनेवाला साबित हुआ। हिंदी `ब्लिट़्ज' की “सरल, सुबोध और सही'' हिंदी ने उस समय के लगभग सभी हिंदी अ़खबारों और पत्र-पत्रिकाओं की “क्लिष्ट भाषा और उलझी हुई शैली'' को प्रभावित किया। हिंदी `ब्लिट़्ज' अंगरे़जी के अनूदित संस्करण की चाहरदीवारी तक सिमटा हुआ नहीं रहा। हिंदी में अपना एक स्वतंत्र व्यक्तित्व गढ़ने की ताब हिंदी संस्करण के प्रथम संपादक मुनीश नारायण सक्सेना और नंदकिशोर नौटियाल जैसी पत्रकार टीम की वजह से पैदा हुई, जिसका श्रेय रूसी करंजिया को भी देना होगा, क्योंकि उन्होंने हिंदी `ब्लिट़्ज' को पूर्ण संपादकीय स्वतंत्रता दे रखी थी।
इसी आ़जादी की वजह से हिंदी की अपनी अलग रिपोर्टिंग और अलग स्तंभ शुरू हुए। ़ख्वाजा अहमद अब्बास अंगरे़जी का `लास्ट पेज' लिखते थे, तो हिंदी में अंतिम पृष्ठ `आ़जाद ़कलम' के नाम से छपता था, जो बाद में उर्दू `ब्लिट़्ज' निकलने पर उसमें भी छपता रहा, लेकिन `आ़जाद ़कलम' अंगरे़जी के `लास्ट पेज' का अनुवाद कभी नहीं रहा। अब्बास साहब के देहांत के बाद अंगरे़जी का लास्ट पेज मशहूर पत्रकार पी. साईनाथ लिखने लगे। असल में खुद अब्बास साहब ने यह पेज साईनाथ को करंजिया को लिखे पत्र में एक तरह से वसीयत किया था।
हिंदी में यह स्तंभ मुंबई के जानेमाने कवि-साहित्यकार और लोकप्रिय नेता डॉ. राममनोहर त्रिपाठी लिखते रहे। हिंदी में ़िफल्म-नाटक और मनोरंजन स्तंभ `रँगारंग' उमेश माथुर करते थे तो `नयी गुलिस्ताँ' वैâ़फी आ़जमी रचते थे। हिंदी की ़िजले-़िजले में, यहाँ तक कि तालुका स्तर तक एक अलग ही टीम खड़ी हो गयी थी, जिसने ब्लिट़्ज-संस्थान की शक्ति कई गुना ब़ढ़ा दी थी। `ब्लिट़्ज' शुरू से ही प्रगतिशील, जुझारू और भंडाफोड़ करनेवाला अ़खबार था। जहाँं `ब्लिट़्ज' ने इंदिरा गाँंधी को `गरीबी हटाओ' कार्यक्रम में प्रबल समर्थन दिया वहीं आपातकाल की ़ज्यादतियों के खिला़फ इंदिरा गांधी के इर्दगिर्द जमा “चंडाल चौकड़ी'' (गैंग ऑफ फोर) का ़जबर्दस्त भंडाफोड़ भी किया। `ब्लिट़्ज' की दृष्टि और नीति का मापदंड एक ही होता था कि आम आदमी का हित किस बात से सधेगा और कौन-सी बात आम आदमी के हितों के विपरीत जायेगी।
नंदकिशोर नौटियाल के संपादन में हिंदी `ब्लिट़्ज' को आम जनता और युवा-वर्ग ने इस हद तक अपना मददगार मान लिया था कि आपातकाल में जयपुर विश्वविद्यालय के छात्रों ने “नौटियाल ब्रिगेड'' की स्थापना कर डाली थी और वाइस चांसलर के ़िखला़फ अपनी माँगों को लेकर मुहिम छेड़ दी थी। नतीजा यह हुआ कि विद्वान वाइस चांसलर पं. गोबिंद चंद्र पाँडेजी ने संपादक नौटियाल को जयपुर आमंत्रित किया और छात्र संघर्ष को सुलझवाया। इसी प्रकार हिंदी `ब्लिट़्ज' में छपी एक रिपोर्ट को साक्ष्य मानते हुए अदालत ने सागर विश्वविद्यालय के छात्रों को एक आपराधिक मामले में बरी कर दिया था। जनहित की इस नीति पर चलते हुए हिंदी `ब्लिट़्ज' की प्रसार संख्या साढ़े तीन लाख प्रतियाँ हर ह़फ्ते तक पहँुच गयी थींr और यह रिकार्ड नौटियाल के संपादकत्व में (१९७३ के बाद) स्थापित हुआ था। `ब्लिट़्ज' अकेला अ़खबार था जो अपने मुखपृष्ठ पर छापता था “अपना ब्लिट़्ज मिलबाँट कर पढ़ें!''
