जब हम जनतंत्र की बात करते हैं तो यह भी अपेक्षा की जाती है कि जनता के सभी कार्य, शासन- प्रशासन, न्याय शिक्षा और रोजगार आदि जनता की भाषा में हों, लेकिन 15 अगस्त 1947 को भारत की स्वतंत्रता के बाद ऐसा नहीं हो सका। संविधान निर्माताओं ने अंग्रेजी को संविधान लागू होने के बाद 15 वर्ष तक अंग्रेजी के प्रयोग की अनुमति देते हुए इस बीच संघ की राजभाषा के रूप में हिंदी और राज्यों के स्तर पर राज्यों की भाषा अथवा भाषाओं के सरकारी कामकाज में प्रयोग की व्यवस्था आदि करने की बात कही, लेकिन शासन ने इसके विपरीत भारतीय भाषाओं की उपेक्षा कर औपनिवेशिक भाषा अंग्रेजी को आगे बढ़ाया। संविधान के अनुच्छेद 348 में तो उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायलयों में अंग्रेजी को ही स्थापित किया गया। न्यायपालिका में भारतीय भाषाओं को लेकर जो रास्ते थे, उन्हें भी बंद करने के प्रयास होते रहे।
स्वतंत्रता के समय से ही यह माँग की जाती रही है कि विश्व के अन्य प्रभुसत्तासंपन्न लोकतांत्रिक देशों की तरह भारत में भी देश की जनता को उसकी भाषा में न्याय दिया जाए। न्याय प्रणाली के संबंध में तो यही बात न्याय संगत है कि जनता को उसकी भाषा में न्याय दिया जाए, जिसे वे ठीक से समझ सकते हैं, जिसमें वे ठीक से भी अपनी बात को रख सकते हैं, अभिव्यक्त कर सकते हैं। जब कभी किसी कानूनी कागज पर हस्ताक्षर करने हों तो वे उसे समझ कर उस पर हस्ताक्षर कर सकें।
लेकिन स्वतंत्रता के पश्चात सरकारें अंग्रेजी का वर्चस्व बनाए रखना चाहती थी। इसलिए भारत की विधि एवं न्याय प्रणाली को लगभग पूरी तरह उस भाषा में रखा गया जो सामान्यत: भारत के नागरिकों की भाषा नहीं हैं, जी हाँ, अंग्रेजी में, जो सामान्यत: किसी की मातृभाषा नहीं है, किसी राज्य और क्षेत्र की भाषा भी नहीं है। नागालैंड जैसे राज्य में अगर अंग्रेजी राजभाषा है तो धर्मांतरण के माध्यम से जनमानस पर थोपी गई भाषा के रूप में। फिर भी वह शासन-प्रशासन, शिक्षा-रोजगार और न्याय सहित हर जगह जमी हुई है और भारतीय भाषाओं का मार्ग अवरुद्ध किए हुए है। हो सकता है कि भारत जैसे कुछ पुराने औपनिवेशिक देश में कुछ हद तक उस भाषा का प्रयोग होता हो, जिन देशों के कभी वे गुलाम हों या गुलाम रहे हों और उनकी अपनी कोई विकसित भाषा न हो। अन्यथा विश्व के सभी प्रभुसत्तासंपन्न लोकतांत्रिक देशों में विधि और न्याय की भाषा वहाँ की राष्ट्रभाषा, राज्यभाषा या जनभाषा होती है।
संविधान के अनुच्छेद 348 के अनुसार भारत में उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय की भाषा अंग्रेजी रखी गई है। अन्य छोटे न्यायालयों में राज्य द्वारा जनभाषा के प्रावधान किए जा सकते हैं, और इस प्रकार के प्रावधान किए भी गए हैं। लेकिन तत्कालीन सरकारों द्वारा इस संबंध में कोई गंभीर प्रयास नहीं किए गए। इसलिए भारत की राजधानी दिल्ली सहित आज भी देश के अनेक राज्यों में सभी स्तरों पर अंग्रेजी का वर्चस्व बना हुआ है। विधि निर्माण से लेकर विधि शिक्षा और न्याय प्रणाली में भारतीय भाषाओं के समावेश के लिए या उन्हें स्थापित करने के लिए कभी कोई गंभीर प्रयास किया गया हो, मुझे याद नहीं।
जब सभी कानून अंग्रेजी में बनेंगे, विधि की शिक्षा भी अंग्रेजी माध्यम से दी जाएगी और न्यायाधीश भी अंग्रेजी के पक्ष में खड़े रहेंगे या भारतीय भाषाओं में अपनी बात रखने वालों को हतोत्साहित करेंगे तो जनभाषा में न्याय का मार्ग कैसे प्रशस्त होगा ? हालांकि संविधान के अनुच्छेद 348 में भी भारतीय भाषाओं में न्याय की कुछ रास्ते बनाए गए हैं। इसमें यह कहा गया है यदि कोई राज्य, राज्यपाल के माध्यम से उस राज्य में स्थित उच्च न्यायालय की कार्यवाहियों में हिंदी अथवा राज्य की राजभाषा का प्रयोग करना चाहे तो वह राज्यपाल के माध्यम से ऐसा प्रस्ताव भेजकर राष्ट्रपति जी की मंजूरी से ऐसा किया जा सकता है। इस प्रावधान के माध्यम से उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार और राजस्थान इन चार राज्यों में अंग्रेजी के साथ हिंदी के प्रयोग को स्वीकार किया गया है। हालांकि उनमें भी कुछ बाधाएँ रही हैं, जिन पर हम आगे चर्चा करेंगे।
