नई दिल्ली, 13 जून (इंडिया साइंस वायर) : जननी सुरक्षा जैसी योजनाओं के चलते भारत में संस्थागत प्रसव का दायरा बढ़ा है। लेकिन, प्रसव से जुड़े गंभीर मामलों से निपटने के लिए प्राथमिक एवं सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में आवश्यक संसाधनों की कमी और आपातकालीन सेवाओं का अभाव बना हुआ है। ये बातें देश के 30 राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों में किए गए सर्वेक्षण से उभरकर आयी हैं।
भारतीय शोधकर्ताओं के इस अध्ययन में इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पॉपुलेशन सांइसेज द्वारा देश भर में किए गए सर्वेक्षण से प्राप्त आंकड़ों को आधार बनाया गया है। सर्वेक्षण के दौरान बेहतर सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए जरूरी प्राथमिक एवं सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों की क्षमता की पड़ताल की गई है। इस अध्ययन में देश भर के विभिन्न जिलों में मौजूद 8,536 स्वास्थ्य केंद्रों और 4,810 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों से प्राप्त आंकड़ों को शामिल किया गया है।
इस अध्ययन से पता चला है कि अधिकतर स्वास्थ्य केंद्रों में बुनियादी सुविधाओं का अभाव है और वे राष्ट्रीय मापदंडों के अनुकूल नहीं हैं। स्वास्थ्य केंद्रों में आपातकालीन प्रसूती सेवाओं और कुशल मानव संसाधन की कमी एक प्रमुख बाधा बनी हुई है। पर्याप्त साजो-सामान, दवाओं की आपूर्ति और मानव संसाधन में कमी के कारण ज्यादातर स्वास्थ्य केंद्रों में बेहतर प्रसूति सेवाएं नहीं मिल पाती है।
करीब 30 प्रतिशत प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और पांच प्रतिशत सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में मां एवं शिशु की देखभाल के सेवाएं उपलब्ध ही नहीं हैं। अध्ययन में शामिल बहुत से स्वास्थ्य केंद्रों में प्रसव की दर काफी कम दर्ज की गई है और शहरी तथा ग्रामीण इलाकों में हालात लगभग एक जैसे ही हैं।
प्रसव के दौरान रक्तस्राव को मातृ मृत्यु दर अधिक होने का एक प्रमुख कारण माना जाता है। लेकिन, ज्यादातर स्वास्थ्य केंद्रों में रक्तस्राव के प्रबंधन की व्यवस्था न के बराबर पायी गई है। महज 10 प्रतिशत प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और एक तिहाई सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों पर सहायक की मदद से सामान्य प्रसूति सेवाएं मिल पाती हैं। आपात स्थिति में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों से रेफरल केंद्र के रूप में कार्य करने की अपेक्षा रहती है, पर इस मामले में ये केंद्र खरे नहीं पाए गए हैं। दवाओं और अन्य जरूरी चीजों की आपूर्ति में खामियां स्थिति को और भी गंभीर बना देती हैं।
शोधकर्ताओं में शामिल जॉर्ज इंस्टीट्यूट फॉर ग्लोबल हेल्थ से जुड़ी शोधकर्ता देवकी नांबियार ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “इस अध्ययन स्पष्ट है कि राष्ट्रीय मापदंडों के अनुसार मातृ एवं बाल स्वास्थ्य में विकास संबंधी मूल्यांकन के लिए सर्वेक्षण और आंकड़ों का उपयोग सूचक के रूप में किया जा सकता है। प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता और उसकी गुणवत्ता बनाए रखने के लिए सरकार को अधिक ध्यान देने की जरूरत है। कई स्थानों पर जननी सुरक्षा और जननी शिशु सुरक्षा जैसी योजनाओं के जरिये लोगों तक स्वास्थ्य सुविधाएं तो पहुंच रही हैं, पर कुशल एवं प्रशिक्षित स्वास्थकर्मियों की वहां कमी है।”
इस अध्ययन के दौरान स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता का पता लगाने के लिए स्वास्थ्य केंद्रों को कोई स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध न कराने वाले, 24 घंटे सेवाएं देने वाले और सिर्फ दिन के समय सेवाएं देने वाले सुविधा केंद्रों के रूप में वर्गीकृत किया गया है। सर्वेक्षण के अनुसार, 60 प्रतिशत प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और 94 प्रतिशत सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों पर 24 घंटे स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध रहती हैं। हालांकि, प्राथमिक और सामुदायिक दोनों तरह के स्वास्थ्य केंद्रों पर दी जाने वाली सामान्य और आपातकालीन सेवाओं में गंभीर खामियां पायी गई हैं। इनमें स्वास्थ्य केंद्रों पर संसाधनों की उपलब्धता और स्टाफिंग के मापदंडों का पूरा न होना प्रमुख है।
अध्ययनकर्ताओं के अनुसार, मां और नवजात बच्चों की मौत की अधिकतर घटनाएं प्रसव के 24 घंटे के दौरान होती हैं। इसलिए मातृ एवं शिशु मृत्यु दर को कम करने के लिए संस्थागत प्रसूति सेवाओं के विस्तार, समय रहते प्रसव संबंधी जटिलताओं की पहचान एवं उनका उपचार जरूरी होता है। कई बार समय पर सही उपचार न मिल पाने से मां और उसके शिशु का जीवन खतरे में पड़ जाता है।
भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं ग्रामीण और वंचित वर्ग के लोगों के लिए विशेष रूप से महत्व रखती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में करीब 80 प्रतिशत संस्थागत प्रसव होते हैं और इनमे से 70 प्रतिशत प्रसव सार्वजनिक संस्थाओं में होते हैं। इसी तरह शहरी क्षेत्रों में 89 प्रतिशत से अधिक संस्थागत प्रसव होते हैं। इनमें से 47 प्रतिशत प्रसव सार्वजनिक संस्थाओं में होते हैं। सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर गरीब अधिक आश्रित रहते हैं। इसलिए इन सेवाओं के कमजोर होने का सबसे अधिक असर गरीबों पर पड़ता है। अध्ययनकर्ताओं के अनुसार स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने के लिए सरकार को अधिक निवेश करने की आवश्यकता है।
नई दिल्ली स्थित जॉर्ज इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ और अमेरिका के हार्वर्ड टीएच चान स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए इस अध्ययन के नतीजे शोध पत्रिका बीएमजे ओपेन में प्रकाशित किए गए हैं। अध्ययनकर्ताओं में देवकी नांबियार के अलावा जिज्ञासा शर्मा, हना एस. लेस्ली, मैथिल्डा रीगन और मारग्रेट ई. क्रुक शामिल थे। (इंडिया साइंस वायर)
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