Saturday, November 23, 2024
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साहित्य, संस्कृति और भाषा

साहित्य, संस्कृति और भाषा – इन तीनों का परस्पर संबंध अटूट है क्योंकि देश-दुनिया की संस्कृति की जितनी प्रभावी अभिव्यक्ति साहित्य के माध्यम से संभव है, उतनी किसी अन्य माध्यम से नहीं; तथा यह अभिव्यक्ति भाषा पर निर्भर है। साथ ही, यह भी महत्वपूर्ण है कि ये तीनों सतत प्रवाहशील है, जड़ नहीं। साहित्य का मूल भाव ‘सहित’ है जो उसे संस्कृति का वाहक बनाता है। साहित्यकार अपने आस-पास के परिवेश से तथा अपने अनुभूत संसार से ही कथ्य ग्रहण करता है और उसे भाषाबद्ध करता है। वह अपनी संस्कृति और परिवेश को अपने अनुभवों के माध्यम से इस तरह शब्दों में पिरोता है कि पाठक को रोचक लगे। इसलिए जब हम किसी रचना को पढ़ते हैं तो उस देश-काल की स्थितियों एवं वहाँ की संस्कृति को आत्मसात करते चलते हैं। अतः इसमें कोई संदेह नहीं कि साहित्य मनुष्य की संवेदनात्मक क्षमता का परिणाम है।

इसी प्रकार संस्कृति मानव जीवन को संस्कारित करने में सहायक सिद्ध होती है। संस्कृति जीवन के मानवीय मूल्यों का पुंज है। और समय के साथ-साथ इन मूल्यों को संस्कारित करना पड़ता है और यह देखना पड़ता है कि वे आज के युग में कहाँ ठहरते हैं। महादेवी के शब्दों में कहें तो संस्कृति के मूल में मानवीय तत्व हैं। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि हम इन तत्वों का कहाँ तक उपयोग कर पा रहे हैं? इन सब बातों को रचनाकार किसी न किसी साहित्यिक माध्यम के द्वारा अभिव्यक्त करता है।

प्रतिष्ठित हिंदी सेवी, कवि और समीक्षक प्रो. ऋषभदेव शर्मा (1957) ने अपनी सद्यः प्रकाशित पुस्तक ‘साहित्य, संस्कृति और भाषा’ (2021) में बड़े रोचक ढंग से इन तीनों के विविध आयामों एवं चुनौतियों को कुल चार खंडों में सम्मिलित 18 आलोचनात्मक आलेखों में बखूबी उजागर किया है।

‘भारतीय संस्कृति : आज की चुनौतियाँ’, ‘बदलती चुनौतियाँ और हिंदी की आवश्यकता’, ‘हिंदी की दुनिया : दुनिया में हिंदी’, ‘देश और उसकी भाषा’, ‘विश्वशांति और हिंदी’ तथा ‘हिंदी भाषा की विश्वव्यापकता’ शीर्षक छह आलेख प्रथम खंड में सम्मिलित हैं। इन आलेखों से पता चलता है कि लेखक की दृष्टि वैश्विक है। उनका मानना है कि “भारतीय संस्कृति मनुष्य के भीतर छिपी हुई उसकी दिव्यता को प्रकाशित करने के प्रयत्नों का सामूहिक नाम है।“ (पृ.11)। भारतीय संस्कृति का केंद्रीय मूल्य ‘भारतीयता’ है। लेखक ने इसे ‘अविरोधी भाव’ कहा है। हमारी संस्कृति बहुत ही प्राचीन संस्कृति है। इसके अपने मूल्य हैं। लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि भारतीय मूल्य दृष्टि के दो लक्ष्य हैं – अभ्युदय और निःश्रेयस। जहाँ धर्म, अर्थ और काम अभ्युदय से जुड़े हैं वहीं मोक्ष निःश्रेयस से जुड़ा हुआ है। लेखक ने यह चिंता व्यक्त की है कि “किसी एक साहित्यिक कृति का खो जाना या विकृत हो जाना संस्कृति के किसी पक्ष का खो जाना या विकृत हो जाना है। इसी प्रकार एक मातृभाषा का लुप्त हो जाना भी उसके साथ जुड़ी हुई समूची सांस्कृतिक विरासत का लुप्त हो जाना है। नित नएपन की झोंक में यदि हम अपने साहित्य को विकृत करते हैं या भाषा के एक भी प्रतीक को मर जाने देते हैं, शब्दों को प्रचलन के बाहर चला जाने देते हैं, साहित्यिक धाराओं को लुप्त हो जाने देते हैं तो वस्तुतः हम संस्कृति की हत्या कर रहे होते हैं।“ (पृ.14)। इस समस्या का समाधान भी प्रस्तुत करते हुए प्रो. शर्मा कहते हैं कि हजारों मातृभाषाओं और जनभाषाओं से लेकर अनेक क्लासिक भाषाओं तक की विराट भाषिक और साहित्यिक संपत्ति को सँभालकर रखना होगा और साथ ही उसमें निहित उच्च मानवीय मूल्यों तथा उदात्त भारतीय संस्कृति को विश्व के समक्ष रखना होगा।

