प्रधानमंत्री उम्मीदवार नरेंद्र मोदी काशी से केवल डेढ़ लाख मतों के अंतर से ही जीत पाए जबकि काशी में विकास और आधुनिक स्तर का बदलाव देखा गया फिर नरेंद्र मोदी के कद के हिसाब से कम अंतर स्व जीत का अर्थ क्या है?
काशी की अपनी तासीर है, अपना मूड है। बनारसी महादेव के भक्त हैं। भोले हैं तो तुरंत गुस्से में आने वाले भी। वहीं औघड़ का शहर काशी अपनी अलग पहचान रखता है। काशी में किया गया विकास कार्य काशी की पौराणिक व्यवस्थाओं के विरुद्ध ही खड़ा हो गया था। घाटों के सौंदर्यीकरण के नाम पर नमो घाट बना देना, दो घाटों को जोड़ कर एक घाट बना देना, काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के विकास के नाम पर विश्वनाथ मंदिर को अक्षरधाम बनाने का प्रयास, मंदिर परिसर में रेस्टोरेंट, कृत्रिम सजावट , कुछ संतों का ठेकेदार के रूप में पहचान बन जाना, काशी के अंदर की बनावट के साथ छेड़छाड़ करना, बुढ़वा मंगलवार (होली के बाद का मंगलवार) पर होने वाले वयस्क कवि सम्मेलन पर प्रतिबंध, स्थानीय केवट की नावों की जगह गुजरात की बड़ी कम्पनियों के क्रूज को बढ़ावा देना बनारसियों को रास नहीं आ रहा था।
समय समय पर स्थानीय लोग इसकी शिकायत भी कर रहे थे किंतु ठेकेदार बन बैठे प्रभावशाली संतों के प्रभाव में ये बातें दबाई जाती रही। जिन बनारसियों ने स्वामी दयानंद सरस्वती को भी अपने घेरे में ले लिया हो वो इन बातों पर चुप कैसे रह जाते। उचित समय के इंतजार में थे, उचित समय हाथ लगा और अपना विरोध दर्ज करवा दिए।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को समझना होगा कि विकास का ये अर्थ नहीं कि विकास के नाम पर आप शहर के संस्कृति पर ही प्रहार कर दें। काशी और गुजरात महाराष्ट्र और दिल्ली में अंतर है। लोगों की सोच में अंतर है। यहां के लोग दूसरों के साथ स्वयं को भी गुरु मानते हैं। उन्हें अपने हिसाब से चलना पसंद हैं, वो जो हैं उसे ही व्यवस्थित व सुसंस्कारित मानते हैं। यदि उन्हें ये बताया जाए कि उनके जीवन को सुव्यवस्थित अथवा संस्कारित करने की आवश्यकता है तो परम् बनारसी इसे अपना अपमान ही समझेंगे।
उम्मीद है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन बातों पर ध्यान देंगे और काशी को काशी ही रहने देंगे और खासकर काशी विश्वनाथ को अक्षरधाम बनाने का प्रयास नहीं करेंगे।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)