महात्मा बुद्ध ने वर्तमान का सदुपयोग करने की शिक्षा दी है। बुद्ध ने अतीत के खंडहरों और भविष्य के हवा महल से निकाल कर मनुष्य को वर्तमान में खड़ा रहने की शिक्षा दी है। बौद्ध दर्शन की रेल दया और बुद्धि की पटरी पर दौड़ती है। दया माने सबके लिए कल्याण की भावना। बिहार के बोधगया में बोधिवृक्ष के नीचे महात्मा बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई। उनके ज्ञान की रोशनी पूरी दुनिया में फैली। महात्मा बुद्ध के सन्देश अपने दीये से ही अपनी रौशनी के अधिकारी बनने का अचूक मार्ग बताते हैं।
आज जीवन का हर पहलू व्यावसायिक होता जा रहा है। अभी के दौर में आर्थिक शब्दावली कुछ ज्यादा ही चलन में है, फलस्वरूप जीवन मूल्यों को भी आयात-निर्यात की नजर से देखा जाने लगा है। लेकिन, भारत ने अपने मूल्य न तो अभी तक किसी पर थोपे हैं, न ही उनका निर्यात किया है। इनमें से जो भी दुनिया को अपने काम का लगता है, उसे वह ग्रहण करती है, ठीक वैसे ही, जैसे अन्य समाजों से हम ग्रहण करते हैं।
जिस दौर में दुनिया अहिंसा को एक भारतीय मूल्य के रूप में अनुकरणीय मानती थी, भारत की धरती पर उस दौर में संसार का सबसे बड़ा साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन अहिंसा के सिद्धांत पर ही संचालित हो रहा था। करुणा के दम कर मानव की करुण पुकार को सुनकर उसे नया जीवन दिया जा रहा था। उस दौर में महात्मा बुद्ध ने संसार को बताया कि हिंसा,चोरी, दुराचार या व्यभिचार,असत्य और मादक पदार्थॊं से विरत रहकर जीवन का निर्वाह ही नहीं, उसका निर्माण और यहाँ तक निर्वाण भी संभव है। आज भी यदि हम ध्यान से देखें और समझने का प्रयास करें तो यही वो बुराइयाँ हैं जो हमें, हमारे समाज को निर्जीव और पथभष्ट बना रही हैं। इसने मुक्त होने के लिए आज बुद्ध की शिक्षा के मर्म को जानना और जीना आवश्यक प्रतीत होता है।
राजकुमार सिद्धार्थ अपने महल से निकले थे खुशी की तलाश में और रास्ते में उन्होंने बूढ़े, बीमार और मुर्दे को देखा। ये दुःख के ही रूप हैं। गम कुछ इसी तरह से राजकुमार सिद्धार्थ की राह में खड़े थे। फिर क्या था? महल और रथ को छोड़कर वे दुःख दूर करने का उपाय ढूंढने निकल पड़े। महात्मा बुद्ध की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि किसी के दुःख को देखकर दुखी होने से अच्छा है, उसके दुःख को दूर करने के लिए उसे तैयार करना।दुःख मन में होता है और कष्ट शरीर में। महात्मा बुद्ध समस्या का सार्वभौमिक समाधान बताते हैं कि सारे संसार में सबका दुःख सदा-सदा के लिए दूर हो सके।
महाप्राण निराला की कविता की एक पंक्ति है- ‘दुख ही जीवन की कथा रही।’ यह सच है कि दुख ही जीवन की कथा और परेशानी है। मगर इस परेशानी का अंत कैसे होगा? यही शिक्षा महात्मा बुद्ध ने दी है। राजकुमार सिद्धार्थ रथ पर सवार होकर महल से निकले, रास्ते में बूढ़े को देखा और झटका लगा कि वह भी बूढ़े होंगे। फिर उन्होंने बीमार को देखा, फिर उन्हें झटका लगा, उन्हें लगा कि वह भी बीमार पड़ेंगे। फिर उन्होंने मुर्दे को देखा और वे उन्हें जोर से झटका लगा कि वह भी मरेंगे। उन्होंने दुःख को देखा और दुःख के झटके से उनकी आंखें खुल गईं। दुख ने उन्हें जगा दिया। समझना होगा कि जिसे दुःख देखना आ जाता है, उसे दुःख का होना कभी दुःख पहुंचा नहीं सकता।
