Saturday, November 23, 2024
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मध्य प्रदेश जलाधिकार अधिनियमः हक़दारी या निजीकरण की तैयारी ?

चर्चा है कि मध्य प्रदेश, इन दिनों जलाधिकार अधिनियम बनाने वाला भारत का पहला राज्य बनने की तैयारी में व्यस्त है। वर्ष-2014 तक सभी को नल से जल पिलाने की केन्द्रीय घोषणा भी इसी कालखण्ड में ज़मीन पर विस्तार पाने की होड़ में है। सामान्यतः कम विद्रोही प्रवृत्ति के कारण म. प्र. पहले भी कई केन्द्रीय योजनाओं-परियोजनाओं को व्यवहार में उतारने के पायलट प्रोजेक्ट की भूमि बनता रहा है। मध्य प्रदेश सरकार ने अधिनियम के प्रारूप को जनसहमति के लिए इस लेख के लिखे जाने तक सार्वजनिक भी नहीं किया है और इसे विधानसभा के शीतकालीन सत्र में पेश करने की खबरें आनी शुरु हो गई हैं। अतः सावधानी की दृष्टि से ज़रूरी है कि जलाधिकार अधिनियम के पक्ष-विपक्ष और नल-जल के साथ इसकी जुगलबंदी की संभावना पर पहले से ही चर्चा कर ली जाए।

किसका जलाधिकार ?
गौर कीजिए कि बादल, नदी, समुद्र, भूगर्भ जलवाहिनियां और हवा-मिट्टी की नमी – पृथ्वी पर जल के सबसे बड़े भण्डार ये ही हैं। इनमें से एक को भी इंसानों ने नहीं रचा। इन सभी का निर्माण प्राकृतिक प्रक्रियाओं द्वारा हुआ है। इस नाते ये सभी प्रकृति प्रदत उपहार है। अतः यदि जलाधिकार अधिनियम बनाना हो, तो सबसे पहले बादल, नदी, समुद्र, भूगर्भ जलवाहिनी और हवा-मिट्टी से छीने जा रहे स्वच्छ व पर्याप्त जलाधिकार को वापस लौटाने का अधिनियम बनाना चाहिए। हालांकि प्रकृति के सबसे बडे़ जल-भण्डारों का जलाधिकार सुनिश्चित होते ही अन्य सभी का जलाधिकार स्वतः सुनिश्चित हो जाएगा; फिर भी चूंकि प्राकृतिक जल-भण्डारों का जलाधिकार सुनिश्चित करने में मानव समेत सभी 84 लाख योनियों व कृत्रिम जल भण्डारों का योगदान जरूरी है और योगदान सुनिश्चित करने के लिए इन सभी का जीवित रहना भी ज़रूरी है। इस नाते कृत्रिम जलभण्डारों के जलाधिकार को प्राथमिकता सूची में दूसरे नंबर पर रखा जाना चाहिए। कम पानी व प्रदूषित पानी के कारण लुप्तप्राय श्रेणी में आ चुकी योनियों का जीवन के लिए ज़रूरी जलाधिकार सुनिश्चित करना, अधिनियम की प्राथमिकता नंबर तीन होना चाहिए। मानव समेत शेष सभी योनियों का जलाधिकार, चौथी प्राथमिकता बनना चाहिए।

दुनिया बदलने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा प्रस्तावित सतत् विकास के 17 लक्ष्यों में से लक्ष्य संख्या 06, 13,14,15 में यह दृष्टि मौजूद है। किंतु क्या म. प्र. जलाधिकार के प्रस्तावित प्रारूप में यह दृष्टि मौजूद है ? यदि नहीं, तो मौजूद होनी चाहिए कि नहीं ? यह पहला प्रश्न है।