किसी देश की संस्कृति और इतिहास को जानने और पहचानने का माध्यम या कहे साधन भाषा ही होती है। लंबे समय से हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के लिए प्रयास जारी है। सितंबर का महीना आते ही हिंदी पर्व की गहमागहमी शुरू हो जाती है। 1918 में महात्मा गांधी ने हिंदी को भारतीय स्वाधीनता संग्राम की राष्ट्रभाषा के रूप में प्रस्तावित किया था और स्वीकृत भी। लेकिन संविधान के अंतर्गत हिंदी को ‘राजभाषा’ ही कहा जा सका। वह भी अभी तक केवल सिद्धांत रूप में ही है, व्यवहार में नहीं। भाषा के नाम पर यह देश टुकड़ों में बँटता जा रहा है। लेखक को इसकी चिंता सालती है। अतः वे स्पष्ट स्वर में घोषित करते हैं कि “बदली हुई परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में हिंदी को ‘राष्ट्रभाषा’ और ‘राजभाषा’ जैसी नारेबाजी से दूर रखकर, ‘भाषा’ के रूप में प्रचारित-प्रसारित किए जाने की जरूरत है – जिसे मनुष्य सूचनाओं के आदान-प्रदान, जिज्ञासाओं की शांति, आत्मा की अभिव्यक्ति और संप्रेषण की सिद्धि के निमित्त सीखा करते हैं।“ (पृ.17)। प्रो. शर्मा यह मानते हैं कि ग्लोबल विस्तार तथा संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा के रूप में हिंदी की दावेदारी बेहद मजबूत है।

इस पुस्तक के दूसरे खंड में तीन आलेख सम्मिलित हैं जिनका अपना महत्व है। नीना पाले की एनीमेशन फिल्म ‘सीता सिंग्स द ब्ल्यूज’ को आधार बनाकर लेखक ने ‘रामकथा आधारित एनीमेशन ‘सीता सिंग्स द ब्ल्यूज’ : एक अध्ययन’ शीर्षक आलेख में यह स्पष्ट किया है कि यह फिल्म “स्त्री-प्रश्नों के अलावा सत्य और न्याय के भी शाश्वत प्रश्नों पर सोचने के लिए अपने ग्लोबल दर्शक समुदाय को प्रेरित करती है और राम-संस्कृति की विश्वयात्रा को आगे बढ़ाती है।“ (पृ.51)

