भारतीय इतिहास एवं संस्कृति के प्रकाण्ड विद्वान् और ओजस्वी वक्ता तथा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. हरवंशलाल ओबराय (1925-1983) को जाननेवाले और बतानेवाले अब कम ही लोग जीवित हैं। आज डॉ. ओबराय जी की न तो जन्मतिथि है और न ही पुण्यतिथि। किन्तु आज स्व. ओबरायजी और मुझसे जुड़ी एक ऐसी घटना की 13वीं बरसी है जिसने मुझे भीतर-बाहर झकझोरकर रख दिया और जिसे स्मरण करके मैं आज भी पीड़ा से संत्रस्त हो उठता हूँ। तेरह वर्ष पुरानी यह घटना मेरे मानस-पटल पर एक चलचित्र की भाँति अंकित है। इसी एक घटना ने मुझे साहित्य की क्षेत्र में चल रही दादागिरी से मेरा परिचय कराया। मेरे जीवन को आमूलचूड प्रभावित करनेवाली, दिनांक 23 जुलाई, 2007 को घटित इस दुर्घटना की जानकारी मेरे कुछ इष्टमित्रों को ही है। आज तेरह वर्षों के बाद इस घटना को सार्वजनिक कर रहा हूँ।
उक्त घटना के विषय में बताने से पूर्व डॉ. ओबराय के यशस्वी जीवन के विषय में कुछ बताना आवश्यक है। महान् कर्मयोगी डॉ. हरवंशलाल ओबराय का जन्म दिनांक 21 अक्टूबर, 1925 को रावलपिण्डी के एक पंजाबी खत्री दम्पति श्री धर्मचन्द्र एवं रामकौर ओबराय के घर में हुआ था। सन् 1947 में देश-विभाजन के पश्चात् उनको सपरिवार भारत आना पड़ा। ओबरायजी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता थे। बाल्यकाल से ही अत्यन्त तेजस्वी श्री हरवंशलाल ने अल्पायु में ही दर्शनशास्त्र, भारतीय इतिहास एवं हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर तथा सन् 1948 में जालन्धर से पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। उसी वर्ष उन्हें गाँधी-हत्याकाण्ड में दोषी ठहराकर दिल्ली जेल में बन्द कर दिया गया, जहाँ से कुछ दिनों पश्चात् निरपराध सिद्ध होकर मुक्त हुए।
सन् 1948 से 1963 तक दिल्ली तथा उन्होंने पंजाब एवं हरियाणा विश्वविद्यालयों के विभिन्न महाविद्यालयों में दर्शनशास्त्र का अध्यापन किया। इससे पूर्व सन् 1960 और 61 में वह अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के दो बार राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गये। इस दौरान उनका स्वावलम्बी अध्ययन भी जारी रहा तथा वे स्वयं को प्राच्यविद्या के एक अधिकारी विद्वान् के रूप में प्रतिष्ठित करने में भी सफल रहे। वह अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन, पंजाब के अध्यक्ष, भारतीय इतिहास संकलन समिति के पूर्वांचल-प्रमुख तथा विश्व हिंदू परिषद्, राँची के संस्थापक थे। ‘विश्व के विभिन्न मतावलम्बियों पर हिंदू संस्कृति का प्रभाव व प्रसार’ उनके अध्ययन के मुख्य विषय था।
डॉ. ओबराय की प्रतिभा व मौलिक अन्वेषण-कार्य से प्रभावित होकर सन् 1963 में यूनेस्को ने उनको यूरोप, अमेरिका, कनाडा और एशियाई देशों के विश्वविद्यालयों में ‘हिंदू संस्कृति एवं दर्शन’ विषय पर व्याख्यानमाला प्रस्तुत करने के लिए आमन्त्रित किया। इस व्याख्यानमाला के अंतर्गत डॉ. ओबराय ने 126 देशों की यात्राएँ कीं और वहाँ के विश्वविद्यालयों में हिंदू-संस्कृति पर सहस्राधिक सारगर्भित व्याख्यान दिये। इस दृष्टि से डॉ. ओबराय बीसवीं शती के विवेकानन्द थे। इस यात्रा-शृंखला में ओबरायजी ने न केवल व्याख्यान दिये अपितु उन देशों में हिंदू राजा-महाराजा, साधु-संन्यासियों द्वारा किए गए धर्म-प्रचार के अवशेषों का भी अध्ययन करने के साथ वहाँ से पुरातात्त्विक महत्त्व के चित्रों, मूर्तियों और अभिलेखों का भी संग्रह किया। उपलब्ध जानकारी के अनुसार विदेशों में डॉ. ओबराय का प्रथम भाषण मिशिगन विश्वविद्यालय (सं.रा. अमेरिका) के सभागार में 11 सितम्बर, 1963 को प्रथम विश्व धर्म संसद् (शिकागो, 1893 ई.) की 70वीं वर्षगाँठ के उपलक्ष्य में आयोजित सम्मेलन में हुआ। उस सम्मेलन में इस ‘द्वितीय विवेकानन्द’ को सुनने के लिए श्री चन्द्रकांत बिड़ला उपस्थित थे। वह डॉ. ओबराय के व्याख्यान से इस कदर प्रभावित हुए कि उन्होंने प्रख्यात समाजसेवी बाबू जुगलकिशोर बिड़ला (1883-1967) को सहमत कर बी.आई.टी. के अंतर्गत दर्शन एवं मानविकीशास्त्र के स्वतंत्र संकायों की स्थापना कर डॉ. ओबराय को अध्यक्ष बनाया। यह डॉ. ओबराय का नहीं, उनके प्रखर पाण्डित्य का सम्मान था।
