Sunday, November 24, 2024
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काकोरी कांडः देश का सबसे महंगा मुकदमा, जिसमें नेहरू के रिश्तेदार अंग्रेजों के वकील थे और सरकार के 250 करोड़ रु. खर्च हो गए

भारत का सबसे महंगा आपराधिक मुकदमा कौन सा है? अधिकांश लोग कसाब वाले केस का नाम लेंगे जिसमें करीब 55 करोड़ रुपए भारत सरकार ने खर्च किए। लेकिन जवाब गलत है। परन्तु हम आपको बताने जा रहे हैं एक ऐसे केस की हकीकत जिसे भारत का सबसे महंगा और चर्चित मुकदमा कहा जाए तो हैरत नहीं होगी। दूसरा पक्ष बिना वकील के लड़ा और ऐसा लड़ा कि ढाई साल में अंग्रेजों को करीब ढाई सौ करोड़ (आज की कीमत से) रुपए खर्च करने पर मजबूर होना पड़ा। यही नहीं मामले की जांच भी स्कॉटलैण्ड पुलिस के सबसे तेज तर्रार अफसर को सौंपी। Ram Prasad Bismil

यह मुकदमा सरकार बनाम रामप्रसाद बिस्मिल (Ram Prasad Bismil) और अन्य के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है। 9 अगस्त 1925 के दिन काकोरी में जो ट्रेन लूटी गई। उसकी कहानी आपको पता है। उसमें 20 क्रान्तिकारियों पर जो मुकदमा चला उसी केस की हम बात कर रहे हैं। उस केस में अंग्रेज सरकार ने उस जमाने के दस लाख रुपए खर्च किए थे। उस ढाई साल के वक्त में सोने की कीमत 18 से 18.75 रुपए प्रति तोला के भीतर रही थी। यदि आज के 50 हजार प्रति प्रति दस ग्राम की कीमत से उस रकम को आंका जाए तो यह करीब 260 करोड़ रुपए बैठती है।

यह था प्रकरण
रामप्रसाद बिस्मिल के शाहजहाँपुर स्थित उनके घर पर 7 अगस्त 1925 को हुई एक आकस्मिक बैठक में इस निर्णय पर मुहर लगी कि काकोरी में ब्रिटिश सरकार का खजाना लूटना है। तय समय पर शाहजहाँपुर रेलवे स्टेशन से बिस्मिल के नेतृत्व में अशफाकउल्ला खाँ, राजेन्द्र लाहिड़ी, चन्द्रशेखर आजाद, शचीन्द्रनाथ बख्शी, मन्मथनाथ गुप्त, मुकुन्दी लाल, केशव चक्रवर्ती (छद्मनाम), मुरारी शर्मा (वास्तविक नाम मुरारी लाल गुप्त) तथा बनवारी लाल शामिल हुए। वे डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर रेलगाड़ी में 9 अगस्त 1925 को सवार हुए, जिनके पास स्थानीय कट्टों के अलावा चार जर्मन माउज़र पिस्तौल भी थे। लखनऊ से पहले ठीक काकोरी रेलवे स्टेशन गाड़ी रुकवाकर सरकारी खजाना लूट लिया था। इसमें अहमद अली नाम का एक मुसाफिर मारा भी गया था।

धोबी ने पहचाना क्रान्तिकारियों को
मौके पर छूट गई चादर पर लगे धोबी के टैग से क्रान्तिकारियों की पहचान हो गई। अगले दिन अखबारों के माध्यम से यह खबर पूरी दुनिया में फैल गयी। ब्रिटिश सरकार ने इस ट्रेन डकैती को गम्भीरता से लिया और डीआईजी के सहायक (सीआईडी इंस्पेक्टर) आरए हार्टन के नेतृत्व में स्कॉटलैण्ड की सबसे तेज तर्रार पुलिस को इसकी जाँच का काम सौंप दिया। क्रान्तिकारी एक—एक करके गिरफ्तार हुए।