कितनी ज़रूरत ?
यदि कुलजमा मानव का जलाधिकार ही म. प्र. जलाधिकार अधिनियम का विषय है, तो तथ्य यह है कि जीवन की मूल आवश्यकता होने के कारण, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में उल्लिखित जीवन और व्यैक्तिक स्वतंत्रता के अधिकार में जलाधिकार, स्वतः निहित है। संयुक्त राष्ट्र महासभा व उसकी मानवाधिकार परिषद द्वारा वर्ष-2010 में जलाधिकार को मानवाधिकार के रूप में मान्य करने के बाद जलाधिकार अब नागरिक मात्र का अधिकार न रहकर, प्रत्येक मानव का अधिकार भी हो ही गया है। मध्य प्रदेश में पहला पेयजल परिरक्षण अधिनियम-1986 मौजूद है ही। इसे वर्ष-2002 में संशोधित किया ही गया था। यदि जलाधिकार सुनिश्चित करने के लिए ज़रूरी इंतज़ामात की दृष्टि से यह अभी भी अपर्याप्त हो, तो इसे पुनः संशोधित किया जा सकता है। ऐेसे में प्रश्न पूछा जा सकता है कि मध्य प्रदेश को अलग से जलाधिकार अधिनियम बनाने की ज़रूरत है कहां ?

कौन सूत्रधार ?
म. प्र. में जलाधिकार अधिनियम बनाने की ज़िम्मेदारी, लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग को सौंपी गई है। तर्क दिया जा सकता है कि स्वास्थ्य के लिए स्वच्छ जल की उपलब्धता ज़रूरी होने के नाते ऐसा है। प्रश्न है कि पीने और घरेलु उपयोग के पानी का प्रबंधन, स्थानीय स्व-सरकार का संवैधानिक दर्जा प्राप्त पंचायतों, नगर-निगमों और नगर-पालिकाओं का दायित्व है, तो इसका विधान तय करने का अधिकार भी स्थानीय स्व-सरकारों का ही होना चाहिए कि नहीं ? यदि अधिनियम का उद्देश्य, अन्य उपयोगों के लिए भी जलाधिकार सुनिश्चित करना है, तो इस जिज्ञासा का जवाब पाना भी ज़रूरी है कि जल की उपलब्धता तो जल संसाधन विभाग का विषय है; तो जल संसाधन विभाग को यह ज़िम्मेदारी क्यों नहीं?

कितनी गारंटी ?

इस बाबत् यहां विचारणीय तथ्य यह है कि म. प्र. के तीन से चार हज़ार गांव मार्च-अप्रैल आते-आते कमोबेश हर वर्ष सूखा-सूखा चिल्लाने को मज़बूर होते है। मध्य प्रदेश के 22 ज़िलों का भूजल स्तर 63.25 फीसदी नीचे गिर गया है; नर्मदा, शिप्रा, तापी, तवा, चम्बल, कालीसिंध जैसी नदियां अपनी हालत को लेकर चिंतित हैं ही। म. प्र. ही नहीं, भारत के कमोबेश हर राज्य का हर प्रमुख नगर, दूसरे इलाके के हिस्से के पानी को खींचकर अपनी ज़रूरत के पानी का इंतज़ाम करने वाला परजीवी बनता जा रहा है। कोई पूछे कि जब जल-स्वावलम्बन ही नहीं, जलाधिकार का दावे की उम्र कितने साल की ? यदि नल से पानी पिला रही नगरीय जलापूर्ति ही मानकों पर खरी नहीं उतर पा रही….तो हर गांव-हर परिवार को नल कनेक्शन दे भी दिया, तो स्वच्छ जलापूर्ति की गारण्टी कैसे दे सकोगे ? ये कोई कोरी कल्पना पर आधारित प्रश्न नहीं; भारतीय मानक ब्यूरो की ताज़ा रिपोर्ट के आकलन से निकला प्रश्न भी यही है और देश में सर्वप्रथम जलाधिकार क़ानून का तमगा लेने की जल्दबाजी में दिखते मध्य प्रदेश की जलप्रदाय की योजनाओं-परियोजनाओं के अनुभव भी यही।

