इन दिनों की कुछ घटनाएं पूरे राष्ट्र के मानस पटल पर छाई रही हैं। जिनमेें बिहार के राज्यपाल श्री रामनाथ कोविंद की जिस तरह से नरेन्द्र मोदी ने एनडीए के राष्ट्रपति उम्मीदवार के रूप में घोषणा की, वह आश्चर्यकारी एवं अद्भुत घटना है। राजनीतिक गलियारों में अब जबकि राष्ट्रपति पद के पक्ष एवं विपक्ष के उम्मीदवार की घोषणा हो चुकी है, कोविंद की जीत सुनिश्चित मानी जा रही है, क्योंकि सत्तारूढ़ दल भाजपा और उसके समर्थकों के पास इतना संख्या बल है कि वह अपने उम्मीदवार को आसानी से जिता सकते हैं। इसलिये देश के 14वें राष्ट्रपति के रूप में कोविंदजी के प्रति संभावनाएं व्यक्त की जा सकती है कि वे राष्ट्रपति के रूप में नये मानक एवं पद की नयी परिभाषा गढ़ेंगे।
यह तो तय था कि प्रधानमंत्री मोदी जिसे चाहेंगे, वही देश का अगला राष्ट्रपति बनेगा, लेकिन देश का राष्ट्रपति सर्वसम्मति से बने, यह एक आदर्श स्थिति है और इसके लिये विपक्ष को सारी परिस्थितियों को देखते हुए इस तरह का उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए। राजनीति में आदर्श की आशा कैसे संभव हो सकती है? वहां व्यावहारिकता का कोई स्थान नहीं है। आवश्यकता इसी बात की है देश का यह सर्वोच्च पद दलगत राजनीति की सीमाओं का किसी भी रूप में बंदी नहीं होना चाहिए।
लोकतंत्र की सफलता इसी में है और इसका तकाजा है कि राष्ट्रपति के पद को किसी राजनीतिक गणित का हिस्सा भी न बनाया जाये। हो सकता है राष्ट्रपति चुनाव तक इस पद को लेकर राजनीति होती रहे, लेकिन जैसे ही कोविंदजी राष्ट्रपति बनकर अपनी भूमिका के लिये तैयार होेंगे, उनका हर कार्य और कदम इस सर्वोच्च पद की गरिमा को बढ़ाने वाला होगा, इसमें किसी तरह का सशंय नहीं है। क्योंकि वे एक राजनीतिक व्यक्तित्व ही नहीं है बल्कि एक राष्ट्रीय मूल्यों के प्रतीक पुरुष भी है, वेे हमंे अनेक मोड़ों पर नैतिकता का संदेश देते रहेंगे कि घाल-मेल से अलग रहकर भी जीवन जिया जा सकता है। निडरता से, शुद्धता से, स्वाभिमान से। स्वतंत्र, निष्पक्ष और विवेकपूर्ण निर्णय लेकर वे इस पद की अस्मिता एवं अस्तित्व की रक्षा करेंगे। यह देश की अस्मिता का प्रतीक पद है। इसलिए जरूरी है कि किसी राजनीति दल से जुड़े रहने के बावजूद देश का राष्ट्रपति दलीय राजनीति से ऊपर हो, निष्पक्ष हो। अब तक के कोविंदजी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से यही उजागर हुआ है। राष्ट्रपति बनने के बाद वे राजनीति की भांति ही संवैधानिक जिम्मेदारियों को भी बेखूबी निभायेंगे, ऐसी आशा है।
भाजपा की एक पहचान उच्च वर्ण की पार्टी के रूप में भी रही है और वोटों के गणित के तकाजे को देखते हुए भाजपा अपनी इस छवि को बदलने के लिए अक्सर सजग रही है। एक दलित को सर्वोच्च पद पर बिठाकर अब वह कह सकती है कि उसे ब्राह्मणों-बनियों की पार्टी कहना भी गलत है और ‘सूट-बूट की सरकार’ कहना भी। असल में आज राजनीति को इन्हीं मूल्यों की जीवंतता के लिये जागरूक करने की जरूरत है। मोदी के जादुई व्यक्तित्व ने पहले जीत के कीर्तिमान गढ़े और राजनीति की विसंगतियों के लिये वे तत्पर हंै। राष्ट्रपति पद के लिये उन्होंने जिस व्यक्ति का चयन किया है, निश्चित ही इससे राजनीति की नयी दिशाएं उद्घाटित होंगी। अब कल्पना की जा सकती है कि राजनीति में सभी जाति, वर्ग, वर्ण, क्षेत्र का समतामूलक प्रतिनिधित्व हो सकेगा। एक गरीब दलित को राष्ट्रपति बनाने का असर निश्चित ही सकारात्मक होगा। कोई आदिवासी भी ऐसे ही किसी उच्च पद को शोभित कर सकेगा, इन संभावनाओं को भी नकारा नहीं जा सकता। यही है भारत की राजनीति की उन्नत होती दिशाएं।