इसलिए की थी काकोरी की लूट

आजादी की लड़ाई के लिए पैसे और हथियारों की जरूरत थी। पैसे कहां से आए इस समस्या को सुलझाने के लिए नौ अगस्‍त 1925 को सरकारी खजाना ले जा रही सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर ट्रेन को काकोरी स्‍थि‍त बाजनगर के पास लूट लि‍या गया। लूट की कुल रकम 4,601 रुपए, 15 आने और छह पाई थी। लूट के बाद अंग्रेजों द्वारा इस घटना की एफआईआर काकोरी थाने में दर्ज करवाई गई। इसकी मूल कॉपी उर्दू में लिखी गई थी। बाद में इसका हिंदी अनुवाद भी कि‍या गया। इस एफआईआर की कॉपी आज भी काकोरी थाने में फोटो फ्रेम में सुरक्षि‍त रखी गई है। इस फ्रेम में एफआईआर का एक पन्‍ना भर ही सुरक्षित है। अभियुक्‍तों की संख्‍या 20 से 25 और लूट की रकम 4,601 रुपए, 15 आने और छह पाई बताई गई है। हालांकि‍, सरकार की ओर से काकोरी स्‍मारक में लगे शिलापट्ट के अनुसार, लूट आठ हजार की हुई थी। इस लूट की घटना ने अंग्रेजी हुकूमत को हिला कर रख दिया था। चंद लोगों द्वारा की गई सरकारी खजाने की लूट ने अंग्रेजों को हिलाकर रख दिया। क्रांतिकारियों द्वारा आजादी का बिगुल फूंकने में भी काकोरी कांड ने महत्वपूर्ण योगदान दिया।

थिएटर में बनी थी अदालत
सभी को लखनऊ जिला जेल की 11 नम्बर बैरक में रखा गया था। खास इसी मुकदमे के लिए हजरतगंज चौराहे के पास रिंग थियेटर नाम की एक आलीशान बिल्डिंग में अस्थाई अदालत का निर्माण किया गया। यह बिल्डिंग मल्लिका अहद महल और कोठी हयात बख्श के बीच हुआ करती थी। इसमें ब्रिटिश अफसर फिल्म—नाटक से मनोरंजन किया करते थे। इसी रिंग थियेटर में लगातार 18 महीने तक किंग इम्परर वर्सेस राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ एण्ड अदर्स के नाम से चलाये गये मुकदमे में अंग्रेज सरकार ने 10 लाख रुपए उस समय खर्च किए थे। ब्रिटिश हुक्मरानों के आदेश से यह बिल्डिंग भी बाद में ढहा दी गयी और उसकी जगह सन 1929-1932 में मुख्य डाकघर लखनऊ के नाम से एक दूसरा भवन बनाया गया। यहां बाद में पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की प्रतिमा लगाई गई और काफी समय के बाद काकोरी स्मृति स्थल बनाया गया।

स्वदेशी कथन by रामप्रसाद बिस्मिल – मेरी कलम

Ram Prasad Bismil ने वकील को दिखाई औकात
इस मामले में जवाहरलाल नेहरू के रिश्तेदार और प्रसिद्ध वकील जगतनारायण ‘मुल्ला’ को एक सोची समझी रणनीति के तहत सरकारी वकील बनाया। इस जगतनारायण के विरोध के बावजूद बिस्मिल ने 1916 में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की शोभायात्रा लखनऊ में निकाली। इसी बात से चिढ़े मुल्ला ने मैनपुरी षड्यंत्र में भी पूरी कोशिश की, लेकिन वे बिस्मिल का बाल बांका न कर पाए।

 

बिस्मिल को फांसी की सजा
6 अप्रैल 1927 को विशेष सत्र न्यायाधीश ए हैमिल्टन ने काकोरी कांड को ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकने की साजिश बताया। उसने बिस्मिल, अशफाक, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, ठाकुर रोशनसिंह को फांसी की सजा सुनाई। इस फैसले के विरुद्ध 18 जुलाई 1929 को अवध के मुख्य न्यायालय में अर्जी दाखिल की गई। चीफ कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सर लुइस शर्ट और विशेष न्यायाधीश मोहम्मद रज़ा के सामने दोनों मामले पेश हुए। यहां एक बार फिर जगतनारायण ‘मुल्ला’ को सरकारी पक्ष का काम सौंपा। सजायाफ्ता क्रान्तिकारियों की ओर से केसी दत्त, जयकरणनाथ मिश्र व कृपाशंकर हजेला ने क्रमशः राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह व अशफाक उल्ला खाँ की पैरवी की। राम प्रसाद बिस्मिल ने अपनी पैरवी खुद की क्योंकि सरकारी खर्चे पर उन्हें लक्ष्मीशंकर मिश्र नाम का एक साधारण वकील दिया गया था। जिसको लेने से बिस्मिल ने साफ मना कर दिया।

