मानव जीवन में वायु, सूर्य तथा जल पवित्रता लाने वाले हैं। इस पवित्रता के कारण ही हम में यज्ञ की प्रवृतियां आती हैं। इससे हम में उत्तम रुधिर तथा रस आदि धातुएं बढकर शरीर को स्वस्थ रखती हैं तथा हम दिव्य गुणों से युक्त होकर उतम मन वाले बनते हैं। इस बात को यजुर्वेद के मन्त्र संख्या १२ में इस प्रकार कहा गया है :-
पवित्रे स्थो वैष्णव्यौ सवितुर्व: प्रसव उत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्य्यस्य रश्मिभि:। देवीरापोऽअग्रेगुवोऽअग्रेपुवोऽग्रऽइममद्य यज्ञं नयताग्रे यज्ञपतिं सुधातुं यज्ञपतिं देवयुवम्॥ यजुर्वेद १.१२ ॥
इस मन्त्र में परमपिता परमात्मा पति और पत्नी को सम्बोधित करते हुए इस प्रकार उपदेश कर रहे हैं कि:-
१. पवित्र जीवन वाले बनो:-
परिवार का मु00ख्य केन्द्र पति और पत्नि ही होते हैं। यह दोनों जैसे होंगे , आगे आने वाली उनकी प्रजा(संतान) भी वैसी ही होगी। उतम प्रजा के लिए माता-पिता का भी उतम होना आवश्यक होता है। इसलिए मन्त्र यहां से ही अपने उपदेश का आरम्भ करते हुए कह रहा है कि हे इस परिवार के पति व पत्नी! अर्थात् हे माता पिताओ! तुम दोनों अपने जीवन को पवित्र बनाने वाले बनो। अपने जीवन को पवित्रता से भर लो।
२.तुम मानस, बौद्धिक तथा शारीरिक उनति प्राप्त करो:-
प्रभु मानव को पवित्र बनने का उपदेश करते हुए दूसरे बिन्दु पर कह रहे हैं कि तुम दोनों विष्णु के उपासक बनो अर्थात् तुम व्यापक रुप से तथा उदार वृति वाले बनें। जब तक मानव में व्यापकता से उदारता नहीं आती, तब तक वह विष्णु रुप ब्रह्म का उपासक बन ही नहीं सकता। इसलिए ही मन्त्र कह रहा है कि विष्णु की उपासना के लिए व्यापक उदारता अपने अन्दर लावो। विष्णु के समबन्ध में मन्त्र उपदेश कर रहा है कि विष्णु उन लोगों का साथ देता है जो उसके साथ तीन कदम बढाते हैं। यह तीन कदम बढाने वाले विष्णु को साक्षात् कर लेते हैं या यूं कहें कि जो विष्णु ही बन जाते हैं। यह तीन कदम कौन से हैं? इन तीन कदमों का नाम है:
शारीरिक उन्नति
मानस उन्नति
बोद्धिक उन्नति
जो मानव शारीरिक रुप से स्वस्थ है, जो व्यक्ति मानसिक रुप से भी स्वस्थ है तथा जिसके पास तीव्र बुद्धि है, एसा व्यक्ति संसार के श्रेष्ठ लोगों में गिना जाता है तथा उसके सब कार्य सरलता से सिद्ध होते हैं। इसलिए मानव के द्वारा विष्णु की और जाने वाले यह तीन कदम ही उसकी उतमता के, उसकी उन्नति के प्रतीक होते हैं।
इस बिन्दु को ही आगे बढाते हुए मन्त्र कह रहा है कि तुम दोनों ने प्रयत्न पूर्वक अपने शरीर को स्वस्थ रखा है, अपने मन को निर्मल किया है तथा अपनी बुद्धि को प्रयत्न पूर्वक तीव्र व उज्ज्वल बनाया है। जब तुम ने यह सब करने में सफ़लता प्राप्त कर ली है तो इसका लाभ भी निश्चित रूप से आप को मिलने वाला है।
३. पवित्र हो उन्नति पथ के पथिक बनें:-
यह मन्त्र में तृतीय उपदेश इस प्रकार दिया गया हैं कि वह प्रभु उत्पादक है। उस प्रभु ही के कारण इस जगत् की उत्पति हुई है । इस उत्पन्न हुए जगत् में ही तुम भी एक हो। अत: मैं इस जगत् के निवासी तुम सब को पवित्र करके उन्नति के पथ पर अग्रसर करता हूं।
अब प्रश्न उठता है कि प्रभु हमें जो पवित्र करने के लिए, पवित्र बनने के लिए प्रेरित कर रहा है, वह कौन से साधन हैं?, जिससे हम पवित्र होते हैं। इस सम्बन्ध में मन्त्र कह रहा है कि:-
क) वायु पवित्रता का साधन है:-