किसी दलित का राष्ट्रपति बनना मानवीय दृष्टिकोण से अनूठी घटना है। वैसे यह पहली बार नहीं है जब राष्ट्रपति भवन में कोई दलित बैठेगा। इससे पहले कांग्रेस ने एक दलित परिवार में जन्मे के. आर. नारायणन को देश का दसवां राष्ट्रपति बनाया था। लेकिन जब-जब ऐसे अनूठे उदाहरण प्रस्तुत करने का साहस दिखाया जाता है, तब-तब इन ऐतिहासिक निर्णयों को राजनीतिक रंग देने की कोशिश की जाती है, इस तरह का संकीर्ण राजनीतिक नजरिया लोकतंत्र की सफलता एवं सार्थकता को धूमिल ही करता है। यह कहना कि दलित को राष्ट्रपति बनाकर भाजपा अपने वोट बैंक को सुदृढ़ कर रही है, अपनी राजनीतिक छवि को विस्तृत बना रही है, क्या इससे पहले भाजपा ने जो जीत के कीर्तिमान स्थापित किये हैं, वे ऐसी ही किसी संकीर्ण राजनीति का परिणाम थे? तब कौन दलित को उसने राष्ट्रपति घोषित करके अपनी जीत के कीर्तिमान गढ़े? जब कांग्रेस ने के. आर. नारायणन को राष्ट्रपति बनाया तब भी इसे वोटों की राजनीति का हिस्सा बताते हुए कहा गया था कि दक्षिण भारत में अपनी स्थिति मजबूत बनाने के लिए तत्कालीन सत्तारूढ़ दल कांग्रेस ने यह दांव खेला है। लेकिन उस निर्णय से भी कांग्रेस के वोटों का गणित किसी चमत्कारी प्रभाव से लाभान्वित हुआ हो, प्रतीत नहीं होता। इसलिये कोविंद के नाम को, किसी दलित के राष्ट्रपति बनने को राजनीतिक नजरिये से नहीं, बल्कि लोकतंत्र की बदलती फिजां के रूप में देखना चाहिए। इस तरह राजनीति स्वच्छ होती हुई दिखाई दे रही है और उसका स्वागत करना चाहिए। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो हमारे राष्ट्रपतियों की परंपरा बहुत शानदार रही है। निश्चित ही देश का नया राष्ट्रपति इस शानदार परंपरा की कड़ी को आगे बढ़ायेगा।
श्री रामनाथ कोविंद के राष्ट्रपति के रूप में एक नये युग की शुरुआत होने जा रही है। क्योंकि वे नैतिक मूल्यों एवं राष्ट्रीयता को मजबूत करने वाले व्यक्तियों की शंृखला के प्रतीक के रूप में है। इससे राजनैतिक जीवन में शुद्धता की, मूल्यों की, पारदर्शी राजनीति की, आदर्श के सामने राजसत्ता को छोटा गिनने की या सिद्धांतों पर अडिग रहकर न झुकने, न समझौता करने की महिमा को समझा जा सकेगा। उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों एवं राजनीति में विभिन्न पदों पर रहकर कार्य किया। ऐसे व्यक्ति जब भी रोशनी में आते हैं तो जगजाहिर है- शोर उठता है। कोविंद के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। लेकिन वे सक्रिय राजनीति में रहे, अनेक पदों पर रहे, पर वे सदा दूसरों से भिन्न रहे। घाल-मेल से दूर। भ्रष्ट राजनीति में बेदाग। विचारों में निडर। टूटते मूल्यों में अडिग। घेरे तोड़कर निकलती भीड़ में मर्यादित। ऐसे व्यक्तित्व जब एकाएक किसी ऊंचाई पर पहुंचते और वह भी बिना किसी दांवपेच के तब वह ऊंचाई उस व्यक्ति की श्रेष्ठता का शिखर होता है और ऐसे शिखर से प्रकाश तो फैलता ही है।
हमारा संविधान यह नहीं कहता कि राष्ट्रपति पद पर राजनीतिक व्यक्ति को नहीं आना चाहिए और राष्ट्रपति बनने के बाद उसे हर मोर्चे पर निष्क्रिय हो जाना चाहिए। यह निश्चित है कि हमारा राष्ट्रपति सरकार की सलाह पर ही काम कर सकता है, लेकिन यह भी सही है कि वह अपनी विवेकपूर्ण सलाह से सरकार को सही राह भी दिखा सकता है। संविधान की मर्यादाओं में रहते हुए भी वह सरकार को दलीय स्वार्थों से ऊपर उठकर राष्ट्रीय हितों का ध्यान रखने के लिए बाध्य कर सकता है। उनसे सिर्फ दो मोर्चों पर निष्क्रियता की अपेक्षा की जाती है। एक तो उनसे राजनीति में सक्रिय न रहने की अपेक्षा की जाती है, ताकि उसकी निष्पक्षता बनी रहे और वह किसी खास दल के प्रति भेदभाव या पक्षपात न बरते। दूसरे, वह राष्ट्रपति को सरकार के किसी भी अंग-कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के परिचालन में सीधे हस्तक्षेप करने से रोकता है। इन दोनों मोर्चों पर कोविंद को सफलता हासिल करते हुए इस पद को एक नयी ऊंचाई प्रदत्त करनी है। इसके लिये हमेशा उन्हें अपनी आंखें खुली और विवेक को जाग्रत रखना होगा। वे इसमें सफल होंगे ही, क्योंकि उनका लम्बा राजनीतिक अनुभव है, संवैधानिक बारीकियों के वे जानकर एवं विशेषज्ञ है। भारतीय राजनीति में उनके अभिन्न योगदान को जिस तरह से नकारा नहीं जा सकता वैसे ही एक सफल एवं यादगार राष्ट्रपति के रूप में उनकी यह पारी स्मरणीय रहेंगी। ऐसे विरल व्यक्तित्व को राष्ट्रपति बनाया जाना इस देश की जरूरत की ओर इंगित करता है।
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(ललित गर्ग)
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