सन 1994 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 9 अगस्त को विश्व मूलनिवासी दिवस की घोषणा के बाद से निरंतर विश्व में इस दिवस को अंतर्राष्ट्रीय मूलनिवासी दिवस के रूप में मनाया जाता है। भारत में भी इस दिन को आदिवासी दिवस के रूप में मनाने का चलन प्रारंभ हुआ है। हालांकि भारत ने UNO में अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी है। विश्व भर के जनजातियों के लिए काम करने वाले मेजर सुरेंद्र सिंह के अनुसार भारत में रहने वाले सभी भारत के मूल निवासी हैं इसलिए भारत में मूल निवासी दिवस अलग से मनाने का कोई औचित्य नहीं रह जाता है।
भारत में रहने वाले सभी एक ही वंश के हैं। कोई भी भिन्न वंशीय नहीं है और फिर कोई भी समूह Indiginous अर्थात समाप्ति के खतरे की श्रेणी में नहीं आता है। विश्व के 90 से अधिक देशों की स्थिति भिन्न है। वहां 45.6% लोग जो विश्व का लगभग 5 से 6% है, इनकी संख्या निरंतर घटते घटते समाप्ति की ओर बढ़ रही है। मूलनिवासी अमेरिका के रेड इंडियंस ऑस्ट्रेलिया के टोरस वंश के सामने जैसा संकट है वैसा भारत में दिखाई नही देता है।
भारत में आदिवासी दिवस कुछ प्रश्न छोड़ जाता है। जिनकी पड़ताल करना जरूरी है: जैसे –
मूल निवासी कौन?
भारत में इस तरह के मूलनिवासी दिवस का चलन क्यों हुआ?
इस आयोजन का औचित्य क्या है?
वास्तव में भारत के संदर्भ में केवल राजनीतिक लाभ लेने की होड़ और वर्ग विभेद उत्पन्न करने का षड्यंत्र ही इस आयोजन के मूल में दिखाई देता है। कुछ राज्य सरकारों ने 9 अगस्त पर ऐच्छिक अवकाश घोषित किया तो राजस्थान सरकार ने सार्वजनिक अवकाश भी घोषित कर इस प्रवृति को और अधिक हवा देने की कोशिश की है। इसमें केवल और केवल वोट बैंक खड़ा करने का कुचक्र दृष्टिगत होता है।
भारत में रहने वाले सभी मूलनिवासी है। इतिहास का ठीक से अध्ययन करने पर हम यह जान सकते हैं कि मुगल आक्रांताओं यथा ईरानी, इराकी, तुर्की, अफगानी, उजबेक तथा अंग्रेजों के अतिरिक्त यहां कोई बाहरी नहीं है। लाखो वर्ष पूर्व हुए भगवान राम के वंशज हम सब यहां के मूल निवासी है। भगवान राम से संबंध रखने वाले निषादराज, केवट, सबरी तथा भगवान कृष्ण के काल के एकलव्य, हिडिंबा, घटोत्कच इत्यादि अनेक ग्रामवासी, वनवासी, गिरीवासीयों का संबंध भारत की मुख्य धारा से दिखाई देता है। अतः हम यह दृढ़ विश्वास के साथ कह सकते हैं कि हम सब भारत के मूल वैज्ञानिक प्रमाण भी है:-
सन 2018 में राखीगढ़ी में लगभग 6500 वर्ष पुराने एक कंकाल के डीएनए के अध्ययन से यह सिद्ध होने के बाद की सभी भारतीय लोगों के DNA एक ही वंश के हैं। तब से आर्य-द्रविड़ सिद्धांत पर पूर्णविराम लग चुका है। यह शोध देश-विदेश के 30 वैज्ञानिकों के दल ने किया था।