म. प्र. के अनुभव
आंकड़ा यह है कि मध्य प्रदेश, पिछले 15 वर्षों के दौरान अपनी जलप्रदाय परियोजनाओं पर 35 हज़ार करोड़ रुपये खर्च कर चुका है। जवाहरलाल नेहरु राष्ट्रीय शहरी नवीनीकरण मिशन, मुख्यमंत्री शहरी पेयजल योजना, छोटे-मझोंले नगरों की अधोसंरचना विकास योजना आदि के ज़रिए मध्य प्रदेश के धार, शहडोल, अमरकंटक, पिपरिया, इटारसी, शिवपुरी, होशंगाबाद समेत कमोबेश सभी नगरों में पेयजल परियोजनाओं का विस्तार किया गया है। ग्रामीण समूह जलप्रदाय योजना पर भी काम हुआ है। क्या ये योजना-परियोजनाएं घरेलु उपयोग लायक जल का अधिकार दे पाईं ? तसवीर देखिए कि मध्य प्रदेश के गांवों में चल रही 15787 नल-जल परियोजनाओं में से 1450 पूरी तरह ठप्प हैं; 600 पर भूजल स्तर में गिरावट के कारण ताला लगाना पड़ा है। छोटे-बडे़ 378 नगरों में से 120 में दिन में एक बार, 100 में एक दिन छोड़कर और 25 में दो-दो दिन छोड़कर जलापूर्ति हो पा रही है। वितरण में असमानता यह है कि भोपाल-इंदौर जैसे नगरों में प्रति व्यक्ति प्रति दिन 180 लीटर जलापूर्ति हो रही है, तो डीपीआर बनाने वाली कंपनी का दिशा-निर्देश ही इटारसी के नल कनेक्शनधारी परिवारों को प्रति व्यक्ति, प्रति दिन 70 लीटर तथा सार्वजनिक नलों से पानी पाने वाले परिवारों को 40 लीटर प्रति व्यक्ति, प्रति दिन पानी मुहैया कराने का है। शुद्धता सुनिश्चित किए बगैर जलापूर्ति संबंधी रिपोर्ट कई हैं।

हक़दारी किसकी जिम्मेदारी ?
किसी भी प्रकार की हक़दारी सुनिश्चित करने की पहली सीढ़ी, हक़दारी हासिल करने में, हक़दारी चाहने वाले की ज़िम्मेदारी का सुनिश्चित हो जाना है। वैश्विक स्तर पर मान्य व्याख्या के अनुसार, जलाधिकार यानी प्रत्येक व्यक्ति के किसी जल स्त्रोत से पानी प्राप्त करने का ऐसा विधिक अधिकार है, जिसे सुनिश्चित करना सभी की ज़िम्मेदारी है। किंतु कल्याणकारी राज्य का दर्जे की आड़ में हमारे राजनेताओं ने भारत में जिस परावलम्बी प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया है, उसका मूल मंत्र है – ”तुम कुछ मत करो। राशन, मकान, चूल्हा, शौचालय, हैण्डपम्प, कुआं, तालाब, सिंचाई, पढ़ाई, दवाई, वृक्षारोपण, दुर्घटना में मुआवजे से लेकर फसल नुकसान की भरपाई तक…जो कुछ भी चाहिए, सब हम करेंगे।” निःसंदेह, जनांदोलनों में घटती ईमानदारी ने भी इस प्रवृत्ति को बढ़ाने में सहयोगी भूमिका निभाई है।

