भारतीय संस्कृति में पर्वों का अत्यधिक महत्व एवं प्रभाव रहा है। समय-समय पर सर्वत्र-दीवाली, होली, रक्षाबंधन, दशहरा आदि अनेक भौतिक पर्व मनाये जाते हैं। किन्तु जैनधर्म त्याग प्रधान धर्म है। इसके पर्व भी त्याग-तप की प्रभावना के पर्व हैं। जैनधर्म में तीन पर्वों को विशेष महत्व दिया जाता है। 1. अक्षय तृतीया, 2. भगवान महावीर निर्वाणोत्सव (दीपमालिका) एवं 3. पर्युषण। इनमें अक्षय तृतीया-प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के वार्षिक तप के पारणे से संबंधित दिन है, जो वर्षी तप प्रारंभ एवं समापन का दिन माना जाता है। दीपमालिका भगवान महावीर का निर्वाणोत्सव का अवसर है, जो वर्तमान में जप करने की प्रेरणा देता है। जैनधर्म की त्याग प्रधान संस्कृति में पर्युषण पर्व का अपना अपूर्व एवं विशिष्ट आध्यात्मिक महत्व है। यह एकमात्र आत्मशुद्धि का प्रेरक पर्व है। इसीलिए यह पर्व ही नहीं, महापर्व है। जैन लोगों का सर्वमान्य विशिष्टतम पर्व है। पर्युषण पर्व- जप, तप, साधना, आराधना, उपासना, अनुप्रेक्षा आदि अनेक प्रकार के अनुष्ठानों का अवसर है।
पर्युषण पर्व जैन एकता का प्रतीक पर्व है। जैन लोग इसे सर्वाधिक महत्व देते हैं। संपूर्ण जैन समाज इस पर्व के अवसर पर जागृत एवं साधनारत हो जाता है। दिगंबर परंपरा में इसकी ‘‘दशलक्षण पर्व’’ के रूप मंे पहचान है। उनमें इसका प्रारंभिक दिन भाद्र व शुक्ला पंचमी और संपन्नता का दिन चतुर्दशी है। दूसरी तरफ श्वेतांबर जैन परंपरा में भाद्र व शुक्ला पंचमी का दिन समाधि का दिन होता है। जिसे संवत्सरी के रूप में पूर्ण त्याग-प्रत्याख्यान, उपवास, पौषध सामायिक, स्वाध्याय और संयम से मनाया जाता है। वर्ष भर में कभी समय नहीं निकाल पाने वाले लोग भी इस दिन जागृत हो जाते हैं। कभी उपवास नहीं करने वाले भी इस दिन धर्मानुष्ठान करते नजर आते हैं।
पर्युषण पर्व का हृदय है-‘क्षमापना दिवस’ जिसे मेैत्री दिवस भी कहते हैं। यह पर्युषण पर्व की आठ दिवसीय साधना के बाद नौवें दिन आयोजित किया जाता है। इस दिन अपनी भूलों या गलतियों के लिए क्षमा मांगना एवं दूसरों की भूलों को भूलना, माफ करना, यही इस पर्व को मनाने की सार्थकता सिद्ध करता है। यदि कोई व्यक्ति इस दिन भी दिल में उलझी गांठ को नहीं खोलता है, तो वह अपने सम्यग्दर्शन की विशुद्धि में प्रश्न चिन्ह खड़ा कर लेता है। क्षमायाचना करना, मात्र वाचिक जाल बिछाना नहीं है। परंतु क्षमायाचना करना अपने अंतर को प्रसन्नता से भरना है। बिछुड़े हुए दिलों को मिलाना है, मैत्री एवं करुणा की स्रोतस्विनी बहाना है। वर्ष भर के बाद इस प्रकार यह मैत्री पर्व मनाना, जैनधर्म की दुर्लभ विशेषताओं में से एक है। इसे ग्रंथि विमोचन का पर्व भी कहते है क्योंकि यह पर्व ग्रंथियों को खोलने की सीख देता है।
गुरु वल्लभ कहा करते थे कि मैत्री पर्व का दर्शन बहुत गहरा है। मैत्री तक पहुंचने के लिए क्षमायाचना की तैयारी जरूरी है। क्षमा लेना और क्षमा देना मन परिष्कार की स्वस्थ परम्परा है। क्षमा मांगने वाला अपनी कृत भूलों को स्वीकृति देता है और भविष्य में पुनः न दुहराने का संकल्प लेता है जबकि क्षमा देने वाला आग्रह मुक्त होकर अपने ऊपर हुए आघात या हमलों को बिना किसी पूर्वाग्रह या निमित्तों को सह लेता है। क्षमा ऐसा विलक्षण आधार है जो किसी को मिटाता नहीं, सुधरने का मौका देता है। क्षमा घने अंधेरो के बीच जुगनू की तरह चमकता प्रेरक एवं मूल्यवान जीवनमूल्य हैं।
मानवीय व्यक्तित्व का एक महत्वपूर्ण घटना तत्व है क्षमा। क्षमाशीलता व्यक्तित्व को गरिमा प्रदान करती है, उसे गहराई और ऊंचाई देती है। क्षमा के अभाव में मनुज दानव बन जाता है। क्षमा धर्म की प्रतिष्ठा है। आपसी मतभेद होते हुए भी सब धर्मों और संप्रदायों ने क्षमा की महत्ता एक मत से स्वीकार की है।
यहूदी, इस्लाम और ईसाई धर्मों में क्षमा को ऊंचा स्थान प्राप्त है। ईसाइयत के बुनियादी तत्वों में इसकी गणना होती है। ईसाई धर्म के प्रवर्तक हजरत ईसा की क्षमा भावना सुविख्यात है। जिन लोगों ने उन्हें शूली पर चढ़ाया, उनके लिए भी उन्होंने कहा-‘‘परमात्मा! उनको माफ कर दो, क्योंकि वे नहीं जानते वे क्या कर रहे हैं।’’ इस्लाम में भी माफी की ताकत को खुदाई ताकत के रूप में स्वीकार किया गया है। पारसी धर्म के प्रवर्तक जरथुस्त्र तो उस धर्म को धर्म मानने के लिए भी तैयार नहीं थे, जिसमें क्षमा को स्थान न हो।