मूलनिवासी जैसा शब्द अमेरिका के रेड इंडियंस ऑस्ट्रेलिया न्यूजीलैंड आदि के संदर्भ में उपयुक्त है। यहां यूरोपीयंस ने जबरन प्रवेश किया। भारत के संदर्भ में इसे थोपना अनुचित और कुत्सित प्रयास ही कहा जाएगा। एक अन्य शब्द आदिवासी का चलन भी है। राज्य सरकारें आदिवासी दिवस का अवकाश घोषित कर रही है। किसी छोटे से क्षेत्र के संदर्भ में इस शब्द को समझा जा सकता है जैसे कोई नगर बसाने के लिए अथवा कोई फैक्ट्री लगाने के लिए जंगल की जमीन या किसी गांव की जमीन का उपयोग करना है और उसे अधिग्रहित किया जाए तो उस जंगल या गांव में पहले से रहने वाले वहां के आदिवासी अर्थात प्रारंभिक निवासी कहलाएंगे लेकिन संपूर्ण राष्ट्र के संबंध में यह शब्द जब काम में लिया जाए तो यह अनुचित ही होगा। यह शब्द पद भी विभेदकारी ही है। क्योंकि हम सब भारतवासी भारत के आदिवासी हैं। वैधानिक शब्द अनुसूचित जनजाति यह अधिक उपयुक्त है। अनुसूचित जनजाति उनके लिए जो विकास यात्रा में अपने वास स्थान की दुर्गमता के कारण पिछड़ गए, उनके लिए का उपयोग किया जाना समीचीन लगता है। अन्यथा तो हम सभी भारतवासी भारत के मूलनिवासी अर्थात भारत के आदिवासी है।
भारत में रहने वाली अनेक जनजातियां आज भी स्वयं को राम और कृष्ण से अपना संबंधित संबंध मानती है। जैसे भील स्वयं को शबरी की संतान मानते हैं। किसी समय शबर जाती विद्वान जाती थी, उन्होंने शबर की रचना की थी। मीणा और गोंड जनजातियां किसी समय शासक थी। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार बंगाल के डोम जनजाति के शासक । अधिकार वंचित होने पर वे दुर्दांत हो गए। अंग्रेजों ने चतुराई से उन्हें चौकीदार का काम सौंप दिया। राजस्थान में भीलों ने महाराणा प्रताप का साथ दिया और स्वतंत्रता हेतु संघर्ष किया। उत्तराखंड की बुक्सा जनजाति अलाउद्दीन खिलजी से हारने के बाद जंगलों में चली गई 700 वर्ष बाद भी वह अपनी परंपराओं का पालन करना नहीं भूले हैं। आज वे अनुसूचित जनजाती में शामिल है। भारत की जनजातियों का इतिहास खोजने निकलेगे तो हम पाएंगे कि भारतीय जनजातियां भारत के प्राण है। भारत की मुख्य धारा का सदा हिस्सा रहे हैं। यह कोई भिन्न वंश नहीं है। समय काल परिस्थिति के अनुसार विभिन्न समूहों के वास स्थान में परिवर्तन होता गया। इस कारण अनेक नगरवासी वनवासी बनते गए। इस प्रवृत्ति में मुगल और अंग्रेज अत्याचारों ने बढ़ावा ही दिया है। मुगल काल में “स्वधर्मों निधनम श्रेयम” को मंत्र मानते हुए अनेक हिंदुओं ने स्वयं की स्थिति का पतन स्वीकार कर लिया किंतु “परधर्मो भयावह” मान कर मतांतरण नहीं किया। यही कारण है कि भारत में अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जातियों की संख्या निरंतर बढ़ती ही गई। जो किसी समय मुख्यधारा में थे वे कालान्तर में बिछड़कर वनवासी हो गए आज वे अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल है। अनेक समूह प्राचीनकाल से ही वनों में रह रहे है। हमारे तत्कालीन वैज्ञानिक अर्थात ऋषि मुनि भी वनवास ही अनुकूल स्थान मानते थे। भारत के वनवासियों का ज्ञान, प्रकृति के साथ सह अस्तित्व में जीवन जीवन जीने का कौशल, उनका जल प्रबंधन, उनका समाज जीवन सब कुछ उत्कृष्ट है।
फिर भारत में आदिवासी दिवस क्यों?