यह सही है कि सरकारों द्वारा जल-स्त्रोतों पर अपना मालिकाना जताने और कई क़ानूनों ने अपनी ज़रूरत के पानी का प्रबंधन खुद करने की सामुदायिक परम्परा को हतोत्साहित करने में मुख्य भूमिका निभाई है। किंतु इस सच से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि पानी प्रबंधन को लेकर बढ़ती हमारी परावलम्बी प्रवृति, जल संसाधनों पर सरकार और बाज़ार का कब्जा तथा जल के कुप्रबंधन को बढ़ाने वाली साबित हुई है। यही कारण है कि म. प्र. पंचायतीराज एवम् ग्राम स्वराज अधिनियम 1993 के अनुसार, गांवों में पेयजल प्रबंधन का दायित्व व अधिकार पंचायतों का होने के बावजूद, गांव बेपानी हुए हैं। अतः यह जांचना ज़रूरी है कि म. प्र. जलाधिकार अधिनियम का प्रारूप, सभी समुदायों, पंचायतों, नगर-निगम/नगर पालिकाओं, उद्योगों तथा पानी बेचकर मुनाफा कमाने वालों समेत सभी जन को जलाधिकार सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी हेतु बाध्य करता है अथवा नहीं ?

एकाधिकार का खतरा
ताज़ा जानकारी के मुताबिक, जल उपलब्धता सुनिश्चित करने संबंधी सभी योजना-परियोजनाओं से संबंधित समस्त विधायी व वित्तीय अधिकार, गठित किए जाने वाले राज्य जल प्रबंधन प्राधिकरण के पास रहेंगे। जल संरक्षण व प्रत्येक व्यक्ति को निश्चित मात्रा में जल उपलब्धता की योजना बनाने, जागरुकता फैलाने, जल संरक्षण की मांग करने वाले क्षेत्रों की पहचान करने, उन्हे जल संरक्षित क्षेत्र के रूप में अधिसूचित करने, निगरानी से लेकर सेस, सरचार्ज वसूली, तय जुर्माने की वसूली तक की सारी ज़िम्मेदारियां व अधिकार प्राधिकरण के ही होंगे। पूर्व में ग्रामीण उपभोक्तओं हेतु जल-शुल्क तय करने का अधिकार पंचायतों का था। किंतु मध्य प्रदेश नल-जल प्रदाय योजना संचालन एवम् संधारण नियम – 2014 ने पंचायतों से उनका यह अधिकार अब छीन लिया है। कंपनियों के सामाजिक दायित्व मद से प्राप्त धनराशि का 50 प्रतिशत तथा मनरेगा के नियोजित कोष का 70 प्रतिशत हिस्सा जलाधिकार सुनिश्चित करने के काम में खर्च करने की जानकारी भी अखबारों में छपी हैं। क्या इन प्रावधानों में जल-स्त्रोतों के प्रबंधन में जन-समुदायों की जिम्मेदारी का कोई भाव मौजूद है ? जिम्मेदारी नहीं, तो हक़दारी की गारण्टी जन-समुदायों के हाथ में रहेगी; यह आशा करना ही तर्कहीन है।

मर्जी के जल-स्त्रोत से जलाधिकार पूर्ति की आज़ादी कितनी ?
आइए, आगे बढे़ं। जलाधिकार अधिनियम के प्रारूप में प्रस्तावित जल स्त्रोतों की जियो टैगिंग, छत पर वर्षा जल संचयन, जल स्त्रोतों पर अतिक्रमण पर सजा, छुआ-छूत के आधार पर जल लेने से मना करने पर क़ानूनी कार्रवाई, ग्रे वाटर क़ानून के तहत् नई इमारतों/टाउनशिप में किचन के पाइप की अलग लाइन, रिचार्ज की अनिवार्यता, हैण्डपम्पों के क्लोरीनेशन जैसे प्रावधान हैं। इन्हे आप जल-सुरक्षा सुनिश्चित करने वाले कदम मान सकते हैं। किंतु क्या प्रारूप में प्रत्येक व्यक्ति को उसके जीवन की बुनियादी ज़रूरत के लिए उसके मनचाहे स्त्रोत से जल हासिल करने की आज़ादी सुरक्षित रखी गई है ? सभी को नल से जल मुहैया कराने की आड़ में जल-स्त्रोतों के जलोपयोग का जनाधिकार छीन तो नहीं लिया जाएगा ? बोरिंग का पंजीकरण, बिना अनुमति बोरिंग पर रोक, फिजूल खर्ची पर दण्ड, निजी क्षेत्र के जल-स्त्रोतों का अधिग्रहण तथा प्रदूषित जल वाले हैण्डपम्पों को प्रतिबंधित करना जैसे प्रावधान आशंकित करते है। ऐसे प्रावधानों को लेकर अब तक के अनुभव भ्रष्टाचार बढ़ाने और लोगों को घरेलु उपयोग के लिए नल-जल पर निर्भर रहने को बाध्य बनाकर जलापूर्ति परियोजनाओं के निजीकरण, अनियंत्रित दोहन तथा पानी का बाज़ार बढ़ाने वाले ही साबित हुए हैं।