‘प्रवासी हिंदी कवियों की संवेदना : सरोकार के धरातल’ शीर्षक आलेख में प्रो. शर्मा ने 10 प्रतिनिधि प्रवासी हिंदी कवियों की कविताओं का विश्लेषण करते हुए यह निरूपित किया है कि “अलग-अलग देशों में रह रहे प्रवासी भारतीयों द्वारा रची जा रही हिंदी कविता में सामाजिक न्याय, मानव अधिकार, जीवन मूल्य, सांस्कृतिक बोध, इतिहास बोध, लोकतत्व, प्रेम और सौंदर्य समान रूप से मुख्य कथ्य बनते दिखाई देते हैं।“ (पृ. 63)। एक और आलेख में प्रवासी साहित्यकार अभिमन्यु अनत के साहित्य में निहित समाजार्थिक चेतना को उजागर किया गया है।

तीसरे खंड में भारतीय साहित्य के विविध आयामों पर प्रकाश डाला गया है। ‘तुलनात्मक भारतीय साहित्य : अवधारणा और मूल्य’ शीर्षक आलेख में लेखक ने सामान्य साहित्य, राष्ट्रीय साहत्य और विश्व साहित्य की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए कहा है कि राष्ट्रीय साहित्य द्वारा तुलनात्मक साहित्य का आधार तैयार होता है तथा तुलनात्मक अध्ययन द्वारा ही राष्ट्रीय साहित्य और उसमें निहित राष्ट्रीयता के तत्वों की पहचान की जा सकती है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि भारतीय साहित्य की पहचान का मूल आधार भारतीयता है। इस आलेख में लेखक ने भारतीय साहित्य के पारंपरिक महत्व पर भी प्रकाश डाला है।

‘भारतीय साहित्य का अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य : विविध आयाम’ शीर्षक आलेख में प्रो. शर्मा ने कुछ प्रमुख एवं गौण आयामों पर प्रकाश डाला है। उनके अनुसार मनुष्यता, संस्कृति, लोकतांत्रिक चेतना, जिजीविषा प्रमुख आयाम हैं तो भारतीय साहित्य का भौगोलिक विस्तार गौण आयाम। उन्होंने आगे यह भी स्पष्ट किया है कि अनुवाद तथा अनुसृजन के माध्यम से इसका निरंतर प्रसार हो रहा है। ‘भारतीय साहित्य में दलित विमर्श : मणिपुरी समाज का संदर्भ’ शीर्षक आलेख में लेखक ने यह चौंकाने वाला तथ्य उजागर किया है कि मणिपुर के साहित्य में दलित विमर्श है ही नहीं क्योंकि मणिपुरी समाज में वर्ण और जाति की प्रथा कभी नहीं रही। उन्होंने यह निरूपित किया है कि वहाँ “जनजाति की व्यवस्था अभी भी सभ्यता की आदिम अवस्था में सुरक्षित है और उनकी अपनी जनजातीय संस्थाएँ हैं जिनमें वर्ण या जातिगत सामाजिक अन्याय और भेदभाव की कोई अवधारणा ही नहीं है।“ (पृ. 97)

‘आंध्रप्रदेश और तेलंगाना की पत्रकारिता’ शीर्षक आलेख में लेखक ने दोनों तेलुगु भाषी प्रांतों की पत्रकारिता के ऐतिहासिक विकास क्रम को उजागर किया है। प्रामाणिक रूप से उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि तेलुगु पत्रकारिता 19वीं सदी के दूसरे दशक से ही आरंभ हो गई थी। “इसके बाद उर्दू पत्रकारिता का उदय 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के दिनों में हुआ जबकि हिंदी पत्रकारिता स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए हिंदी अभियान के दौर में और खास तौर से ब्रिटिश और निजाम शासन के विरुद्ध आर्य समाज की राष्ट्रीय गतिविधियों के साथ बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक के आरंभिक वर्षों में उदित हुई।“ (पृ. 99-100)। निश्चित रूप से यह आलेख दस्तावेजी महत्व का है।