भारत में आदिवासी दिवस एक षड्यंत्र के अंतर्गत थोपा गया दिखता है। भारत को खंडित करनें, कमजोर करने की साजिश करने वाले हर दृष्टि से भारतीय समाज को खंडित करने का षड्यंत्र रचते रहते हैं। उन्हीं में से एक है मूलनिवासी दिवस और इसी क्रम में बाहरी एवं कृतिम विवाद उत्पन्न करने का षड्यंत्र चल रहा है। इसमे अग्रणी वामपंथी विचार काम कर रहा है। वामपंथ का मूल अधिष्ठान ही यही है कि संगठित समाज में पाई गई विभिनता को भेद में बदलकर उभारना, समूहों के बीच दूरियां बढ़ाना, समाज को खंडित करना, खंडित समाज में उत्पन्न वर्गों में वर्ग संघर्ष उत्पन्न करना, व्यवस्था का विरोध कर अव्यवस्था और अराजकता उत्पन्न करना। क्योंकि अराजकता में ही उन्हें क्रांति के बीच दिखाई देते हैं। इस तरह राष्ट्र की सत्ता को हथियाने के लिए विभिन्न प्रकार के कुचक्र रचना वामपंथ का मूल अधिष्ठान है। भारत में आदिवासी कही जाने वाली अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या 8% है। इस वर्ग को अलग कर राजनीतिक लाभ लेने का अवसर देखने वाले कुबुद्धि लोग ऐसे आयोजनों और दिवसों को अपना अवसर बनाकर हथियार के रूप में उपयोग करते दिखाई देते हैं।
दो धाराएं:-
हिंदुस्तान में एक ओर सांस्कृतिक और राष्ट्रीय विचारों को मानने वाले लोग भी है और भारत में अराजकता की राजनीति चाहने वाले दूसरे। ये दो स्पष्ट वर्ग दिखाई देते हैं और दोनों वर्ग यह जानते भी हैं और मानते भी हैं कि केवल सूसंगठित तथा शक्तिशाली समाज ही स्वतंत्र और शांतिमय, समृद्धशाली जीवन के पलों का आनंद ले सकता है। केवल एक सशक्त राष्ट्र और संगठित राष्ट्र ही आंतरिक ह्रास एवं विद्वंस रोक सकता है। बाहरी आक्रमणों को परास्त कर सकता है तथा अपनी एकता एवं स्वतंत्रता को सुरक्षित रख सकता है।
इसी को दृष्टिगत रखते हुए अराजकता के उपासक राष्ट्र की सूसंगठित स्थिति को कमजोर करने के कुचक्र रचते रहते हैं। भारत में आदिवासी दिवस/ मूलनिवासी दिवस को इसी की एक कड़ी के रूप में देखना चाहिए।
अंत में एक प्रश्न फिर उभर कर आता है कि क्या विश्व का कोई समुदाय जैसे यूरोपियन अपने पापों का प्रायश्चित मूलनिवासी दिवस के रूप में करें तो क्या हम निष्पाप होते हुए भी वही कार्य करने लग जाए जो कि हमारे राष्ट्र के लिए स्पष्ट घातक होता दिख रहा है।
हमें क्या करना चाहिए?
निश्चय ही उत्तर होगा: नहीं हम अपनी माटी के अनुरूप ही कार्य करें, हमें अपने तरीके से विश्व का मार्गदर्शन करना है, पिछलग्गू बनकर स्वयं पतन की ओर नहीं जाना है।
राष्ट्रीय एकता और संगठित समाज के पक्षधर समूह को चाहिए कि वे ऐसे षड्यंत्र को समझें और राष्ट्रीय एकता की दिशा में तीव्र गति से कार्यलग्न हो जाए।
हमें चाहिए हम अपने सांस्कृतिक विरासत, अपने गौरवशाली इतिहास, अपनी श्रेष्ठ परंपराओं से जुड़े रहते हुए, आधुनिक विकास में पिछड़ गए बंधुओं को साथ लेते हुए, संगठित राष्ट्र के रूप में विश्व का मार्गदर्शन करें और तदअनुरूप विश्व समुदाय के साथ अपने कदम मिलाकर चलें । किसी भी विभेदकारी षड्यंत्रों को दरकिनार करते हुए अपने राष्ट्र को संगठित समरस बनाने की दिशा में आगे बढ़े, और विभिन्नताओं को दूरियों या खाई के रूप में बदल कर समाज को विघटित नहीं होने दें।
( लेखक राजस्थान सरकार की कक्षा 3,4 व 5 की पाठ्यपुस्तकों में लेखन से जुड़े रहे हैं)
मनमोहन पुरोहित
(मनु महाराज)
फलोदी राजस्थान
7023078881
On Mon, Aug 10, 2020 at 6:17 PM Manu MahaRaj
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> नवोदित लेखक हूँ। प्रथम बार आलेख भेज रहा हूँ।
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