किस कीमत पर जलाधिकार ?
यदि यह आज़ादी और जल उपलब्धता का आश्वासन, सिर्फ नल से जल तक सीमित है, तो प्रश्न है कि क्या अधिनियम यह सुनिश्चित करेगा कि नल से जल किफायती दर पर उपलब्ध होगा ? जो पानी का बिल नहीं चुका सकेंगे, उनके कनेक्शन काट तो नहीं जायेंगे ? जलापूर्ति में सतही जल-स्त्रोतों के बढ़ते इस्तेमाल को देखते हुए आशंका व्यक्त की जा रही है कि जलापूर्ति करने वाली ठेकेदार कंपनी, जलाधिकार की गारंटी के नाम पर जल-स्त्रोत पर लीज के आधार पर ही सही अपने अधिकार की गारंटी चाहेगी ही। ऐसे में गरीब-गुरबा किसान, सिंचाई आदि अन्य उपयोगों के लिए उस स्त्रोत से पानी नहीं ले सकेगा। पानी लेने के लिए उसे ठेकेदार कंपनी द्वारा तय दर पर भुगतान करने की बाध्यता होगी। जलापूर्ति निजीकरण पर अध्ययन करने वाली विशेषज्ञ संस्था – मंथन अध्ययन केन्द्र द्वारा जलप्रदाय के गलत आधार, त्रुटिपूर्ण डीपीआर, टेण्डर प्रक्रिया में घालमेल, लागत में अतार्किक वृद्धि, सलाहकार नियुक्ति में पक्षपात, असफल जलापूर्ति जैसे ज़मीनी तथ्यों के आधार पर पेश निष्कर्ष यह है कि जलापूर्ति का पीपीपी मॉडल मध्य प्रदेश में पूरी तरह फेल साबित हुआ है।

ऐसे निष्कर्षो, अनुभवों और आशंकाओं को ध्यान में रखते हुए ही नर्मदा जलाधिकार मसले की अग्रणी कार्यकर्ता सुश्री मेधा पाटकर ने चेताया है कि पानी से जुड़ी कोई भी परियोजना निजी क्षेत्र को न सौंपी जाए। मध्य प्रदेश में नल-जल और पब्लिक प्राईवेट पार्टनरशिप परियोजनाओं के अनुभवों की चेतावनी क्या हैं ? आइए, जानें।

