किस करवट बैठेगा मुस्लिम आरक्षण का ऊंट ?

संविधान के अनुच्छेद 341 और अनुच्छेद 342 के तहत, किसी समुदाय विशेष को अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति घोषित करना संसद में निहित शक्ति है। आरक्षण और योग्यता के बीच संतुलन रखना, समुदायों को आरक्षण देते समय प्रशासन की दक्षता को ध्यान में रखना भी आवश्यक है। यहां ध्यान देने की बात यह भी है कि भारत के संविधान में आरक्षण जातीय आधार पर है न कि धार्मिक आधार पर।

भारत में आरक्षण सदा से वोट बैंक की राजनीति साधने का माध्यम रहा है। सबको पता है कि भारत के संविधान द्वारा अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए 10 वर्ष के लिए सरकारी नौकरियां अधिनिया आरक्षण की व्यवस्था की गई थी। प्रारंभ में इस आरक्षण की अवधि को आगे बढ़ते हुए वोट बैंक को साधा जाता रहा। लेकिन जब यह स्थायी सा हो गया तो अब वोट बैंक बनाने के लिए कुछ नया चाहिए था।

भारत के संविधान में अनुसूचित जाति जनजाति के लिए सीमित अवधि के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई थी लेकिन पदोन्नति में आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं था। लेकिन वोट बैंक को रिझाने और अपनी सत्ता पाने के लिए उन्होंने यह भी शुरू कर दिया जो कि पूर्णत: असंवैधानिक था। हालांकि जब किसी व्यक्ति ने इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी तो सर्वोच्च न्यायालय ने इसे असंवैधानिक घोषित किया। लेकिन वोट बैंक की राजनीति के चलते इसे संविधान संशोधन के माध्यम से संवैधानिक बना दिया गया।

तब कांग्रेस नेता और बाद में राजीव गांधी के बोफोर्स घोटाले में फंसने पर कांग्रेस विरोधी लहर के चलते कांग्रेस छोड़कर नए विपक्षी गठबंधन नेशशनल फ्रंट में आए कांग्रेस के पूर्व नेता विश्वनाथ प्रताप सिंह, जनता दल के प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने सोचा कि आरक्षण के माध्यम से ऐसा कुछ किया जाए जिससे वे आजीवन प्रधानमंत्री बने रहें, इसके लिए उन्होंने रद्दी की टोकरी में पड़ी मंडल आयोग की रिपोर्ट को निकाला और रातों-रात लागू कर दिया। इस प्रकार भारत में पिछड़ी जातियों के नाम पर आरक्षण शुरू हो गया, जिसका सामान्य वर्ग द्वारा भारी विरोध भी हुआ। आजीवन प्रधानमंत्री बनने का सपना तो देखा, लेकिन ऐसा हो नहीं सका।

1990 में उनके शासनकाल में, जब कश्मीर के नेता और भारत के पहले मुस्लिम गृहमंत्री, मुफ्ती मोहम्मद सईद भारत के गृहमंत्री बने तो कश्मीर घाटी से कश्मीरी हिंदुओं को बहुसंख्यक मुसलमानों द्वारा भारी हिंसा करके कश्मीर घाटी से निकाल दिया। जिसकी पूरे देश में तीव्र प्रतिक्रिया हुई। भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी द्वारा राम रथयात्रा निकाली गई और उसके बाद, भाजपा ने तत्कालीन जनता दल सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया और विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार अविश्वास मत हार गई। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने 7 नवंबर 1990 को इस्तीफा दे दिया।

लेकिन वोट बैंक की राजनीति के चलते सभी दलों ने मंडल आयोग की सिफारिश के अनुसार पिछड़े वर्ग के आरक्षण को स्वीकार कर लिया। सामान्य वर्ग के लोगों में बढ़ते आक्रोश के चलते सरकार ने जनवरी 2019 में संविधान संशोधन करके सामान्य वर्ग के गरीबों के लिए भी भी 10% आरक्षण प्रदान कर दिया।