मन्त्र कहता है कि वायु पवित्र होती है क्योंकि अछिद्र व आकाश से रहित होती है| प्रभु कहते हैं कि मैं तुझे इस वायु से पवित्र करता हूं। वायु समग्र आकाश में होने से आकाश में एसा कोई स्थान नहीं रहता, जहां किंचित भी खाली स्थान हो, इसलिए इस वायु के कारण आकाश में कहीं कोई छिद्र नहीं रहता| तब ही तो यहां वायु को अछिद्र कहा गया है। इतना ही नहीं अपितु यह वायु ही है जो हमारे शरीर में प्रवेश कर हमारे अन्दर आक्सीजन के द्वारा हमारे रक्त को शुद्ध करने का कार्य करती है। जिस का रक्त शुद्ध होता है, वह ही स्वस्थ होता है। इस प्रकार वायु हमारे उतम स्वास्थ्य का साधन है।
ख) सूर्य भी पवित्रता का साधन है:-
जिस प्रकार वायु हमारे अन्दर पवित्रता, शुद्धता ला कर हमें स्वस्थ करती है, उस प्रकार ही हमारे लिए पवित्रता का दूसरा साधन सूर्य होता है। वह पिता उपदेश करते हुए कह रहा है कि हे जीव! मैं तुझे सूर्य की किरणों के द्वारा पवित्र करता हूं। सूर्य की किरणों में रोगाणुओं के नाश की अद्भुत शक्ति होती है। यह किरणें जब हमारी छाती पर पडती हैं तो हमारे शरीर में स्थित रोगाणु नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार हमारे अन्दर जो रोग की गन्दगी होती है, यह किरणें उसे धोकर शुद्ध कर देती हैं। इसलिए ही धूप स्नान का उपदेश चिकित्सक देते हैं तथा नवजात शिशु को भी प्रतिदिन धूप में कुछ समय रखने के लिए कहा जाता है।
ग) जल भी पवित्रता का साधन है:-
जिस प्रकार वायु ओर सूर्य हमें पवित्र करने के साधन हैं , उस प्रकार ही जल भी हमारे लिए पवित्रता लाने का एक अन्य मुख्य साधन है। इस में इन दोनों से भी अधिक दिव्य गुणों से युक्त शक्ति होती है। जल का कार्य है ऊंचे से नीचे को चलना। इस कारण ही यह जल सदा समुद्र की और बढता रहता है। पर्वतों से नीचे की और बहते हुए यह जल निरंतर अपने लक्ष्य अर्थात् सागर से मिलन करने के लिए, इसकी प्राप्ति के लिए यात्रा करता रहता है| इस कारण ही यह सब से अधिक पवित्रता लाने का कारण होता है। इस कारण यह जल सब प्रकार के रोगों का औषध होता है।
इस जल को ही प्रेरित करते हुए प्रभु कहते हैं कि सब को पवित्र करने वाले इस जल से हमारे अन्दर यज्ञ की भावना बढे। जल का कार्य है पवित्रता लाना। जब हम जल के प्रयोग से अपने को शुद्ध पवित्र कर लेते हैं तो हमारे अन्दर परोपकार की, यज्ञ की भावना बलवती हो जाती है। अत: यह यज्ञीय भावना को बढाने वाला होता है। इसलिए प्रभु कहता है कि इस जल के कारण जो लोग यज्ञ करते हैं, वह इस में जल के ही समान निरन्तरता बनाये रखें। यज्ञों को किसी भी व्यवधान के आने पर भी न छोडें तथा यज्ञीय जीव निरन्तर उन्नति को प्राप्त करे।
यज्ञ में अभ्युदय व निश्रेयस की अपार शक्ति होती है। मन्त्र कहता है कि यह यज्ञ उसके अर्थात् इसे अपनाने वाले जीव के अभ्युदय व नि:शेयस की शक्ति बने, साधक बने। इस यज्ञग्य से ही हमारी धातुएं भी पैदा होती हैं तथा बढती हैं। इसलिए कहा है कि यज्ञ हमारे शरीर की सब धातुओं को दोष रहित रखे , निर्दोष करे। धातुओं की निर्दोषता ही के कारण यह यज्ञ मनुष्य के जितने भी ज्ञात ही नहीं अज्ञात रोग हैं, उनसे भी मुक्त करता है।
हम जानते हैं कि हमारे शरीर के अनेक रोग, जिनका हमें ज्ञान होता है, उनसे मुक्ति के लिए हम तदानुरुप सामग्री आदि की आहुति देकर रोग मुक्त होते हैं किन्तु हमारे शरीर में कई एसे रोग भी विकसित हो रहे होते हैं, जिन का अभी तक हमें पता ही नहीं होता ,जब तक हमें इन रोगों क पता चलता है तब तक यह विकराल हो चुके होते हैं। इस प्रकार के रोग, जिनका अभी हमें पता ही नहीं होता कि यह रोग हमारे शरीर में विकसित हो रहे हैं, इन का भी यज्ञग्य के कारण हनन हो जाता है तथा हम रोग मुक्त हो जाते हैं। यह सब जल का ही प्रभाव होता है। इसलिए मन्त्र कह रहा है कि हे जलो! तुम इस यज्ञपति अर्थात प्रतिदिन यज्ञ करने वाले प्राणी को दिव्य गुणों से संयुक्त करदो, भर दो ।
डा᷃᷃. अशोक आर्य
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