सुप्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक और प्राच्यविद्, भारतीय जनसंघ के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष तथा ‘सरस्वती विहार’ (इंटरनेशनल एकेडमी ऑफ़ इण्डियन कल्चर, हौज़ख़ास, दिल्ली) के संस्थापक डॉ. आचार्य रघुवीर (1902-1963), डॉ. ओबराय के प्रेरणास्रोत थे। सन् 1963 में डॉ. ओबराय के विदेश-प्रवास के समय भारत में आचार्य रघुवीर का एक मोटर-दुर्घटना में स्वर्गवास हो गया था। उनके आकस्मिक निधन से डॉ. ओबराय के हृदय को बड़ा आघात लगा था और उन्होंने डॉ. रघुवीर के कार्य को आगे बढ़ाने का निश्चय करके सन् 1965 में राँची के अपर बाज़ार में ‘संस्कृति-विहार’ (एकेडमी ऑफ़ इण्डियन कल्चर) नामक एक संस्था की नींव डाली। बाबू जुगलकिशोर बिड़ला इस संस्था के संरक्षक थे। इस संस्था के अन्तर्गत डॉ. ओबराय ने बिहार, उड़ीसा, मध्यप्रदेश एवम् अन्य निकटवर्ती राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों का तूफ़ानी दौराकर ईसाई पादरियों के षड्यन्त्र का मुँहतोड़ उत्तर दिया और असंख्य वनवासी बन्धुओं की सनातनधर्म में वापसी करायी।
सन् 1975 से 1977 के आपातकाल के दौरान ओबरायजी क्रमशः राँची, गया और हज़ारीबाग़ सेण्ट्रल जेल में रखे गये। हज़ारीबाग़ सेण्ट्रल जेल में मेरे पूजनीय पिता श्री कृष्णमोहन प्रसाद अग्रवाल, ओबरायजी के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुए। ओबरायजी वार्ड नं. 6 में रखे गए थे, लेकिन पिताजी ने जेल के चीफ वार्डन से निवेदन करके ओबरायजी को अपने वार्ड (स्पेशल वार्ड नं. 1) में स्थानान्तरित करवा लिया। इस वार्ड में नित्य शाखा के अतिरिक्त समय-समय पर अनेक महापुरुषों की जयन्तियाँ मनाई जाती थीं, जिसमें मुख्य वक्ता श्री ओबराय जी ही होते थे। एक बार जेल में भगत सिंह की जयन्ती के दौरान ओबरायजी ने कुछ प्राकृतिक सामग्री से रंग तैयार करके भगत सिंह का चित्र बनाया, जिसे पिताजी जेल से छूटने के पश्चात् अपने घर ले आये। वह पेण्टिंग वर्षों तक उनके शयनकक्ष में टंगी रही और बाद में उसे सरस्वती शिशु मन्दिर को भेंट कर दिया गया।
हज़ारीबाग़ सेण्ट्रल जेल में पिताजी को लगभग 10 महीने ओबरायजी का सान्निध्य मिला, जिनकी मधुर स्मृतियाँ आज भी पिताजी के स्मृति-पटल पर अंकित हैं। 1977 में जेल से छूटने के पश्चात् पिताजी ने 6 अवसरों (2 बार मकर संक्रान्ति के उपलक्ष्य में, 1 बार वर्ष प्रतिपदा के उपलक्ष्य में, 1 बार स्वामी विवेकानन्द-जयन्ती के उपलक्ष्य में, 1 बार असम-समस्या पर और 1 बार भगवद्गीता-जयन्ती के उपलक्ष्य में) ओबराय जी को अपने गाँव जरीडीह बाज़ार में आमन्त्रित किया और उनका व्याख्यान करवाया। ओबराय जी के कार्यक्रमों को सफल बनाने के लिए पिताजी और उनके अनन्य मित्र श्री Shiv Hari Banka जी पूरी ताक़त लगा देते थे। ओबरायजी मेरे पैतृक निवास में ही ठहरते थे।
सितम्बर, 1983 ई. में इन्दौर में आयोजित शिक्षा-सम्मेलन में ‘वेद और विज्ञान’ विषय पर आयोजित व्याख्यानमाला में भाषण देने के लिए जब ओबरायजी राँची से इन्दौर जा रहे थे, उसी यात्रा के दौरान 19 सितम्बर को रायपुर के पास एक आततायी ने चलती रेल से धक्का देकर उनकी हत्या कर दी। 20 सितम्बर, 1983 को राँची में ओबरायजी का पार्थिव शरीर संसार से विदा हुआ, पर यशःकाया अजर-अमर बन गयी।