लेकिन संविधान लागू होने के कुछ समय बाद ही तत्कालीन सरकार ने उन रास्तों को भी बंद कर दिया। केद्रीय सरकार ने मंत्रिमंडल में निर्णय लिया कि जब कभी किसी राज्य द्वारा इस प्रकार का प्रस्ताव आए तो उसे स्वीकृत करने से पूर्व सर्वोच्च न्यायालय की सहमति ली जाए। उद्देश्य बड़ा स्पष्ट था कि राज्यों का प्रस्ताव स्वीकृत भी न हो और उसकी जिम्मेवारी भी सरकार पर न आए। सरकार को अच्छी तरह मालूम था कि उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के ज्यादातर न्यायाधीश अंग्रेजी के पक्षधर हैं इसलिए वहां से सहमति मिलना संभव ही नहीं है।
यहां यह उल्लेखनीय है कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 348 में जहां यह प्रावधान किया गया था वहां पर सर्वोच्च न्यायालय की सहमति लेने जैसी कोई बात नहीं है। इसका परिणाम यह हुआ कि तमिलनाडु, गुजरात, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों ने अपने राज्यों में स्थित उच्च न्यायलय में अपने राज्य की भाषा के प्रयोग के जो प्रस्ताव भेजे मंत्रिमंडलीय निर्णय के अनुसार उन्हें सर्वोच्च न्यायालय की सहमति के लिए भेजा गया और सर्वोच्च न्यायालय ने सहमति देने से मना कर दिया। इस प्रकार एक मंत्रिमंडलीय निर्णय के माध्यम से जनभाषा में न्याय के प्रावधान को कार्यान्वित होने से रोक दिया गया।
सबसे मज़ेदार बात यह है कि जिस राज्य में पहले से हिंदी के प्रयोग का प्रावधान था, उससे अलग होकर जब कोई राज्य बना तो वहां स्थित उच्च न्यायालय में भी हिंदी के प्रावधान को नहीं रखा गया और वहाँ केवल अंग्रेजी चलने लगी। इस प्रकार आजादी के 75 वर्ष बाद भी स्थिति लगभग ज्यों की त्यों है। सुनने में आया है कि संसदीय राजभाषा समिति द्वारा राष्ट्रपति जी को की गई सिफारिशों में उपर्युक्त मंत्रिमंडल के निर्णय को समाप्त करते हुए जनभाषा में न्याय की मार्ग को प्रशस्त करने की बात है।
यदि ऐसी सिफारिश है और राष्ट्रपति जी द्वारा उसे स्वीकार किया जाता है तो आज नहीं तो कल राज्यों की उनके राज्य में स्थित उच्च न्यायालय में भारतीय भाषा के प्रयोग का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा। जब एक राज्य में ऐसा होगा तो निश्चित रूप से अन्य राज्य भी जनतंत्र में जनता की मांग के अनुसार अपने राज्यों में स्थित उच्च न्यायालय में अपने राज्य की भाषा का प्रयोग करने के लिए विवश होंगे। तब तत्कालीन सरकारों द्वारा भी उसे रोक पाना संभव न होगा।
यह सर्वविदित है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी सदा से जनतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप जनभाषा यानी भारतीय भाषाओं के प्रयोग की पक्षधर रही है। इसलिए भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने के पश्चात नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा जनभाषा में न्याय का मार्ग प्रशस्त करने के प्रयास किए गए हैं। कुछ समय पूर्व भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश की उपस्थिति में उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों और मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा जनभाषा में न्याय का मार्ग प्रशस्त करने की बात कही गई और उस मंच पर भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने भी अपने संबोधन में जनभाषा में न्याय की आवश्यकता को स्वीकार किया।