इंसान चलते-फिरते, बोलते, काम करते हुए भी एक गहरी नींद में डूबा रहता है। दुःख का पहाड़ इंसान को नींद से जगा देता है। दुःख जगाता है। यही दुख का प्रभाव है। यही उसकी अहमियत भी है। हर दुःख और पीड़ा एक संदेश देती है। जीवन जीने का संदेश। हर दुःख एक चिट्ठी है। हर पीड़ा एक संदेश है। मगर हमारी आँखों पर अज्ञान का पर्दा पड़ा हुआ है, इसलिए उस संदेश को हम पढ़ नहीं पाते हैं। महात्मा बुद्ध ने उस सन्देश को पढ़ने की समझ और देखने की दृष्टि भी दी। हम न खुद को जानते हैं और न भविष्य को। हम दुःख को भोगते हैं। खुद का कोसते हैं। दूसरों को दोष देते हैं। यहाँ तक कि भगवान को भी दोष देते हैं। पर, जरा सोचें तो सही, दुःख के अस्तित्व और उसके कारणों को समझे बगैर उसके निदान का मार्ग भला कैसे मिल सकता है ? परन्तु, दुखद पहलू यह भी है कि स्वार्थ इतना बढ़ गया कि अपने ही दुःख या दूसरों की सुख-सुविधा के बारे में सोचने की इच्छा ही नहीं रही।
जब यही नहीं है तो अहिंसा का मूल, यानी दूसरों को दुख देना या दूसरों के अधिकार छीनना ही हिंसा है, यह कौन समझेगा। दूसरों के अधिकार छीनना हमें ही दुख पहुंचाएगा, जब तक हम यह नहीं समझेंगे तब तक न्याय नहीं कर सकते। दरअसल, दुःख से संदेश ग्रहण करने का चलन हमारे यहाँ है ही नहीं। दुःख से संदेश तो कोई बुद्धिमान ही लेता है। महात्मा बुद्ध का एक मूल सवाल है कि जीवन का सत्य क्या है? यह प्रश्न हमारी पीड़ा से जुड़ा है। भविष्य को हम जानते नहीं है। अतीत पर या तो हम गर्व करते हैं या उसे याद करके पछताते हैं। भविष्य की चिंता में डूबे रहते हैं। दोनों दुखदायी हैं।
बहुत से लोग बुद्ध धम्म को दुखवादी समझते हैं लेकिन अगर हम भगवान बुद्ध के पंचशील सिद्दांत को गौर से देखें तो यह जीवन के प्रति सहज और सकारात्मक दृष्टिकोण का परिचय देते हैं । यह पंचशील सिद्दांत क्या गलत है या क्या सही है की परिभाषा तय नहीं करते बल्कि यह हमे सिखाते हैं कि अगर हम होश रखें और जीवन को गौर से देखें तो हमारे कुछ कर्म हमें या दूसरों को दु:ख पहुंचाते हैं और कुछ हमें प्रसन्नता का अनुभव भी कराते हैं । वास्तव में हम जो कुछ भी हैं वो हमने आज तक क्या सोचा इस बात का परिणाम है। यदि कोई व्यक्ति बुरी सोच के साथ बोलता या काम करता है , तो उसे कष्ट ही मिलता है। यदि कोई व्यक्ति शुद्ध विचारों के साथ बोलता या काम करता है, तो उसकी परछाई की तरह ख़ुशी उसका साथ कभी नहीं छोड़ती।
स्मरण रहे कि महात्मा बुद्ध ने यह भी कहा कि मेरी बात को भी इसलिए चुपचाप न मान लो कि उसे बुद्ध ने कहा है। उस पर भी संदेह करो और विविध तरीकों से उसकी परीक्षा करो। जीवन की कसौटी पर उन्हें परखो, अपने अनुभवों से मिलान करो, यदि तुम्हें सही जान पड़े तो स्वीकार करो, अन्यथा छोड़ दो। समस्याओं से निदान का रास्ता, मुश्किलों से हल का रास्ता तुम्हारे पास है। सोचो, सोचो और खोज निकालो ! इसके लिए मेरे विचार भी यदि तुम्हारे विवेक के आड़े आते हैं, तो उन्हें छोड़ दो। सिर्फ अपने विवेक की सुनो। करो वही जो तुम्हारी बुद्धि को जंचे।
महात्मा बुद्ध के उपदेशों को यदि हम व्यवहार के प्रशिक्षण के नियम के रुप मे समझें न कि किसी आज्ञा के रुप में तो हमें जीवन की सभी समस्याओं का समाधान मिल सकता है। यह ऐसा अभ्यास है जिसका विकास करके ध्यान, ज्ञान, सम्मान और करुणा,दया, अहिंसा के सच्चे अधिकारी बन सकते हैं। उन्होंने कहा – अतीत पर ध्यान मत दो, भविष्य के बारे में मत सोचो, अपने मन को वर्तमान क्षण पर केंद्रित करो। पल भर ही सही अगरअतीत के खंडहर और भविष्य के हवा महल से मुक्त जा सके तो महात्मा बुद्ध की सीख का सार कुछ तो हमारे हिस्से आएगा। आएगा, जरूर आएगा। और हम बरबस कहने लगेंगे –
इश्क ने दिल में रौशनी की है,
अक़्ल से सिर्फ़ ज़हन रौशन था।
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