ओबराय जी के यशस्वी जीवन की यह एक झलक है। कर्मवीर के समान यात्रा करते हुए ही उनका स्वर्गवास हुआ, बिस्तर पर पड़े-पड़े नहीं। यह मेरा परम सौभाग्य है कि हमारे पैतृक निवास में जिस कक्ष में ओबरायजी ठहराए जाते थे, दिनांक 26 नवम्बर, 1984 को उसी कक्ष में मेरा जन्म हुआ। मेरे पूजनीय पिता मुझे बाल्यकाल से ही उनकी अपार विद्वत्ता के विषय में बताया करते थे। कुछ बड़े होने पर मैंने उनसे ओबरायजी के विषय में विस्तार से जानना चाहा, तो उन्होंने मुझे ओबरायजी के 1977 से 1983 के बीच गाँव में दिए गए उन भाषणों के ऑडियो कैसेट्स सुनने को दिये जो श्री शिवहरि बंका अंकल ने रिकार्ड करवाए थे। ओबरायजी के भाषणों को सुनकर मैं स्तब्ध रह गया। उन कैसेटों में से कुछ बहुत अच्छी स्थिति में थे और कुछ खराब हो रहे थे। मैंने न केवल उन कैसेटों की मरम्मत करवायी बल्कि उनको एमपी-3 फॉर्मेट में भी डेवलप करवाकर सुरक्षित कर लिया। आज भी वे भाषण मेरे पास सुरक्षित हैं।
जब मैंने ओबरायजी के जीवन के विषय में और भी खोज करनी शुरू की, तो पिताजी ने ओबरायजी से जुड़े कुछ महानुभावों से सम्पर्क करवाया और उन लोगों ने अपने संस्मरण मुझे लिख भेजे। इन महानुभावों में सर्वश्री Nathmurarilal Banka, Gurusaran Prasad (सेवा भारती), बाबाराव पुराणिक (वरिष्ठ प्रचारक) इत्यादि प्रमुख हैं। श्री गुरुशरण जी ने मुझे ओबरायजी के विषय में बहुत-सी जानकारियाँ दीं और उनका चित्र भी भेजा। उन्होंने कुछ अन्य लोगों के भी संस्मरण मुझे भेजे। मैंने ओबरायजी से जुड़े कुछ अन्य विद्वानों को भी ढूँढ़-ढूँढ़कर पत्र भेजे और संस्मरण भेजने का अनुरोध किया। इसी बीच मुझे जानकारी मिली कि ओबरायजी द्वारा संस्थापित ‘संस्कृति-विहार’ अब बन्द हो चुका है और उसकी सारी सामग्री ‘राँची एक्सप्रेस’ कार्यालय में संगृहीत है। मैंने आनन-फानन में राँची एक्सप्रेस के तत्कालीन सम्पादक श्री बलबीर दत्त को पत्र लिखा, किन्तु उन्होंने मुझे कोई उत्तर नहीं भेजा, जिससे मुझे बहुत निराशा हुई। इन सबके पश्चात् भी उस समय तक मुझे ओबरायजी के व्यक्तित्व-कृतित्व के विषय में अच्छी-ख़ासी जानकारी प्राप्त हो गई थी जिनके आधार पर मैंने ओबरायजी पर एक विस्तृत लेख तैयार किया जो लखनऊ से प्रकाशित हिंदी-मासिक ‘राष्ट्रधर्म’ के सितम्बर 2007 अंक में प्रकाशित हुआ।
इसके बाद पिताजी ने मुझे राँची जाने के लिये प्रेरित किया। राँची के निवारणपुर-स्थित संघ कार्यालय में प्रतिवर्ष 20 सितम्बर को ओबरायजी की पुण्यतिथि मनायी जाती थी जिसे ओबरायजी के अनुज श्री ब्रजभूषण ओबराय आयोजित किया करते थे। मैंने इस कार्यक्रम में शामिल होने का निश्चय किया। श्री ब्रजभूषण ओबराय दिल्ली में रहते थे और कार्यक्रम से एक सप्ताह पूर्व राँची पहुँच जाते थे। पिताजी ने अपने एक परिचित के माध्यम से श्री ब्रजभूषण ओबराय से राँची में सम्पर्क किया और उनसे मेरी दूरभाष पर वार्ता करायी। श्री ब्रजभूषण ओबराय ने मुझे 20 सितम्बर, 2007 को राँची आने का निमन्त्रण दिया।
दिनांक 19 सितम्बर 2007 को मैंने पटने से राँची के लिये प्रस्थान किया। प्रस्थान करने से पूर्व जब मैं पत्र लेने के लिये ‘विजय-निकेतन’ (पटना संघ कार्यालय) आया, तब वहाँ तत्कालीन सरसंघचालक परमपूज्य कुप्पहल्ली सीतारमैया सुदर्शनजी आए हुए थे। दक्षिण बिहार के तत्कालीन प्रान्त प्रचारक श्री अनिल ठाकुर जी ने मेरी उनसे मुलाकात करवायी। सुदर्शनजी के साथ एक घण्टे चली मुलाकात में मैंने उनके समक्ष यह विचार रखा कि संघ के किसी प्रकल्प का नामकरण डॉ. ओबराय जी के नाम पर किया जाना चाहिये। पूजनीय सुदर्शनजी ने इसके लिये आश्वासन दिया।
दिनांक 20 सितम्बर, 2007 को सुबह राँची पहुँचने पर मेरी श्री ब्रजभूषणजी से मुलाकात हुई। हमलोग पूरे दिन शाम में होनेवाली श्रद्धांजलि सभा के लिये लोगों को निमन्त्रण-पत्र बाँटते रहे। शाम में राँची संघ कार्यालय में ओबरायजी की 24वीं पुण्यतिथि पर श्री बलबीर दत्त के सभापतित्व तथा श्री इन्दरसिंह नामधारीजी के मुख्य आतिथ्य में श्रद्धांजलि समारोह का सुन्दर आयोजन हुआ। श्री गुरुशरणजी और श्री बाबाराव पुराणिक भी मंचस्थ थे। मैंने अपने उद्बोधन में ओबरायजी की श्रद्धांजलि पर प्रत्येक वर्ष एकत्र होनेवाले भक्तों को जमकर झाड़ा और श्री बलबीर दत्त को भी सुनाया। मैंने कहा कि ओबरायजी के विस्मरण में आप जैसे लोगों का ही सर्वाधिक योगदान है कि आपलोगों ने कभी उनके विषय में कोई साहित्य प्रकाशित नहीं किया।
