भारत एक तीखी झुलस से घिरा हुआ है. देश का कमोबेश हर कोना विकराल गर्मी की चपेट में है. जानलेवा लू चल रही है और बड़े पैमाने पर लोग मारे जा रहे हैं. लेकिन देश का सत्ता-तंत्र वातानुकूलित ठंडई में पड़ा है.
पिछली गर्मियों के मुकाबले इस साल अब तक हुई मौतों का आंकड़ा चौंकाने वाला है. गर्मी महामारी की तरह फैली हुई लगती है. इन लाइनों के लिखे जाने तक आंकड़ा 600 पार कर गया है. वे जमाने अब कथा कहानियों में ही सिमट गए लगते हैं जब घने छायादार पेड़ों से सड़क किनारे भरे हुए रहते थे और गांव देहात कहीं भी लू की चुभन नहीं महसूस नहीं होती थी लेकिन इधर जिस बड़े पैमाने पर पेड़ काटे गए हैं और सेज (विशेष आर्थिक क्षेत्र) के लिए अंधाधुंध निर्माण कार्य लगातार चल रहा है, इस सब ने मिलकर गर्मी को जैसे कहर बनकर टूटने की नौबत दे दी है. मरने वाले ज्यादातर लोगों में गरीब दिहाड़ी मजदूर और बूढ़े लोगों की संख्या अधिक पाई गई है.
जाहिर है गर्मी का प्रकोप कुपोषित और सुविधाओं से वंचित शरीर को सबसे पहले चपेट में लेता है. बुनियादी सुविधाओं में पीने का साफ, ठंडा पानी, बेसिक दवाओं की कमी, घर-मकान और बिजली शामिल हैं. बेघर लोगों के लिए सिर्फ सर्दियों की कंपकंपाती रातें ही असहनीय नहीं होती, उनके लिए ये आग उगलते दिन भी जानलेवा बन जाते हैं. इसलिए रैनबसेरों को लेकर सरकारों को अपनी नीतियों में विस्तार करना होगा. और बेघरों के लिए ऐसी व्यवस्था करनी होगी कि वे कुछ समय चैन और छांव में बिता सकें. लेकिन चिंता की बात है कि न तो गाजेबाजे के साथ एक साल पूरा करने वाली प्रचंड बहुमत की सरकार के पास और न ही प्रांतीय सरकारों के पास इन मौतों पर या असहनीय गर्मी से निपटने के बारे में कोई हरकत फिलहाल दिखती है.
और ये आज की सरकार की बात नहीं है, कोई भी सरकार हो, ये मुद्दे उसकी प्राथमिक सरोकार सूची से तो लगता है हट ही गए हैं. वरना क्या कारण है कि अन्य मृत्यु दरों की तरह हीट मॉर्टिलिटी रेट यानी गर्मी से होने वाली मृत्यु का कोई पैमाना नहीं बनाया गया है. आज जो मौतें बताई जा रही हैं इनकी संख्या कम होने का संदेह इसीलिए किया जा रहा है कि यहां उसकी पूरी रिपोर्ट नहीं की जा रही हो सकती है. इसकी वजह से न कोई पूर्व चेतावनी सिस्टम है और न ही पब्लिक हेल्थ की तैयारी का कोई सिस्टम. सरकारें आमतौर पर लू या तेज गर्मी की चपेट में आने से तत्काल हुई मौतों को ही गिनती में लेती है लेकिन गर्मी की चपेट में आने से कई शारीरिक समस्याएं बढ़ जाती हैं. और उसके असर शरीर के कई अंगों पर बाद में दिखते हैं. जैसे सांस की तकलीफें या किडनी को नुकसान आदि. इनमें मौत भी संभव है. ये बात भी सही है कि सरकार ने मानव स्वास्थ्य के लिए लू को गंभीर खतरा नहीं माना है लिहाजा उसके आपदा प्रबंधन योजना या नीतियों में गर्मी के कहर से जुड़ा नुकसान तो शामिल ही नहीं है.
कई जानकार इसे ग्लोबल वॉर्मिंग से जोड़कर देखते हैं. अगर ग्लोबल वॉर्मिग ही अकेली वजह होती तो तापमान में निरंतर वृद्धि का ही ग्राफ देखने को मिलता रहता. लेकिन किसी साल बहुत तेज़ गर्मी रहती है तो किसी साल कम. इस वैश्विक गर्मी से इतर एक फिनोमेना, लोकल वॉर्मिंग का भी है. जंगलों का अभूतपूर्व कटान, बेतहाशा निर्माण कार्य, बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किए जा रहे एयरकंडीश्नर, वाहनों का बढ़ता प्रदूषण और भूजल का बड़े पैमाने पर दोहनः लोकल वॉर्मिंग स्थानीय पारिस्थितिकी और पर्यावरण से छेड़छाड़ का नतीजा है.
चुनिंदा लोगों के अपार मुनाफे और भयावह महत्त्वाकांक्षा की कीमत बहुत सारे लोग चुका रहे हैं. और ये बहुत सारे लोग संसाधनविहीन, वंचित, गरीब लोग है. गर्मी हो या सर्दी या बरसात- मौसम उन पर ही सबसे पहले और सबसे ज्यादा झपटता है. अब वे आम लोग क्या करें. क्या आसमान पर टकटकी लगाए रखें और मई महीने के आखिरी दिन का इंतजार करें जिस दिन मौसम भविष्यवाणियों के मुताबिक भारत के दक्षिणी तट पर इस वर्ष का मॉनसून दाखिल होगा. लेकिन उत्तर तक आते आते उसे बहुत लंबा वक्त लगेगा. क्या राज्य सरकारें और केंद्र सरकार कुछ सुध लेंगी और लू निरोधी सिस्टम को आपात तौर पर लागू करने को एकजुट होंगी? या सब अपना ही गुणगान करते चलेंगे?
साभार- http://www.dw.de/ से