अगर इतिहास टटोल कर देखें तो आरक्षण के माध्यम से वोट बैंक बनाकर सत्ता पाने का सर्वाधिक कार्य कांग्रेस द्वारा ही किया गया। वी.पी. सिंह भी मूलतः कांग्रेसी ही थे। उन्होंने भी आरक्षण का ही दांव खेला था, हालांकि वह उनके काम नहीं आया।जब कांग्रेस को कोई नया रास्ता दिखाई नहीं दिया। अब आरक्षण के जिन्न से कैसे नया वोट बैंक बनाया जाए इसके नए-नए रास्ते ढूंढे जाने लगे। तब उन्होंने विभिन्न राज्यों में वहां की तगड़ी और दबंग जातियों को आरक्षण के लिए भड़काया और एक के बाद एक राज्य को आरक्षण के आंदोलन से दहलाना शुरू किया, यह प्रक्रिया अभी तक चल रही है।

दबंग और लड़ाकू जातियों में से यादवों को तो पहले ही आरक्षण मिल गया था फिर कभी जाट आरक्षण के नाम पर पश्चिम उत्तर प्रदेश और हरियाणा को रक्तरंजित किया, गुर्जर आरक्षण के नाम पर राजस्थान को दहलाया गया। फिर पाटीदार आरक्षण को लेकर गुजरात को दहलाया गया, मराठा आरक्षण को लेकर महाराष्ट्र मैं भी ऐसा ही हुआ और इसी प्रकार कर्नाटक में भी किया गया। जब भी चुनाव आते हैं आरक्षण का जिन्न बोतल से बाहर निकाला जाता है। इस बार भी महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण में किस जाति को जोड़ा जाए, इसे लेकर बड़ा मुद्दा बनाया गया।

अब विपक्षी नेताओं को वोट बैंक साधने के लिए कोई नया रास्ता खोजना था। मुस्लिम तुष्टिकरण का मुद्दा तो पहले से ही लगातार सुर्खियों में रहा है। मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए कांग्रेस के शासनकाल में ही कई ऐसे कानून बनाए गए जो संविधान की मूल भावना के तथा समानता के अधिकार के ठीक प्रतिकूल थे। अब संविधान और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के प्रतिकूल कई राज्यों में मुसलमानों को आरक्षण देने का काम शुरू कर दिया गया। अदालतों द्वारा इसे असंवैधानिक तथा गैर कानूनी मानते हुए रद्द किया जाने लगा। लेकिन मुसलमानों का हितैषी बनने और दिखाने के लिए फिर भी यह होता रहा ताकि मुस्लिम वोट बैंक इन दलों के पक्ष में रहे।

इन दलों की आपसी लड़ाई भी प्राय: मुस्लिम वोट बैंक को लेकर देखी जाती है। जैसे-जैसे मुसलमानों की आबादी बढ़ती जा रही है विपक्षी दलों को यह सबसे अच्छा रास्ता दिखाई दे रहा है। पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार द्वारा हाल ही में आरक्षण में मुसलमानों को शामिल किए जाने और उसके आधार पर उन्हें नौकरियां दिए जाने का मामला जब उच्च न्यायालय में पहुंचा तो उसे गैर कानूनी पा कर कोलकाता उच्च न्यायालय ने निरस्त कर दिया। लेकिन क्योंकि बांग्लादेश और म्यांमार से होती घुसपैठ तथा मुस्लिम आबादी बढ़ने की दर के कारण बंगाल में मुसलमानों की जनसंख्या बहुत तेजी से बढ़ी है, हालांकि इनमें से बहुत बड़ी आबादी यहां से पलायन कर अन्य राज्यों में भी पहुंच रही है।

जो ममता बैनर्जी का सबसे पक्का वोट बैंक है, तो वे कहां मानने वाली हैं। उन्होंने कोलकाता उच्च न्यायालय के निर्णय को मानने से इनकार कर दिया । अब वे सर्वोच्च न्यायालय में जाएगी। उसमें कुछ वर्ष निकल जाएंगे तब तक असंवैधानिक आरक्षण के माध्यम से नौकरी पर लोगों को कई साल हो जाएंगे, तब उन्हें हटाना और कठिन हो जाएगा। यह हो या ना हो तो भी वे यह धारणा बनाने में तो सफल हो ही जाएँगी कि वे मुसलमानों के लिए संविधान के विरुद्ध जाकर भी कुछ भी करने को तैयार हैं। इससे उनका वोट बैंक तो बढ़ेगा ही। जिसकी जितनी आबादी उसका हर चीज पर उतना हक, इस तरीके से कांग्रेस भी इनके समर्थन में खड़ी है।