ब्लिट्ज़ अन्याय विरोधी समानांतर पत्र
`ब्लिट़्ज' को सत्ताविरोधी कहना ठीक नहीं रहेगा। वह बुराई के प्रतिरोध का अ़खबार था, बुराई पक्ष-विपक्ष जिस भी दिशा में हो, वह सत्ता के अंध-विरोधी नहीं था। वह अन्याय विरोधी समानांतर पत्र था। वह प्रतिक्रियावाद के ़िखला़फ प्रगतिशीलता का पक्षधर अ़खबार था। संक्षेप में `ब्लिट़्ज' प्रगतिशील और जुझारू अ़खबार था। वह विकास और आधुनिकता का समर्थक, पीछे की ओेर नहीं आगे की ओर देखनेवाला अ़खबार था। `ब्लिट़्ज' ने भाखड़ा-नंगल, नये विज्ञानवेंâद्रों, निजी और सार्वजनिक उद्यमों की स्थापना जैसे “भारत के नये मंदिरों'' का, ़जमींदारी-विनाश, प्रीवी पर्सों का ़खात्मा और बैंकों के राष्ट्रीयकरण आदि कार्यों का पुऱजोर समर्थन किया। राष्ट्रीय विकास के लिए “नदियों की माला'' तथा “भूमि सेना'' बनाने का करंजिया और `ब्लिट़्ज' अंत तक ़जबर्दस्त पैरवी करता रहा, जो इस देश के “जल'' और “जन'' संसाधन को ़जाया जाने से बचाने और देश को आर्थिक रूप से शक्तिशाली बनाने का अचूक मंत्र साबित हो सकता था। करंजिया के अरब देशों के साथ संपर्कों का भारत सरकार को गैरसरकारी स्तर पर यथेष्ट वूâटनीतिक लाभ भी मिलता रहा है, जैसे बाँग्ला-युद्ध के दौरान भारत को शाह ईरान से करंजिया की मित्रता का ़फायदा पाकिस्तान के ़िखला़फ खुला समर्थन मिलने में पहुँचा।
ब्लिट़्ज : पीत पत्रकारिता या खोजी पत्रकारिता
`ब्लिट़्ज' पर कीचड़ उछालनेवालों को मुँहतोड़ जवाब देते हुए खुद करंजिया ने लिखा था, “ब्लिट़्ज को तमाम नकारात्मक रंगों में रँगा जा रहा है, यानी पीले, लाल, काले वगैरह; लीजिये हमने उनके जवाब में अपने अ़खबार को उन तमाम रंगों में प्रस्तुत करते हुए एक होर्डिंग लगा दी है और उस पर लिख दिया है: `जी हाँ, लोग हमें पढ़ते हैं !' अगर यह पूछना चाहते हैं कि हमारी समझ का दार्शनिक आधार क्या है, तो वह था, है और हमेशा रहेगा – नेहरूवाद – अर्थात लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, ़गरीबहितैषी, तटस्थता और दृढ़ता के साथ साम्राज्य-विरोध।''
संक्षेप में `ब्लिट़्ज' प्रगतिशीलता और समानता के सरोकारों का जुझारू अ़खबार था। किसी भी अन्य समकालीन भारतीय पत्रकार का देशहित में, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के हित में करंजिया जितना योगदान शायद ही गिनाया जा सके; जिसे तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया ने हिकारत के साथ “पीत पत्रकार'' कहकर भारत के पत्रकारिता के इतिहास से उसके सकारात्मक रोल के बावजूद `ब्लैक आउट' कर रखा है। `ब्लिट़्ज' की सनसनी़खे़ज भंडाफोड़ पत्रकारिता से जहाँ उल्टे-सीधे काम करनेवाले अ़फसर-नेता-पूँजीपति ़खौ़फ खाते थे, वहीं सेठसेक्टर और उनके पत्रकार घृणा के साथ उसे पीत पत्रकारिता (येलो जरनैलि़ज्म) कहा करते थे। उसका गला घोंटने में कोई कसर उठा नहीं रखते थे।
आज लगभग सभी मीडियावाले “स्वूâप'' के नाम पर एक अजीब दैह्यात्मिक/ऐंद्रिक आनंद का आभास करते हैं, जबकि `ब्लिट़्ज' के “भंडाफोड़'' से होनेवाली आर्थिक धाँधलियों और सामाजिक दुराचारों के – जो आज विकराल रूप धारण कर चुके हैं – पर्दा़फाश पर करंजिया को पानी पी-पीकर कोसते रहते थे!
हवा का रु़ख
सन १९९१-९२ के वर्ष की बात है करंजिया ने अपने वरिष्ठ संपादकीय सहयोगियों की बैठक बुलायी। `ब्लिट़्ज' में रूसी करंजिया नीतिगत निर्णय बैठक बुलाकर उनकी राय सुनने के बाद ही लिया करते थे। उन्होंने कहा कि मेरा आकलन है कि अब वेंâद्र में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सत्ता में पहुँचनेवाली है, इसलिए हमें उसका समर्थन करना चाहिये। आज के मशहूर जुझारू पत्रकार पी. साईनाथ ने इसके विपरीत तर्वâ दिये। होमी मिस्त्री, अल्मीडा, द' डेली के संपादक नायर, सभी की ऩजर में भाजपा अभी सत्ता से बहुत दूर थी। हिंदी के संपादक नौटियाल का कहना था कि भले भाजपा सत्ता के ़करीब पहुँच रही हो मगर हमें उसका विरोध करना चाहिये और उर्दू के संपादक हारून रशीद ने उनकी ताईद की थी। सबकी राय सुनने के बाद करंजिया ने भाजपा-समर्थन की नीति मं़जूर कर ली। क्या यह करंजिया का अवसरवाद था? नहीं। वह हवा के रु़ख भाँपने और उसके साथ चलनेवाला पत्रकार था और हवा कांगरेस के ़िखलाफ बहना शुरू हो गयी थी।
(क्रमशः, हिंदी `ब्लिट़्ज', उर्दू `ब्लिट़्ज')