मैंने यह वचन दिया कि अगली श्रद्धांजलि-सभा तक मैं ओबरायजी के साहित्य का एक संकलन अवश्य ले आऊँगा। हालांकि उस समय तक मेरे पास ओबरायजी का लिखा एक भी लेख नहीं था। मुख्य अतिथि श्री इन्दरसिंह नामधारी जी मेरी ओर आकृष्ट हुए और उन्होंने अपने उद्बोधन में मुझे बहुत शाबाशी दी और मुझे हरसम्भव सहायता का आश्वासन दिया। अगले दिन राँची के समाचार-पत्रों में श्रद्धांजलि-समारोह के सचित्र समाचार प्रकाशित हुए। उस दिन पटना जानेवाली मेरी ट्रेन छूट गयी, जिसके कारण मुझे निवारणपुर लौटना पड़ा। वापस आने पर श्री ब्रजभूषण ओबराय ने मुझे ओबरायजी का कुछ साहित्य तथा बहुत-से चित्र मुझे भेंट किये। इस तरह ओबराय जी के साहित्य से मेरा प्रथम परिचय हुआ।
अगले दिन पटना लौटने पर एक पत्र मेरी प्रतीक्षा कर रहा था। वह पत्र था बीकानेर से स्वामी संवित् सुबोध गिरि (पूर्व नाम : ‘सन्तोष लाट’) का, मूलतः चाईबासा के रहनेवाले थे और ओबरायजी के शिष्य थे। उन्होंने ‘राष्ट्रधर्म’ में प्रकाशित मेरा लेख पढ़कर मुझसे सम्पर्क किया था। उन्होंने लिखा था कि उनके पास ओबरायजी के लिखे अनेक लेख आज भी सुरक्षित हैं जिनको उन्होंने दशकों से सहेज रखा है। ‘अन्धे को क्या चाहिये, दो आँखें’। मुझे तो मानो ज़न्नत मिल गयी। मैं तो इसी दिन की प्रतीक्षा कर रहा था और ओबरायजी के लेखों को ढूँढ़ रहा था। जब स्वामी सुबोध गिरि ने मुझे बताया कि उनके पास ओबरायजी के बहुत-से लेख हैं, तो मेरी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। मैंने उनके दूरभाष नम्बर पर उनसे सम्पर्क किया और विस्तृत वार्ता हुई। मैंने उनसे बताया कि मेरा खुद का प्रकाशन-व्यवसाय है और मैं ओबरायजी का समस्त साहित्य ‘रचनावली’ के रूप में प्रकाशित करना चाहता हूँ तो वह तुरन्त ही सहमत हो गये। मेरे यह बताने पर कि मेरे पास उनके कुछ ऑडियो-कैसेट्स हैं, उन्होंने उन कैसेटों की कॉपी मुझसे मंगवायी।
अक्टूबर, 2007 में स्वामी संवित् सुबोध गिरि ने मुझे अपने पास की समस्त सामग्री प्रेषित कर दी। उन सामग्री का मैंने भली-भाँति अवलोकन करके समस्त सामग्री को निम्न 4 खण्डों में विभाजित किया :
• खण्ड 1 : धर्म-दर्शन-संस्कृति, उत्सव, इतिहास एवं पुरातत्त्व-विषयक आलेख, साक्षात्कार इत्यादि।
• खण्ड 2 : डॉ. ओबराय द्वारा महापुरुषों को दी गयी श्रद्धांजलि।
• खण्ड 3 : विश्व के विभिन्न देशों पर हिंदू संस्कृति के प्रभाव-विषयक शोध-कार्य, और यात्रा-वृत्तान्त।
• खण्ड 4 : पत्रावली, डॉ. ओबराय के मरणोपरान्त उन्हें दी गयी श्रद्धांजलि, विद्वानों के संस्मरण इत्यादि।
‘ओबराय-रचनावली’ के कार्य के लिये मैंने ओबरायजी को जाननेवाले लोगों से कुछ आर्थिक सहयोग लेने का निश्चय किया ताकि उन्हें भी इस कार्य से कुछ जुड़ाव अनुभव हो। सारा कार्य व्यवस्थित रूप से कार्यान्वित करने के लिये मैंने रचनावली का एक पत्रक (ब्रोशर) प्रकाशित करके जुलाई 2008 तक देशभर के प्रबुद्धजनों और संस्थाओं से सघन पत्राचार किया। इस ब्रोशर के माध्यम से रचनावली के प्रकाशन-पूर्व उसकी अग्रिम खरीद की अपील की गई थी। पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी, पूर्व केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री डॉ. मुरली मनोहर जोशी, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. राजकुमार भाटिया जी, श्री इन्दर सिंह नामधारी जी तथा कुछ अन्य महानुभावों ने अपने सन्देश भेजे। ‘राष्ट्रधर्म’ में भी इस सम्बन्ध में एक विज्ञापन प्रकाशित कराया गया। इस बीच मैंने संघ के अनेक वरिष्ठ पदाधिकारियों से मुलाकात की। इनमें से कुछ अधिकारियों में मुझे भरपूर सहयोग किया जिनमें तत्कालीन अखिल भारतीय सह बौद्धिक प्रमुख (सम्प्रति सरकार्यवाह) मा. दत्तात्रेय होसबाले जी प्रमुख थे।