पूर्व केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्री किरेन रिजिजू द्वारा भी अपने कार्यकाल में लगातार जनभाषा में न्याय का पुरजोर समर्थन करते हुए अनेक मंचों पर इस बात को रखा गया। यही नहीं, उसके बाद भी जो भारत के मुख्य न्यायाधीश आए उन्होंने भी जनभाषा में न्याय की आवश्यकता पर जोर दिया। इलाहाबाद में विधि महाविद्यालय के उद्घाटन के अवसर पर उन्होंने यह भी कहा कि भारतीय भाषाओं में न्याय की व्यवस्था के लिए यह आवश्यक है कि विधि महाविद्यालयों में विधि की शिक्षा भारतीय भाषाओं में दी जाए। ऐसी तमाम स्वीकारोक्तियों के बावजूद भी व्यवस्था में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है।
यहाँ इस बात का उल्लेख करना भी समीचीन होगा कि जिन चार राज्यों के उच्च न्यायालय में संविधान के अनुच्छेद 348 (2) के अंतर्गत हिंदी का प्रयोग स्वीकार किया गया है वहाँ भी उसके रास्ते में इतनी बाधाएँ हैं कि वहाँ भी ज्यादातर वकील यही बेहतर समझते हैं कि अंग्रेजी में ही केस लड़ा जाए। हालांकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय में स्वर्गीय न्यायमूर्ति प्रेम शंकर गुप्त और वर्तमान में न्यायमूर्ति गौतम चौधरी सहित कई ऐसे न्यायमूर्ति हैं और हैं जो अपने अधिकांश निर्णय हिंदी में देते हैं। कैसे अधिवक्ता हैं जो हिंदी की प्रबल समर्थक हैं और उच्च न्यायालय में यथासंभव हिंदी में ही वकालत करते हैं।
दूसरे कई उच्च न्यायालय में भी ऐसा कई अधिवक्ता हैं। लेकिन ऐसे न्यायमूर्तियों की संख्या बहुत ही कम है जो जान भाषा हिंदी को प्राथमिकता देते हैं। इसके विपरीत अंग्रेजीपरस्त न्यायमूर्तियों के कारण हिंदी में याचिका दाखिल करने और मुकदमे लड़ने वाले वकीलों को अक्सर निराशा ही हाथ लगती है। मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के ही एक वकील ने बताया कि उन्हें किस प्रकार न्यायमूर्तियों से हिंदी में याचिका दायर करने और अपनी बात रखने के कारण अपमानजनक शब्द सुनने पड़े। पटना उच्च न्यायालय में जहाँ हिंदी स्वीकार्य है, वहाँ भी पूर्व में केंद्र की तरह मंत्रिमंडल द्वारा निर्णय लेकर ऐसी व्यवस्था की गई थी कि यदि कोई व्यक्ति हिंदी में याचिका दायर करता है तो उसे उसका अंग्रेजी अनुवाद भी देना पड़ेगा ? जब अंग्रेजी अनुवाद देना ही है तो कोई व्यक्ति हिंदी में याचिका दाखिल क्यों करेगा ? स्पष्ट रूप से यह तत्कालीन बिहार सरकार का न्यायपालिका में हिंदी विरोधी निर्णय था।
इसे लेकर पटना उच्च न्यायालय में सरकारी अधिवक्ता इंद्रदेव द्वारा निरंतर संघर्ष किया जा रहा है लेकिन न्यायमूर्तियों से लेकर महाधिवक्ता तक हिंदी का रास्ता रोके खड़े हैं। कई बार हिंदी में अपनी बात रखने के कारण मुख्य न्यायाधीश द्वारा उन्हें फटकार ही नहीं मिली बल्कि महाधिवक्ता द्वारा भी उन्हें सरकारी मामले देने बंद कर दिए गए और अनेक प्रकार से उन्हें प्रताड़ित और हतोत्साहित किया गया ।
अभी भी पटना उच्च न्यायालय में हिंदी में याचिकाएँ दायर करने और बात रखने का मामला चर्चाओं में है, जिसमें ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ भी एक पक्ष बना हुआ है लेकिन अंग्रेजी समर्थक शक्तिशाली तंत्र हिंदी की राह रोके खड़ा है। लेकिन भारत सरकार की नीति के अनुरूप बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा मंत्रिमंडल का निर्णय लेकर अंग्रेजी अनुवाद की अनिवार्यता को समाप्त करने का निर्णय राज्यपाल के माध्यम से राष्ट्रपति जी को भेजा गया है। इस निर्णय से अब पटना उच्च न्यायालय में हिंदी के लिए खड़ी की गई एक बड़ी अड़चन शीघ्र हटने की संभावना है।
शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के अंतर्गत ‘भारतीय भाषा अभियान’ द्वारा इसके संरक्षक अपर महाधिवक्ता अशोक मेहता, संयोजक अपर महाधिवक्ता जयदीप रॉय, सहसंयोजक अधिवक्ता कामेश्नर नाथ मिश्र सहित देश में अनेक सदस्य अधिवक्ताओं द्वारा सर्वोच्च न्यायालय सहित अनेक उच्च न्यायालयों व न्यायलयों में इस दिशा में निरंतर प्रयास किए जा रहे हैं। इलाहबाद उच्च न्यायलय के पूर्व न्यायाधीश व सुप्रसिद्ध न्यायमूर्ति स्व. प्रेमशंकर गुप्त द्वारा स्थापित ‘इटावा हिंदी सेवा निधि’ के सचिव वरिष्ठ अधिवक्ता प्रदीप कुमार के संयोजन में विभिन्न न्यायमूर्तियों व अधिवक्ताओं द्वारा, ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ द्वारा मुंबई सहित विभिन्न महानगरों में, लखनऊ में वरिष्ठ अधिवक्ता देश रत्न सिन्हा, दिल्ली में अधिवक्ता उमेश शर्मा, भारतीय भाषा सेनानी हरपाल सिंह राणा और उनके सुपुत्र अधिवक्ता अखिल राणा, चंडीगढ़ उच्च न्यायालय में अधिवक्ता नवीन कौशिक, मध्यप्रदेश में अधिवक्ता अनिल त्रिवेदी सहित देशभर में अनेक संस्थाएँ, अधिवक्तागण व जनभाषा में न्याय के समर्थक तरह तरह की प्रताड़नाओं, अपमान और समस्याओं के बावजूद जनभाषा में न्याय के लिए अपने-अपने तरीके से प्रयास कर रहे हैं।
सरकार के कई निर्णयों और कार्यों से भी इस दिशा में रास्ते खुले हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर भारत सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय सहित विभिन्न उच्च न्यायालयों और अन्य जिला न्यायालय आदि में प्रौद्योगिकी की मदद से जनभाषा में निर्णय दिए जाने की व्यवस्था की जा रही है। करीब एक वर्ष पूर्व हरियाणा के सोनीपत में भारतीय भाषा अभियान के कार्यक्रम में शिक्षा ‘संस्कृति उत्थान न्यास’ के राष्ट्रीय सचिव अतुल कोठारी के संबोधन से प्रेरित हो कर उपस्थित राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय की कुलपति ने विद्यार्थियों को हिंदी में परीक्षा देने की सुविधा की भी घोषणा की।
मुंबई में ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ द्वारा जनभाषा में न्याय के संबंध में अपनी बात रखते हुए मुंबई उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति राजन कोचर ने कहा कि न्यायपालिका में भारतीय भाषाओं की प्रयोग के लिए संविधान की अनुच्छेद 348 में आवश्यक परिवर्तन करने की आवश्कता है। उनका कहना था कि यह काम एकदम नहीं हो सकता, इसके लिए योजनाबद्ध रूप से व्यवस्था परिवर्तन करने के साथ-साथ सरकारी कामकाज भी भारतीय भाषाओं का प्रयोग किए जाने की आवश्यकता है। इसी प्रकार पटना में ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ द्वारा जनभाषा में न्याय पर आयोजित सम्मेलन में उच्च न्यायालय की पूर्व न्यायाधीश व विधि विश्वविद्यालय की कुलपति ने जनभाषा में न्याय के संबंध में कहा कि संविधान निर्माण के समय जो कमियाँ रह गई थीं, उन्हें अब ठीक किए जाने की आवश्यकता है।
उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के संबंध में अक्सर यह कहा जाता हैं कि भूल जाइए वहाँ भारतीय भाषाओं की बात। वहाँ आपको एक शब्द भी हिंदी में सुनने को नहीं मिलेगा। इस मिथक को तोड़ते हुए अब भारत सरकार ने एक ऐसा ऐतिहासिक निर्णय लिया है जो न केवल विधि और न्याय की दृष्टि से बल्कि भाषाई दृष्टि से भी अभूतपूर्व है।