पुस्तक के अंतिम खंड में कुल पाँच आलेख शामिल हैं। इस खंड के पहले आलेख में हिंदी साहित्य के वैश्विक परिप्रेक्ष्य को उजागर किया गया है। पहले भी कहा जा चुका है कि लेखक की दृष्टि वैश्विक है। उन्होंने यह निरूपित किया है कि “हिंदी का चरित्र मूलतः समाज-सांस्कृतिक चरित्र है और इसकी समाज-सांस्कृतिकता दूसरे देशों से आयातित समाज-सांस्कृतिकता नहीं है बल्कि यह अपनी भाषाओं से, अपने देश की स्थितियों से, अपने देश के सामाजिक विकास से, अपने देश के सभ्यतागत विकास से, अपने देश के परंपरागत ज्ञान की बड़ी बृहत परंपराओं से ग्रहण की हुई समाज-सांस्कृतिकता है, इसलिए हिंदी साहित्य वैश्विक परिप्रेक्षय के संदर्भ में जो चीज ग्रहण कर रहा है वह अपनी समाज-सांस्कृतिकता के परिप्रेक्ष्य में ही ग्रहण कर रहा है।“ (पृ. 120)। इके पश्चात लेखक ने कुल 43 पृष्ठों में आदिकाल से लेकर रीतिकाल पर्यंत हिंदी साहित्य के ऐतिहासिक परिप्रेक्षय को सरल एवं सुबोध भाषा शैली में समेटा है।

तेलुगु भाषी हिंदी साहित्यकार आलूरि बैरागी चौधरी के बारे में हिंदी पाठक बहुत कम जानते हैं। आंध्र प्रदेश में जन्मे आलूरि बैरागी की स्कूली शिक्षा कक्षा 3 तक ही हो सकी लेकिन स्वाध्याय द्वारा उन्होंने तेलुगु, हिंदी और अंग्रेजी पर अधिकार प्राप्त करने के साथ-साथ इन तीनों भाषाओं में काव्य-सृजन भी किया। लेखक ने हिंदी पाठकों को उनके कविकर्म से परिचित करवाया है। जहाँ एक ओर उन्होंने तेलुगुभाषी हिंदी साहित्यकार का परिचय दिया है वहीं दूसरी ओर समकालीन हिंदी कविता की राष्ट्रीय चेतना को उकेरा है। यह महज एक आलेख नहीं बल्कि एक संपूर्ण शोध की रूपरेखा है।

ऋषभदेव शर्मा सकारात्मक सोच रखने वाले संवेदनशील साहित्यकार हैं। उनका संवेदनशील हृदय समाज की विसंगतियों को देखकर उद्वेलित हो उठता है। उनकी निष्पक्षता इस बात से प्रमाणित होती है कि उनके लेखन में कहीं भी गुटबाजी नहीं दीखती। हर बात पर वे बहुत स्पष्ट विचार प्रस्तुत करते हैं। नकारात्मक पक्ष को भी सकारात्मक दृष्टि से ही आँकते हैं। समाज के निचले स्तर के लोगों तथा हाशिये पर ढकेले गए लोगों के प्रति उनके मन में सहानुभूति है। उनके अनुसार कोई भी वर्ग निम्नतर नहीं है। इस समाज में वेश्याओं को हेय दृष्टि से देखा जाता है। ऐसी स्थिति में उन पर लिखने के लिए कोई भी सौ बार सोचता है। डॉ. शर्मा ने चार उपन्यासों (सेवासदन, अप्सरा, तिनका तिनके पास और दस द्वारे का पिंजरा) के हवाले से वेश्याओं के पुनर्वास की बात उठाई है क्योंकि वे यह मानते हैं कि मनुष्य को रहने के लिए बेहतर व्यवस्था, बेहतर धरती और बेहतर भविष्य की आवश्यकता है। वे तुलसी की भाँति लोकमंगल की कामना करने वाले साहित्यकार हैं- ‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई।‘

· साहित्य, संस्कृति और भाषा (2021)/ ऋषभदेव शर्मा/ अमन प्रकशन, कानपुर/ पृष्ठ 200/ मूल्य : रु 495

समीक्षक : गुर्रमकोंडा नीरजा

सह संपादक ‘स्रवंति’

सहायक आचार्य, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान

दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा

खैरताबाद, हैदराबाद – 500004.

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