जब मैंने माननीय दत्तात्रेयजी से आर्थिक सहयोग दिलाने के लिये अनुरोध किया, तो वह सहर्ष तैयार हो गये और दिल्ली-स्थित माधव संस्कृति न्यास से 1 लाख रुपये दिलाने का आश्वासन दिया। इस बात की जानकारी मैंने स्वामी सुबोध गिरि को दी। स्वामी सुबोध गिरि ने बड़ाबाज़ार कुमारसभा पुस्तकालय के सचिव श्री जुगलकिशोर जैथलिया से बीस हज़ार रुपये दिलवाने का आश्वासन दिया। इसके बाद राँची से श्री इन्दरसिंह नामधारी ने श्री ज्ञानप्रकाश जालान (विभाग संघचालक; स्वामी, जालान सत्तू मिल, अपर बाज़ार, राँची) से कहकर पाँच हज़ार रुपये भिजवाये। इसी बीच मेरा सम्पर्क डॉ. हरवंशलाल ओबराय के अग्रज, देहरादून-निवासी श्री चन्द्रप्रकाश ओबराय से हुआ जिन्होंने 10 हज़ार रुपये की सहायता भेजी। इस तरह उत्साहजनक वातावरण में ‘ओबराय-रचनावली’ का कार्य प्रारम्भ हो गया।
चतुष्खण्डीय ‘महामनीषी डॉ. हरवंशलाल ओबराय रचनावली’ की सम्पादकीय परामर्शदात्री समिति के सदस्य थे : डॉ. लोकेशचन्द्र (निदेशक, ‘सरस्वती विहार’, दिल्ली), डॉ. Shatrughan Prasad (प्रसिद्ध उपन्यासकार, पटना), डॉ. प्रकाशचरण प्रसाद (प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता, पटना), श्री सुरेश सोनी (सह-सरकार्यवाह, रा.स्व. संघ), श्री Ramasis Singh (अध्यक्ष, चिति, प्रज्ञा प्रवाह, वाराणसी), डॉ. जयदेव मिश्र (प्राध्यापक, इतिहास-विभाग, प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति विभाग, पटना विश्वविद्यालय), डॉ. नरेन्द्र कोहली (प्रसिद्ध साहित्यकार, दिल्ली), श्री आनन्द मिश्र ‘अभय’ (सम्पादक, ‘राष्ट्रधर्म’, लखनऊ), श्री चन्द्रप्रकाश ओबराय (पूर्व अध्यक्ष, वन-विभाग, भारत सरकार, देहरादून), श्री रघुनन्दनप्रसाद शर्मा (अध्यक्ष, भारतीय इतिहास संकलन समिति, दिल्ली), डॉ. Shreeranjan Soorideva (प्रसिद्ध साहित्यकार, पटना), डॉ. आद्याचरण झा (पूर्व कुलपति, कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा), श्री Suresh Rungta (प्रसिद्ध अर्थशास्त्री, पूर्व अध्यक्ष, मगध स्टॉक एक्सचेंज, पटना) तथा डॉ. DrBhuvaneshwar Prasad Gurumaita (पूर्व आचार्य एवम् अध्यक्ष, हिंदी एवं हरियाणवी भाषा-विभाग, हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार)।
उक्त सभी मनीषियों से मैंने स्वयं सम्पर्क किया था और दूरभाष, पत्राचार अथवा प्रत्यक्ष मिलकर उनसे परामर्शदात्री समिति का सदस्य बनने हेतु सहमति प्राप्त की थी। स्वामी संवित् सुबोध गिरि ने मुझसे इस समिति में 3 अन्य महानुभावों को सम्मिलित करने को कहा, वे थे : 1. प्रो. रामेश्वरप्रसाद मिश्र ‘पंकज’ (निदेशक, निराला सृजनपीठ, भोपाल), 2. प्रो. कुसुमलता केडिया (कार्यकारी निदेशिका, गांधी विद्या संस्थान, राजघाट, वाराणसी) और 3. श्री जुगलकिशोर जैथलिया (कार्यकारिणी-सदस्य, बड़ाबाज़ार कुमारसभा पुस्तकालय, कोलकाता)। इन तीनों में मैं केवल श्री जैथलिया जी को पहले से थोड़ा-बहुत जानता था और शेष दोनों से नितान्त अपरिचित था।
इसी दौरान मैंने दिनांक 21-22 जून, 2008 को भोपाल में अखिल भारतीय साहित्य परिषद् द्वारा आयोजित ‘राष्ट्रीय युवा साहित्यकार शिविर’ में बिहार का प्रतिनिधित्व किया। इस कार्यक्रम में देशभर के युवा साहित्यकारों का आगमन हुआ था जिनमें काशी से श्री (तब श्री राजकुमार जी ‘डॉक्टर’ नहीं हुए थे) डॉ. राजकुमार उपाध्याय मणि जी भी आये थे। ‘मणि’ जी से इसी कार्यक्रम में पहली बार मिलना हुआ और तभी से हमारी गहरी मित्रता हो गयी। जब मैंने ‘मणि’ जी को ओबराय-रचनावली’ के प्रकाशन की जानकारी दी, तब उन्होंने इस परियोजना में हरसम्भव सहायता का आश्वासन दिया। उसी कार्यक्रम में प्रो. रामेश्वरप्रसाद मिश्र ‘पंकज’ भी आए थे जिनसे मेरी मुलाकात हुई। ‘पंकज’ जी ने अपनी एक पासपोर्ट आकार की फोटो मुझे दी।