डराता दस्तावेज़
मध्य प्रदेश की ‘मुख्यमंत्री पेयजल योजना’ संबंधित मंथन अध्ययन केन्द्र का दस्तावेज देखिए। एक लाख से अधिक जनसंख्या वाले नगरों में जलापूर्ति परियोजनाओं को पीपीपी आधार पर कंपनियों को सौंपना अनिवार्य होगा। सुधार न करने वाले नगरों को राज्य से मिलने वाले अनुदान व कर्ज में कमी कर दी जाएगी। स्थानीय परियोजना के लिए लिए गए कर्ज का 25 प्रतिशत हिस्सा तथा उस पर ब्याज को पंचायत/नगर निगम को अदा करना होगा। कर्जदाताओं की शर्त के मुताबिक, 80 प्रतिशत को निजी कनेक्शन देना ज़रूरी होगा; मात्र 20 प्रतिशत से कम को ही सार्वजनिक नलों से पानी मिल सकेगा। योजना शुरु होने के एक वर्ष के भीतर प्रत्येक कनेक्शनधारक को मीटर लगवाना होगा। सार्वजनिक नलों से पानी पाने वालों को भी उपभोक्ता मानने और उनसे भी जल दर वसूली की शर्त सामने आई है। गांव/नगर की परिधि तक पानी पहुंचाने वाली ठेकेदार कंपनी पंचायत/नगर निगम से थोक दर वसूलेगी। पंचायत/नगर निगम उपभोक्ताओं से वसूल करेगी। उपभोक्ताओं को सीवेज व ठोस कचरा प्रबंधन शुल्क भी चुकाना होगा। पुनर्वास स्थलों पर जल दर वसूली हेतु म. प्र. शासन के आदेश मान्य होंगे। शासन, इस मद में कोई अनुदान नहीं देगी। अप्रत्यक्ष रूप से देखें तो लागत वसूली के नाम पर दरें तय करने का अधिकार ठेकेदार कंपनी को चला जाएगा। लागत खर्च, प्राप्त जल शुल्क से अधिक होने पर हानि की पूर्ति अन्य स्त्रोतों से करनी होगी। ज्यादातर परियोजनाओं में दूर से पानी लाने को प्राथमिकता दी गई है। परिणामस्वरूप, एकमुश्त लागत के साथ-साथ संचालन व संधारण खर्च में काफी बढ़ोत्तरी होगी ही। पानी की टंकियां जिस क्षमता की बनाई गई हैं; 20 वर्ष बाद पुनः निवेश की मांग उठेगी।

चेतना ज़रूरी
हालांकि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने समुदाय को पानी प्रबंधन व अधिकार देने की बात कही है; फिर भी यदि असल मंशा, पीपीपी के बूते जलाधिकार देने की तैयारी दे रही हो, तो जन-जन को अपनी भूमिका की तैयारी भी अभी से करनी ही चाहिए। अधिनियम बनाने से पहले ही 65 हज़ार करोड़ बजट का अनुमान लगा लेंगे; प्रारूप को सार्वजनिक करने से बचेंगे;vजलाधिकार पर चिंतन की कार्यशाला में देश के औद्योगिक घराने के प्रतिनिधि मौजूद होंगे; जलाधिकार के लिए धन जुटाने में कंपनियों के सामाजिक दायित्व मद की 50 प्रतिशत की बात होगी, तो ऐसी आशंका को बल तो मिलेगा ही कि यह अधिनियम है या मोदी जी की नल से जल पिलाने की योजना से जुगलबंदी।

क्या याद रखेंगे माननीय ?
माननीय मुख्यमंत्री को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि जलाधिकार गारंटी के नाम पर यदि जल-स्त्रोत को किसी निजी कंपनी या संस्थान को एक बार लीज पर दे दिया गया, तो आगे चलकर स्थितियां स्वयं सरकार के हाथ से निकल जाएंगी। हश्र, जलाधिकार से वंचित समुदाय द्वारा विवाद के रूप में सामने आयेगा। यूं भी वह यह कैसे भूल सकते हैं कि सरकार, प्राकृतिक संसाधनों की मालकिन नहीं, सिर्फ ट्रस्टी भर है। ट्रस्टी का कार्य देखभाल करना होता है। ट्रस्टी को प्राकृतिक संसाधनों को किसी अन्य को सौंपने का अधिकार नहीं होता। हां, यदि ट्रस्टी ठीक से देखभाल न करे, तो उसे ट्रस्टीशिप से बेदखल ज़रूर किया जा सकता है। ट्रस्टीशिप के अंतर्राष्ट्रीय सिद्धांत का मूल यही है । आखिरकार, स्पेम रिसोर्ट द्वारा ब्यास नदी की धारा पर अतिक्रमण करने के जिस मुक़दमें के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने इस सिद्धांत को समर्थन दिया था, वह स्वयं कमलनाथ जी से संबंधित कंपनी स्पेम मोटल प्रा. लि. से संबंधित जो था। (एम.सी.मेहता बनाम कमलनाथ)

अरुण तिवारी
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एक निवेदन

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