मुल्लाजी बगले झांकने लगे
चीफ कोर्ट के सामने Ram Prasad Bismil ने जब धाराप्रवाह अंग्रेजी में बहस की तो सरकारी वकील मुल्ला बगलें झाँकते नजर आए। बिस्मिल की तर्क क्षमता पर चीफ जस्टिस लुइस शर्टस ने पूछा “Mr.Ramprasad! from which university you have taken the degree of law?” (श्रीमान राम प्रसाद!आपने किस विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री ली है?) इस पर बिस्मिल हंसकर बोले “Excuse me sir! a king maker doesn’t require any degree” (क्षमा करें महोदय! सम्राट बनाने वाले को किसी डिग्री की आवश्यकता नहीं होती।) जज इस बात से चिढ़ गया और उनकी स्वयं पैरवी करने की अर्जी खारिज कर दी। इसके बाद बिस्मिल ने 96 पेज की लिखित बहस पेश की। उसे पढ़ कर जजों ने यह शंका जताई कि बहस बिस्मिल ने स्वयं न लिखकर किसी विधिवेत्ता से लिखवायी है। आखिर में अदालत ने उसी लक्ष्मीशंकर मिश्र को बहस करने की इजाजत दी, जिसे लेने से बिस्मिल ने पहले ही मना कर दिया था।

मुल्ला को शायरी पड़ी भारी
सरकारी पक्ष के वकील और पंडित नेहरू के रिश्तेदार पण्डित जगतनारायण मुल्ला उर्दू के शायर भी थे। उन्होंने अभियुक्तों के लिये “मुल्जिमान” की जगह “मुलाजिम” शब्द बोल दिया। ‘बिस्मिल’ ने तपाक से उन पर ये चुटीली फब्ती कसी: “मुलाजिम हमको मत कहिये, बड़ा अफ़सोस होता है; अदालत के अदब से हम यहाँ तशरीफ लाये हैं। पलट देते हैं हम मौजे-हवादिस अपनी जुर्रत से; कि हमने आँधियों में भी चिराग अक्सर जलाये हैं।” कहने का अर्थ था कि मुलाजिम बिस्मिल नहीं, बल्कि मुल्लाजी हैं जो सरकार से तनख्वाह लेते हैं। क्रान्तिकारी तो राजनीतिक बन्दी हैं अत: उनके साथ तमीज से पेश आयें। इसके साथ ही यह चेतावनी भी दे डाली कि वे समुद्र की लहरों तक को अपने दुस्साहस से पलटने का दम रखते हैं। ऐसे में मुकदमे की बाजी पलटना कौन सी बड़ी बात है? भला इतना बोलने के बाद किसकी हिम्मत थी जो बिस्मिल के आगे ठहरता। मुल्ला जी को पसीने छूट गए और उन्होंने कन्नी काटने में ही भलाई समझी। वे चुपचाप पिछले दरवाजे से खिसक लिए। फिर उस दिन उन्होंने कोई जिरह नहीं की।

यह आया मुख्य फैसला
चीफ कोर्ट में शचीन्द्र नाथ सान्याल, भूपेन्द्र नाथ सान्याल व बनवारी लाल को छोड़कर शेष सभी क्रान्तिकारियों ने अपील की थी। 22 अगस्त 1929 को जो फैसला सुनाया गया उसके अनुसार रामप्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी व अशफाक उल्ला खाँ अशफाक उल्ला खाँ ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने की साजिश, षड्यंत्र, हत्या और डकैती के मामले में फांसी का हुक्म सुनाया। शचीन्द्र नाथ सान्याल को उम्रकैद बरकरार रखी। शचीन्द्र के छोटे भाई भूपेन्द्र नाथ सान्याल व बनवारी लाल को ५-५ वर्ष की सजा, योगेशचन्द्र चटर्जी, मुकुन्दी लाल व गोविन्दचरण कार की सजाएं 10 वर्ष से बढ़ाकर उम्रकैद में बदल दी। सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य व विष्णुशरण दुब्लिश की सजायें भी 7 वर्ष कायम रहीं। खूबसूरत हैण्डराइटिंग में लिखकर अपील देने के कारण केवल प्रणवेश चटर्जी की सजा को पांच से घटाकर चार वर्ष कर दिया गया। सबसे कम सजा रामनाथ पाण्डेय को हुई। मन्मथनाथ गुप्त, जिनकी गोली से मुसाफिर मारा गया। उसकी सजा बढ़ाते हुए 14 वर्ष कर दी गई।