उधर पटना में ‘रचनावली’ के टंकण का कार्य चल रहा था। एक खण्ड की सामग्री टंकित हो गई थी और दूसरे खण्ड की हो रही थी। तभी स्वामी सुबोध गिरि ने सम्पादक मण्डल की एक बैठक वाराणसी में सुनिश्चित की और मुझे ओबरायजी की समस्त मूल पाण्डुलिपि (जो उन्होंने मुझे भेजी थी) तथा समस्त टंकित सामग्री लेकर वाराणसी बुलाया। दिनांक 23 जुलाई, 2008 को प्रो. कुसुमलता केडिया के राजघाट-स्थित आवास पर बैठक रखी गयी। मैं और स्वामी संवित् सुबोध गिरि 22 जुलाई की शाम को क्रमशः पटना और बीकानेर से वहाँ पहुँच गये। श्री राजकुमार ‘मणि’ जी भी मुझसे मिलने वहाँ पहुँचे और अगले दिन बैठक में सम्मिलित होने का आश्वासन देकर चले गये। 22 जुलाई की रात हमलोगों ने लिट्टी-चोखा खाकर विश्राम किया। अगले दिन (23 जुलाई) सुबह करीब 9 बजे श्री चन्द्रप्रकाश ओबराय भी देहरादून से वहाँ पहुँच गये। रिमझिम वर्षा के बीच सुबह दस बजे हमलोगों की वार्ता प्रारम्भ हुई।
स्वामी संवित् सुबोध गिरि ने बैठक प्रारम्भ की और बताया कि डॉ. हरवंशलाल ओबराय समग्र के सम्पादन-प्रकाशन का कार्य पटना के श्री गुंजन अग्रवाल के द्वारा किया जा रहा है। मैंने एक खण्ड की टंकित की हुई सामग्री वहाँ सबके समक्ष रखी। उस सामग्री को देखकर स्वामी सुबोध गिरि ने कहा कि 4 खण्ड कैसे हो गए, 1 खण्ड या अधिक-से-अधिक 2 खण्ड में सारी सामग्री प्रकाशित किया जाना चाहिये। मैंने उनसे निवेदन किया कि सामग्री इतनी अधिक है कि उनको एक या दो खण्ड में प्रकाशित नहीं किया जा सकता। लेकिन सुबोध गिरि नहीं माने। वह बार-बार कहते रहे कि आपने चार खण्ड कैसे बना दिये। अब प्रो. कुसुमलता केडिया की बारी थी। उसने कड़कड़ाती आवाज़ में चिल्लाते हुए कहा कि यह लड़का कौन है? सुबोध गिरि ने कहा कि ये ही श्री गुंजन जी हैं और यही सम्पादक और प्रकाशक हैं। कुसुमलता केडिया ने बेहूदा स्वर में कहा कि “ये तो कहीं से सम्पादक-प्रकाशक नहीं लग रहे, इनके जैसे दो कौड़ी के प्रकाशक तो मेरे चक्कर लगाया करते हैं। इन लोगों को मैं अच्छी तरह से जानती हूँ।… इस रचनावली की सम्पादक मैं खुद बनूँगी, गुंजन अग्रवाल कौन हैं?” केडिया की बात सुनकर मैं तो हतप्रभ हो गया और मुझे ‘…इनसे बचे तो सेवे कासी’ वाली कहावत याद आ गयी।
कुसुमलता केडिया ने गरजते हुए कहा, “स्वामी जी, आप इनसे कह दें कि यह रचनावली इनको नहीं छापनी है। ये सारी सामग्री यहाँ रख दें और यहाँ से तुरन्त निकल जायें।” उसकी कठोर बात सुनकर मैं बिल्कुल शान्त बैठा रहा। मुझे शान्त देखकर केडिया फिर गरजी— “सुना नहीं तुमने, मैंने क्या कहा, तुम यह सारी सामग्री यहीं रख दो और यहाँ से अभी निकल जाओ, नहीं तो अच्छा नहीं होगा।” सुबोध गिरि और चन्द्रप्रकाशजी ने उसका मौन समर्थन किया। मैं फिर भी शान्त रहा। अब तो केडिया बिफर पड़ी। पैर पटकते हुए वह भीतर गयी और एक-दो फोन किया, फिर बाहर आकर बैठ गयी। मैं चुपचाप बैठा रहा। दस मिनट के भीतर तीन-चार बदमाश आकर मेरे पीछे खड़े हो गये। केडिया ने नीचता की पराकाष्ठा पार करते हुए क्रूर अट्टहास किया, “गुंजन, तुम पीछे मुड़कर देख लो, तुम यहाँ से ज़िन्दा बाहर नहीं जा सकोगे। अन्यथा अपना सामान यहीं रख दो और चुपचाप निकल जाओ।”
न जाने केडिया ने उनलोगों पर क्या जादू कर रखा था कि केडिया की यह नीचता देखकर भी संवित् सुबोध गिरि और चन्द्रप्रकाश ओबराय मौन धारण किये रहे। भारी बारिश के कारण राजकुमार जी भी वहाँ नहीं पहुँच सके थे। कोई उपाय न देख मैंने वह सारी सामग्री वहीं रख दी और रिक्तहस्त वहाँ से निकल गया।
वहाँ से निकलकर मैंने राजकुमारजी को फ़ोन किया तो उन्होंने लंका-स्थित विश्व संवाद केन्द्र कार्यालय पर पहुँचने को कहा। शाम में राजकुमारजी मुलाकात करने आये। उन्होंने मुझसे पूरा विवरण सुना और काफ़ी दुःखी हुए। उन्होंने कहा कि आपके साथ जो हुआ, उससे मुझे बहुत कष्ट हुआ है, हमलोग मिलकर इसका बदला लेंगे। उन्होंने यह भी कहा कि केडिया मैं पहले से जानता था, पर वह इस हद तक गिर जायेगी, इसकी आशंका कतई नहीं थी, अन्यथा मैं आपको वहाँ नहीं जाने देता। उन्होंने मुझे काफ़ी हिम्मत दी और धैर्य व शान्ति बरतने को कहा। अगले दिन सुबह वह पुनः मुझसे मिलने आये और कहा कि हमलोग इस रचनावली को अवश्य प्रकाशित करेंगे और इसका एक भव्य