भगवान महावीर ने कहा-‘अहो ते खंति उत्तमा’-क्षांति उत्तम धर्म है। ‘तितिक्खं परमं नच्चा’-तितिक्षा ही जीवन का परम तत्व है, यह जानकर क्षमाशील बनो।
तथागत बुद्ध ने कहा-क्षमा ही परमशक्ति है। क्षमा ही परम तप है। क्षमा धर्म का मूल है। क्षमा के समकक्ष दूसरा कोई भी तत्व हितकर नहीं है। क्योंकि प्रेम, करुणा और मैत्री के फूल सहिष्णुता और क्षमा की धरती पर ही खिलते हैं। मैत्री शब्द बहुत मीठा है। मित्र सबको अच्छा लगता है, शत्रु अच्छा नहीं लगता। मनुष्य इस प्रयास के साथ जीता है कि मेरे अधिक से अधिक मित्र बनें। राग और द्वेष-इन दोनों से परे है मैत्री।
‘सबके साथ मैत्री करो’ यह कथन बहुत महत्त्वपूर्ण है किंतु जब तक मैत्री की प्रक्रिया और मैत्री का दर्शन स्पष्ट नहीं होता, तब तक ‘मैत्री करो’ की बहुत सार्थकता और सफलता नहीं होती। यह मैत्री का विराट् दर्शन है। हम वर्तमान संबंधों को बहुत सीमित बना लेते हैं। सुखी परिवार अभियान के प्रणेता गणि राजेन्द्र विजय कहते हैं कि दर्द सबका एक जैसा होता है, पर हम चेहरों को देखकर अपना-अपना अन्दाज लगाते हैं। यह स्वार्थपरक व्याख्या हमें प्रेम से जोड़ सकती है मगर करुणा से नहीं। प्रेम में स्वार्थ है, राग-द्वेष के संस्कार है, जबकि करुणा परमार्थ का पर्याय बनती है। कहा जाता है-‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ वसुधा कुटुम्ब है, परिवार है। यह प्रत्यक्ष दर्शन की बात है। किंतु अतीत में जाएँ तो इसका अर्थ होगा-इस जगत् में जो प्राणी है, वह कभी न कभी तुम्हारे कुटुम्ब या परिवार का सदस्य रहा है। इसी तथ्य को उपाध्याय विनयविजयजी ने इस भाषा में प्रस्तुत किया-
सर्वे पितृभ्रातृपितृव्यमातृपुत्रांगजास्त्रीभगिनीस्नुषात्वम्।
जीवाः प्रपन्नाः बहुशस्तदेतत् कुटुम्बमेवेति परो न कश्चित्।।
सभी प्राणी अनेक बार तुम्हारे पिता, भ्राता, चाचा, माता, पुत्र, पत्नी, बहिन और पुत्रवधू बन चुके हैं इसलिए यह जगत् तुम्हारा ही कुटुम्ब है, पराया या दूसरा नहीं है। महावीर ने कहा-‘हाँ, यह जीव सब जीवों के माता-पिता, भाई-बहन आदि संबंधों के रूप में एक बार नहीं, अनेक बार पैदा हुआ है।’
‘मित्ती में सव्व भूएसु वेरं मज्झ न केणई’- यह सार्वभौम अहिंसा एवं सौहार्द का ऐसा संकल्प है जहां वैर की परम्परा का अंत होता है। क्रूरता करुणा में बदलती है, हिंसा से जन्मे भय और असुरक्षा के भाव समाप्त होते हैं। मनुष्य-मनुष्य के बीच सहअस्तित्व जागता है। क्षमा हमारी संस्कृति है। संपूर्ण मानवीय संबंधों की व्याख्या है। क्षमा को हम एक शब्द भर न समझे, यह एक संपूर्ण जीवन शैली है।
आज के स्वार्थी युग में क्षमा की बात को केवल तर्क की तुला पर तौलेंगे तो संभवतः सही परिणाम नहीं आ पायेंगे। क्योंकि क्षमा स्वार्थ से नहीं, हृदय से आती है। इसीलिए क्षमा की जमीं जहां भी कमजोर पड़ती है, बुनियाद के खोखले हो जाने का भय भी जीवन के इर्द-गिर्द नए खतरे खड़े कर देता है। मनुज मन की व्याख्या के लिए क्षमापना पर्व से बड़ा कोई अवसर नहीं है। आज मानवीय संबंधों में दरारें पड़ रही हैं, संवेदनाओं का उत्स सूख रहा है, निजी स्वार्थों की पूर्ति में हम औरों के अस्तित्व को नकार रहे हैं, मन के प्रतिकूल कभी किसी को एक क्षण के लिए भी नहीं सहते। सत्ता, शक्ति, अधिकार और न्याय का उचित उपयोग नहीं करते।
एक मात्र जैन धर्म ही ऐसा है, जिसने क्षमा को पर्व का रूप देकर जीवन-व्यवहार के साथ जोड़ा है। जरूरत है हम सभी क्षमापर्व व्यापक रूप में मनाये ताकि हमारे व्यक्तिगत,पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन में सौहार्द स्थापित हो सके। यही क्षण जीवन को सार्थकता दे पायेगा।प्रस्तुति-
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(ललित गर्ग)
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