इन्होंने की अपील
ठाकुर मनजीत सिंह राठौर ने केन्द्रीय विधान परिषद में काकोरी काण्ड के सभी फाँसी प्राप्त कैदियों की सजाएं उम्र-कैद में बदलने का प्रस्ताव पेश किया। परिषद के कई सदस्यों ने इस आशय का प्रार्थना पत्र भी दिया। परन्तु वह अस्वीकार हो गया। 87 सदस्यों ने तत्कालीन वायसराय व गवर्नर जनरल एडवर्ड फ्रेडरिक लिण्डले वुड को शिमला में हस्ताक्षर युक्त मेमोरियल भेजा। इनमें पंडित मदन मोहन मालवीय, मोहम्मद अली जिन्ना, एनसी केलकर, लाला लाजपत राय, गोविन्दवल्लभ पन्त आदि ने हस्ताक्षर किये थे। परन्तु वायसराय ने उनकी नहीं मानी। मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व में पाँच व्यक्तियों का एक प्रतिनिधि मण्डल शिमला जाकर भी वायसराय से मिला। परन्तु नतीजा नहीं बदला।

बिस्मिल से कांप गए अंग्रेज
अंत में बैरिस्टर मोहन लाल सक्सेना ने प्रिवी कौन्सिल में क्षमादान की याचिका के दस्तावेज़ तैयार करके इंग्लैण्ड के विख्यात वकील एसएल पोलक के पास भिजवाए। परन्तु लन्दन के न्यायाधीशों व सम्राट के वैधानिक सलाहकारों ने उस पर बड़ी सख्त दलील दी कि इस षड्यन्त्र का सूत्रधार रामप्रसाद बिस्मिल ( Ram Prasad Bismil ) बड़ा ही खतरनाक और पेशेवर अपराधी है। यदि उसे क्षमादान दिया गया तो वह भविष्य में इससे भी बड़ा और भयंकर काण्ड कर सकता है। उस स्थिति में सरकार को हिन्दुस्तान में शासन करना असम्भव हो जाएगा। इस सबका परिणाम यह हुआ कि प्रिवी कौन्सिल में भेजी गयी क्षमादान की अपील भी खारिज हो गई।

डेढ़ लाख लोगों ने निकाली शवयात्रा
16 दिसम्बर 1929 को बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा का आखिरी अध्याय (अन्तिम समय की बातें) पूर्ण करके जेल से बाहर भिजवा दिया। 18 दिसम्बर को माता-पिता से अन्तिम मुलाकात की और सोमवार 19 दिसम्बर 1929 को प्रात:काल 6 बजकर 30 मिनट पर गोरखपुर की जिला जेल में उन्हें अशफाक और रोशनसिंह के साथ फाँसी दे दी गयी। बिस्मिल के बलिदान का समाचार सुनकर बहुत बड़ी संख्या में जनता जेल के फाटक पर एकत्र हो गयी। जेल में दीवार को तोड़कर बिस्मिल का शव उनके परिजनों को सौंपा गया। शव को डेढ़ लाख लोगों ने जुलूस निकाल कर पूरे शहर में घुमाया। बाद में राप्ती नदी के किनारे राजघाट पर उसका अन्तिम संस्कार कर दिया।