भारतीय संसद ने तीन ऐतिहासिक कानून भारतीय दंड संहिता 1860 दंड प्रक्रिया संहिता 1973 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 को क्रमशः भारतीय न्याय संहिता 2023 से प्रतिस्थापित करके आपराधिक न्याय प्रणाली में एक परिवर्तन कार्यक्रम उठाया है। विधि और न्याय की दृष्टि से तो यह परिवर्तन एक ऐतिहासिक और साहसिक कदम है ही क्योंकि अंग्रेजों के जमाने के कानूनों को बदल गया है। ये कानून अंग्रेजों द्वारा ब्रिटिश हितों की रक्षा के लिए बनाए गए थे, जिन में भारत के लोगों से न तो कोई परामर्श लिया गया था और न ही भारतीयों के सामाजिक परिवेंश और जीवन प्रणाली को ही ध्यान में रखा गया था।
भाषा की दृष्टि से महत्वपूर्ण बात यह है कि संसद से पास होने के बाद 1 जुलाई से ये कानून लागू हो गए हैं। ये कानून है – भारतीय न्याय संहिता 2023 ( बीएनएस ), भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता 2023 (BNSS) तथा भारतीय साक्ष्य अधिनियम (बीएसए) इन तीनों कानूनों के नाम हिंदी में रखे गए हैं। अर्थात अंग्रेजी में भी अब इन हिंदी नामों का ही प्रयोग होगा। कहने का मतलब यह है कि निचली अदालतों से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक देश की सैकड़ो अदालतों में प्रतिदिन इन हिंदी नामों की गूँज सुनाई देगी। इस परिवर्तन से निश्चित रूप से देश की सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय से लेकर सभी न्यायालयों में भारतीय भाषाओं के लिए उपयुक्त वातावरण तैयार होगा।
यह सही है कि सरकार द्वारा न्यायपालिका में भारतीय भाषाओं को लाने के प्रयासों के बावजूद अभी भी मंजिल बहुत दूर है। लेकिन विभिन्न संस्थाओं के प्रयासों और उनकी मांग तथा सरकार द्वारा भारतीय भाषाओं में न्याय व्यवस्था को लाने की घोषित नीति के चलते एक बहुत बड़ा परिवर्तन यह आया है कि पहले जहां पूरा न्याय तंत्र भारतीय भाषाओं को नकारता था । अब इस नकारता नहीं, बल्कि काफी हद तक स्वीकारता दिखता है।
दिसंबर 2022 में इटावा में ‘इटावा हिंदी सेवा निधि’ के कार्यक्रम में तत्कालीन सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति मा. कृष्ण मुरारी का कहना था कि यह सही है की जनभाषा में न्याय होना चाहिए, लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाया जाए। न्यायमूर्तियों की स्थानांतरण नीति के कारण जब वे किसी अन्य उच्च न्यायालय में जाते हैं तो उन्हें वहां की भाषा में काम करने में असुविधा होती है। ‘इटावा हिंदी सेवा निधि’ के दिसंबर 2023 के कार्यक्रम मैं ही सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति मा. पंकज मित्तल ने कहा कि अब समय आ गया है कि सरकार निर्णय ले कि आगे किस भाषा को चलाना है, हिंदी अथवा भारतीय भाषाओं को चलाना है या अंग्रेजी को ही चलाए रखना है। उन्होंने कहा कि जिस प्रकार सरकार ने नोटबंदी की है वह देश की व्यवस्था में अंग्रेजीबंदी क्यों नहीं कर सकती ?
निष्कर्ष रूप में कहें तो अब न्यायपालिका द्वारा न्यायतंत्र में भारतीय भाषाओं का सीधे विरोध तो नहीं हो रहा लेकिन परिस्थितियों और व्यवस्थाओं का हवाला देते हुए फिलहाल अंग्रेजी के साथ खड़ा हुआ दिखता है। सरकारी नीति और देश के विभिन्न हिस्सों में भारतीय भाषाओं की संस्थाओं, कुछ न्यायमूर्तियों और अधिवक्ताओं आदि के प्रयासों से छोटे-छोटे कदमों से ही सही भारत के न्यायतंत्र में भारतीय भाषाएँ अपना स्थान बनाने में लगी हैं। आशा है कि प्रौद्योगिकी के सहारे न्यायतंत्र में भारतीय भाषाओं की भूमिका और जनभाषा में न्याय की व्यवस्था और सुदृढ़ होगी। इसके लिए शासन-प्रशासन में भारतीय भाषाओं के प्रयोग को बढ़ाते हुए जनमानस को भी तैयार करना होगा।
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