लोकार्पण समारोह वाराणसी में रखेंगे। आपके साथ हुई दुर्घटना का यही बदला होगा। मैंने कहा कि यह सब कैसे होगा, मूल सामग्री तो अब मेरे पास नहीं है और केवल एक ही खण्ड की सामग्री टंकित हुई है, साथ ही कॉपीराइट का भी मामला बन सकता है। लेकिन राजकुमार जी ने मुझे काफ़ी समझाया और आश्वस्त किया। हमलोगों ने एक योजना बनाई और सर्वप्रथम मूल सामग्री की गुमशुदगी की एक एफआईआर दर्ज़ करवायी। इसके बाद राजकुमारजी ने ‘आर्त्तकथन’ शीर्षक से इस रचनावली की एक मार्मिक भूमिका लिखकर मुझे सौंप दी। इसके बाद मैं पटना लौट आया।
पटना पहुँचने के अगले दिन (26 जुलाई, 2008) कुसुमलता केडिया ने सुबह मुझे फोन किया कि तुम टंकित सामग्री की सीडी कब तक भेज रहे हो? मेरे मना करने पर उसने धमकी दी कि वह मुझे ‘देख लेने’ के लिये अपने आदमी पटना भेजेगी। तब मैंने गरजकर कहा कि अपने घर में तो कुत्ता भी शेर होता है, तुमने अपने घर में बुलाकर मेरे साथ जो किया, क्या तुम्हारा आदमी पटना आकर सही-सलामत बनारस लौट जायेगा? यदि तुम्हें ऐसा लगता है, तो उसे अवश्य मेरे पास भेज दो।” “गुंजन! तुम बहुत बदतमीज़ हो गए हो, मैं तुम्हें देख लूँगी” कहकर केडिया ने फोन पटक दिया। उस दिन के बाद से कुसुमलता केडिया या सुबोध गिरि— किसी ने मुझे कभी फ़ोन नहीं किया।
उस समय इस घटना की जानकारी मेरे जिन विश्वसनीय मित्रों को थी, उनमें श्री केशव कुमार जी प्रमुख हैं। वरिष्ठ पत्रकार केशवजी उन दिनों हिंदुस्थान समाचार में कार्यरत थे और पटने में रहते थे। इस घटना के बारे में जानकर केशवजी बहुत आक्रोशित हुए थे और उन्होंने मुझे काफ़ी हौसला दिया था।
उस दिन से मैं और राजकुमार जी पूरे धैर्य और मनोयोग से ‘महामनीषी डॉ. हरवंशलाल ओबराय रचनावली’ के प्रकाशन और लोकार्पण की तैयारी में जुट गये। राजकुमार जी ने ‘हिंदी-दिवस’ की पूर्व सन्ध्या (13 सितम्बर, 2008) पर लोकार्पण का कार्यक्रम सुनिश्चित किया। मैंने प्रथम खण्ड के प्रकाशन का निर्णय लिया और उसका प्रूफ़ निकलवाया। प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. शत्रुघ्न प्रसाद जी ने प्रूफ़ देखा और ओबरायजी के साथ अपना एक बहुत पुराना प्रकाशित साक्षात्कार मुझे खोजकर दिया। किन्तु ‘आर्त्तकथन’ देखकर वह चौंके। उन्होंने मुझे समझा-बुझाकर वह प्रस्तावना हटवायी और विवाद से दूरी बनाने की सलाह दी।
इसी बीच कुछ और महत्त्वपूर्ण घटनाएँ घटीं। हमलोगों को जिन-जिन लोगों ने अग्रिम राशि भेजी थी, उनको हमने राशि लौटा दी और ‘राष्ट्रधर्म’ को भी सूचित कर दिया कि अब हमलोग रचनावली का प्रकाशन नहीं कर रहे हैं। इसके बाद ‘राष्ट्रधर्म’ के सम्पादक श्री आनन्द मिश्र ‘अभय’ ने पत्रिका में रचनावली-प्रकाशन के स्थगन का एक समाचार भी प्रकाशित कर दिया। हमारे द्वारा प्रकाशन-योजना स्थगित करने पर स्वामी सुबोध गिरि एण्ड कम्पनी ने ओबराय-रचनावली का प्रकाशन लोकहित प्रकाशन (लखनऊ) से करवाने का निश्चय किया और लखनऊ पहुँचे। उनलोगों ने राष्ट्रधर्म के सम्पादक ‘अभय’ जी से भेंट की। इसी बीच राष्ट्रधर्म के सह-सम्पादक और और राजकुमार जी के अनन्य मित्र श्री रामनारायण त्रिपाठी ‘पर्यटक’ ने मुझे फोन करके स्वामी सुबोध गिरि के वहाँ आने की जानकारी दी और बताया कि यहाँ लोकहित प्रकाशन से जुड़े कुछ लोग इस रचनावली के प्रकाशन में काफ़ी रुचि ले रहे हैं, अतः आप इसे रोकने के लिये तुरन्त कुछ करें। मैंने तत्काल ‘अभय’ जी को फोन मिलाया और उनको मेरे साथ हुई दुर्घटना की विस्तृत जानकारी दी। उस समय सुबोध गिरि उनके सामने बैठे हुए थे। ‘अभय’ जी लगभग दस मिनट तक मौन होकर मेरी बात सुनते रहे। इसके बाद उन्होंने सुबोध गिरि को वहाँ से चलता किया। इसके बाद सुबोध गिरि वहाँ से प्रबन्धक श्री पवनपुत्र बादल के पास पहुँचे। मैंने बादलजी को भी फोन पर सारी बातें बतायीं। फलस्वरूप लोकहित प्रकाशन से इस रचनावली के प्रकाशन की योजना रद्द कर दी गयी। इस मामले में श्री ‘पर्यटक’ जी का योगदान मैं कभी विस्मृत नहीं कर सकता।