ऐसे चूमा फांसी का फंदा
भगतसिंह ने किरती नाम एक पंजाबी मासिक में ‘विद्रोही’ छद्मनाम नाम से लिखा। “फाँसी पर ले जाते समय आपने बड़े जोर से कहा – ‘वन्दे मातरम! भारतमाता की जय!‘ और शान्ति से चलते हुए कहा – ‘मालिक तेरी रज़ा रहे और तू ही तू रहे, बाकी न मैं रहूँ न मेरी आरजू रहे; जब तक कि तन में जान रगों में लहू रहे, तेरा ही जिक्र और तेरी जुस्तजू रहे!‘ फाँसी के तख्ते पर खड़े होकर आपने कहा – ‘I wish the downfall of British Empire!’ अर्थात ‘मैं ब्रिटिश साम्राज्य का पतन चाहता हूँ!’ उसके पश्चात यह शेर कहा – ‘अब न अहले-वलवले हैं और न अरमानों की भीड़, एक मिट जाने की हसरत अब दिले-बिस्मिल में है!’ फिर ईश्वर के आगे प्रार्थना की और एक मन्त्र पढ़ना शुरू किया। रस्सी खींची गयी। Ram Prasad Bismil जी फाँसी पर लटक गये।”

अंग्रेजों का सबसे खौफनाक दुश्मन बिस्मिल
अपने लेख के अन्त में भगतसिंह लिखते हैं- “आज वह वीर इस संसार में नहीं है। उसे अंग्रेजी सरकार ने अपना सबसे बड़ा खौफ़नाक दुश्मन समझा। आम ख्याल यही था कि वह गुलाम देश में जन्म लेकर भी सरकार के लिए बड़ा भारी खतरा बन गया था। वह लड़ाई की विद्या से खूब परिचित था। आपको मैनपुरी षड्यन्त्र के नेता गेंदालाल दीक्षित जैसे शूरवीर ने विशेष तौर पर शिक्षा देकर तैयार किया था। ‘स्वदेश’ में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार Ram Prasad Bismil की माता मूलमती ने कहा था – ‘मैं अपने पुत्र की इस मृत्यु पर प्रसन्न हूँ, दुःखी नहीं। मैं श्री रामचन्द्र जैसा ही पुत्र चाहती थी। वैसा ही मेरा ‘राम’ था।’

जगतनारायण के लिए यह लिख गए बिस्मिल
इत्र फुलेल और फूलों की वर्षा के बीच उनकी लाश का जुलूस जा रहा था। दुकानदारों ने उनके शव के ऊपर वेशुमार पैसे फेंके। दोपहर 11 बजे आपका शव शमशान-भूमि पहुंचा और अन्तिम-क्रिया समाप्त हुई। आपके पत्र का आखिरी हिस्सा था- ‘मैं खूब सुखी हूँ। 19 तारीख को प्रातः जो होना है उसके लिये तैयार हूँ। परमात्मा मुझे काफी शक्ति देंगे। मेरा विश्वास है कि मैं लोगों की सेवा के लिये फिर जल्द ही इस देश में जन्म लूँगा। सभी से मेरा नमस्कार कहें। दया कर इतना काम और करना कि मेरी ओर से पण्डित जगतनारायण (सरकारी वकील, जिन्होंने इन्हें फाँसी लगवाने के लिये बहुत जोर लगाया था) को अन्तिम नमस्कार कह देना। उन्हें हमारे खून से लथपथ रुपयों के बिस्तर पर चैन की नींद आये। बुढ़ापे में ईश्वर उन्हें सद्बुद्धि दे।”

बिस्मिल की अन्त्येष्टि के बाद बाबा राघव दास ने गोरखपुर के पास स्थित देवरिया जिले के बरहज नामक स्थान पर ताम्रपात्र में Ram Prasad Bismil की अस्थियों को संचित कर एक चबूतरा जैसा स्मृति-स्थल बनवा दिया। 11 जून 1897 को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर शहर के खिरनीबाग मुहल्ले में जन्मे रामप्रसाद अपने पिता मुरलीधर और माता मूलमती की दूसरी सन्तान थे। उन्होंने एचआरए यानि हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन का गठन किया था। जिसे उनके बाद में भगतसिंह ने संभाला। संगठन पर प्रतिबंध लगा तो भगतसिंह ने उसका नाम हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन कर दिया।

साभार- https://www.nayaindia.com/ से

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