इसी प्रकार कर्नाटक सहित कई राज्यों में संविधान विरुद्ध मुसलमानों को अनुसूचित जाति, जनजाति या पिछड़ा वर्ग में आरक्षण दिया जाने लगा है। उसके विरुद्ध अदालतों में भी लड़ाइयां जारी हैं। लेकिन अब विपक्षी दलों के कई नेताओं ने खुल्लम खुल्ला यह कहना शुरू कर दिया है कि वे मुसलमान के आरक्षण के पक्ष में हैं। यदि वे सत्ता में आएंगे तो मुसलमानों को आरक्षण देंगे, भले ही उसके लिए कानून या संविधान बदलना पड़े। मुस्लिम-यादव समीकरण से बने दलों के मुखिया तो मंचों से मुसलमानों को आरक्षण देने की बात कर रहे हैं। लालू प्रसाद यादव ने तो इसे चुनावी मुद्दा बनाया है। यह कहना भी अनुचित न होगा कि इंडी गठबंधन कै ज्यादातर दल पुरजोर ढंग से मुस्लिम तुष्टिकरण में जुटे हुए हैं और उसके लिए कानून व संविधान को ताक पर रख रहे हैं।

अब यहां विचार का विषय यह है कि यदि मुसलमानों को हिंदुओं की तरह अनुसूचित जाति, जनजाति या पिछड़ा वर्ग में शामिल किया गया तो इस वर्ग के आरक्षण का सबसे ज्यादा फायदा कौन लेगा ? आजादी के बाद जिस तेजी के साथ मुसलमान की आबादी बढ़ी है और लगातार बढ़ रही है तो इस आरक्षण का ज्यादातर लाभार्थी कौन होगा? इसका नुकसान किस होगा ? यह भारत के संविधान के प्रतिकूल तो होगा ही, इसे वर्तमान में आरक्षण का लाभ उठा रहे हिंदू बौद्ध आदि की अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़ी जातियों को तब आरक्षण का कितना हिस्सा मिल सकेगा ? क्या वे अपनी आरक्षण में से इतना बड़ा हिस्सा मुसलमान को जाते देखकर चुप बैठेंगे ?

मुस्लिम आरक्षण को लेकर अब विचार का विषय यह भी है कि लोकसभा चुनावों के पश्चात राजनीतिक समीकरण कैसे बनते हैं और सत्ता किसी मिलती है ? जहां भारतीय जनता पार्टी ने स्पष्ट कर दिया है कि वह संविधान के बाहर जाकर मुसलमानों को धार्मिक आधार पर आरक्षण देने की विरोध में है और वह ऐसी प्रयासों को सफल नहीं होने देगी। वहीं विपक्षी गठबंधन के घटक दल मुसलमानों को आरक्षण देने को लेकर तलवारें भांज रहे हैं।

यहां प्रश्न यह भी है कि क्या हिंदू, बौद्ध आदि की अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्ग के लोग अपने आरक्षण का एक बड़ा हिस्सा मुसलमानों को देने के लिए तैयार होंगे, जिनकी आबादी लगातार बढ़ रहा है? क्या इसीलिए कारण देश में एक बार फिर हिंसा का तांडव होगा? वोट बैंक की राजनीति की आग में क्या एक बार फिर देश जलेगा।

क्या धार्मिक आधार पर मुसलमान को अलग से आरक्षण दिया जाएगा और इसके लिए आरक्षणकी निर्धारित सीमा को बढ़ाकर फिर एक नया विभाजन किया जाएगा ? क्या ऐसे प्रयासों की देशभर में तीखी प्रतिक्रिया नहीं होगी ? इसके सामाजिक स्तर और देश के विकास पर किस-किस तरह के प्रभाव पड़ेंगे? क्या प्रतिभा पलायन में और अधिक तेजी आएगी ? प्रणाम जो भी हो लेकिन सत्ता पाने के लिए आतुर विपक्षी दल अब किसी भी कीमत पर मुसलमान को आरक्षण के दायरे में लाकर सत्ता पाने के लिए बेचैन हैं। इसके लिए वे संविधान में परिवर्तन करने के लिए भी तैयार हैं। इन सब प्रयासों का परिणाम क्या होगा, यह तो भविष्य बताएगा। लेकिन इतना तय है कि यह इतना सरल और शांतिपूर्ण तो नहीं होगा।

(लेखक वैश्विक हिंदी परिषद के अध्यक्ष हैं )