इसके बाद स्वामी संवित् सुबोध गिरि एण्ड कम्पनी ने ‘माधव संस्कृति’ न्यास से धन लेकर रचनावली के प्रकाशन की योजना बनायी और ये लोग दिल्ली पहुँचे। उधर मैंने माननीय दत्तात्रेयजी को सारे घटनाक्रम की जानकारी दे दी थी, अतः दत्ताजी ने उनलागों को न्यास से धन देना अस्वीकार कर दिया।
धीरे-धीरे कार्यक्रम का दिन निकट आ रहा था। राजकुमार जी ने कार्यक्रम को सफल बनाने के लिये जी-तोड़ मेहनत की। उनके अथक प्रयास से जगद्गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्यजी महाराज (श्रीमठ, काशी) ने कार्यक्रम के मुख्य अतिथि का पद स्वीकार कर लिया। मुख्य वक्ता के रूप में काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी-विभागाध्यक्ष प्रो. राधेश्याम दुबे ने सहमति दी।
कार्यक्रम का अति सुन्दर और भव्य आयोजन विश्व संवाद केन्द्र, लंका में हुआ था। काशी के सभी प्रबुद्धजन उस ऐतिहासिक कार्यक्रम में पधारे थे। राजकुमार जी ने कार्यक्रम की वीडियो रिकॉर्डिंग तथा फोटोग्राफ़ी की भी व्यवस्था की थी। नियत समय पर स्वामी रामनरेशाचार्यजी महाराज जलमार्ग से श्रीमठ से लंका पधारे। विशिष्ट अतिथि के रूप में लखनऊ से ‘पर्यटक’ जी तथा पटना से मेरे पिताजी भी पधारे थे। उल्लेखनीय है कि उन दिनों ‘पर्यटक’ जी कर्करोग से ग्रस्त थे और बहुत कठिनाई से काशी पहुँचे थे। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग के प्रो. दीनबन्धु पाण्डेय ने अध्यक्षता की थी। कार्यक्रम का संचालन प्रसिद्ध साहित्यकार श्री रामनरेश मिश्र ‘हंस’ ने किया। स्वामी रामनरेशाचार्यजी की अमृतमयी वाणी से सारी सभा मन्त्रमुग्ध थी। कार्यक्रम का वीडियो यूट्यूब पर देखा जा सकता है, जिसका लिंक इस प्रकार है : https://www.youtube.com/watch?v=H5zHRammlBA
अगले दिन वाराणसी के सभी दैनिक समाचार-पत्रों में हमारे पुस्तक-लोकार्पण कार्यक्रम के सचित्र समाचार प्रकाशित हुए जिससे विरोधियों में खलबली मच गयी। पुस्तक की एक प्रति प्राप्त करने के लिये केडिया एण्ड कम्पनी व्याकुल हो उठी। उसने कलकत्ते में बाबू जुगलकिशोर जैथलिया तक भी इस कार्यक्रम का समाचार पहुँचाया। फलस्वरूप जैथलिया जी ने मुझे एक कड़ा पत्र लिखा।
स्वामी सुबोध गिरि मुझे बदनाम करने के लिये नाना प्रकार के षड्यन्त्र करने लगे। उन्होंने दिल्ली से प्रकाशित हिंदी-त्रैमासिक ‘चिन्तन-सृजन’ के सम्पादक श्री बृजबिहारी कुमार को झूठी सूचना दी कि उनकी पत्रिका में प्रकाशित ‘राष्ट्रस्यचक्षुः इतिहासमेतत्’ शीर्षक शोध-निबन्ध मूलतः प्रो. हरवंशलाल ओबराय का लिखा हुआ है, गुंजन अग्रवाल का नहीं। फलस्वरूप श्री बृजबिहारी कुमार ने मुझे दूरभाष करके ज़वाब तलब किया। मैंने सम्पादक को एक कड़े पत्र के साथ प्रो. ओबराय का मूल लेख प्रेषित करके कहा कि कृपया इसे और मेरे लेख को सामने रखकर तुलना कर लें। क्या मेरा लेख ओबरायजी के लेख की नकल है? सम्पादक को अपनी भूल का एहसास हुआ। लेकिन उस दिन के बाद मैंने ‘चिन्तन-सृजन’ में लेख देना बन्द कर दिया।
‘राष्ट्रधर्म’ के सितम्बर 2008 अंक में कार्यक्रम का सचित्र समाचार प्रकाशित हुआ जो श्री ‘पर्यटक’ जी के प्रयास का फल था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन अखिल भारतीय सह-बौद्धिक प्रमुख श्री दत्तात्रेय होसबाले जी इस विवाद से चिन्तित थे। वह लोकहित प्रकाशन, लखनऊ से इस ग्रन्थ का पुनर्प्रकाशन करवाना चाहते थे। पर मैं सहमत नहीं था। अंततोगत्वा दिनांक 01 जुलाई, 2009 को मैंने उन्हें विस्तृत पत्र लिखकर उनके समक्ष अपनी शर्तें रखीं। लेकिन उनपर सहमति नहीं बन सकी और इस प्रकार यह मामला धीरे-धीरे ठंढा पड़ गया। इस घटना से मुझे एक बड़ी सीख मिली और साहित्यिक दादागिरि के निकृष्टतम रूप से परिचय हुआ। साहित्य और प्रकाशन के क्षेत्र में ऐसे धूर्तों, मक्कारों की कमी नहीं है। आज भी दूसरों के योगदान पर अपना ठप्पा लगाने की होड़ लगी हुई है।
(लेखक महामना मालवीय मिशन में शोेधार्थी हैं)