विश्व मजदूर दिवस आया है,
मजदूरों का दिन लाया है,
समस्त जगत इसे मनाता है,
फिर भी ध्यान मजदूरों पर नहीं जाता है!
आओ सुने कहानी मजदूरों की-
पिरोएं कुछ शब्दों में इनकी मजबूरी।
सुंदर रैन-बसेरे की चाहत हम रखते हैं,
तरह-तरह से उसको सजाने के जतन करते है,
कहां से, कौन-से पत्थर ज्यादा जचेंगें?
किसका सीमेंट मजबूत ज्यादा होगा?
यह विचार हम करते हैं
फिर कम कीमत के मजदूर हम ढूंढते हैं।
यह किसकी मजबूरी है-
हमारी-
या-
मजदूर की-
भारी सामान हो,
या हो घर के कोई काम,
हर काम में हम सेवक ढूंढते हैं,
बाल-मजदूरी भी हम करवा लेते हैं,
खुद हमसे होता नहीं कोई काम-
फिर मजबूरी-
मजदूर की गिनाते हैं।
गरीब है तो क्या,
ईमान सबका होता है,
खुद की वजह से नहीं-
वह गरीब समाज की वजह से होता है।
अमीर आदमी –
परेशान सबसे ज्यादा होता है-
छोटी-छोटी मुसीबतों में-
जब ढूंढना मजदूर भारी होता है-
चिंताएं की लकीरें माथे पर पड़ती,,
फिर हर कीमत में समझौता होता है!
यह किसकी मजबूरी है-
हमारी-
या-
मजदूर की-
कड़ी धूप में पसीना बहा,
चाय-पानी जब वह मांगता है,
सेठानी को जोर इतना पड़ता,
फिर मजदूर छुट्टी मांगता है!
छुट्टी का नाम सुनते ही,
तनाव काम का हो जाता है,
सेठानी तुरंत चाय-पानी का इंतजाम कर,
मजदूर को खुश रखने का जतन करती है,
डर यह अचानक घिर जाता है,
कहीं यह काम छोड़कर ना चला जा
यह किसकी मजबूरी है-
हमारी-
या-
मजदूर की-
आंधी,तूफानों में भी,
मजदूर के नन्हें बच्चे,
जब पेड़ों के नीचे सोते हैं,
हमारे बच्चे पंखे-कूलर के नीचे भी रोते हैं।
अवस्था उसकी देख,
हम अनदेखी कर जाते हैं,
सुविधा के नाम पर चुप्पी साध जाते हैं
यह किसकी मजबूरी है-
हमारी-
या-
मजदूर की-
दौड़-भाग की जिंदगी में,
हम ऐशो-आराम की चाह रखते हैं,
छुट्टियां मनाने नित-प्रतिदिन फार्महाउस जाते हैं,
खेतों में काम करते मजदूर,
झूले हम झूलते है
उसे खाने को कुछ ना दे कर,
मजबूरी अपनी जताते हैं।
सड़क पर चलते-चलते,
जब गाड़ी गड्ढे में फंस जाती,
गाली सीधे कामवालों पर नि
एहसास नहीं इस बात का-
कितनी मेहनत से मजदूर ने सड़क बना एहसास नहीं इस बात का-
गड्ढा मजदूर ने नहीं आपकी गाड़ी ने बनाया!
अपनी कमी होने पर भी-
मजदूर पर गुस्सा निकालते हैं-
खुद बेबस है गड्ढा भरने में-
नुक्स मजदूर का निकालते है
यह किसकी मजबूरी है-
हमारी-
या-
मजदूर की-
नित नए-नए पकवान हम बनाते हैं,
खुद खाते, परिवार को खिलाते हैं,
टूटे झौंपड़े में जब बच्चे,
खाते सूखी रोटी हैं,
हंसी बड़ी समाज को आती है।
सोच का दायरा हमारा इतना संकीर्ण,
नहीं हम उसे जरा भी देना चाहते,
खुद ही सब खा जाना चाहते।
वह मांगता नहीं आगे होकर कि ‘मुझे कुछ दो’!
लेकिन हम भी तो नहीं देते आगे होकर कि ‘यह ले लो’!
फिर उसमें और हममें अंतर क्या रहा
यह किसकी मजबूरी है-
हमारी-
या –
मजदूर की-
मजदूर की पत्नी जब तगारियों का बोझा ढोती है,
सेठों की पत्नियां आराम से सोती हैं।
औरत सिर्फ औरत होती है-
चाह हर औरत की कुछ ना कुछ होत
पत्नी मजदूर की भी सोना चाहती है-
कड़ी तपन में थोड़ी अंगड़ाई लेना चाहती है-
दशा उसकी देख दया जरा भी नहीं आती है-
आराम की चाह उसकी रास किसी को भी नहीं आती है।
यह किसकी मजबूरी है-
हमारी-
या-
मजदूर की-
मजदूर की दिहाड़ी जब बढ़ती है,
समाज में चित्कार-सी होती है,
‘भाई!मजदूरी बहुत महंगी हो गई है’.
यह बात सबकी जुबां पर होती है।
विचारणीय बिंदु है दोस्तों!
दिहाड़ी कितनी महंगी हो गई है!
कि हमारी जेब में सुराख हो गई है,
या मजदूर की जेब ज्यादा मोटी हो गई है
यह किसकी मजबूरी है-
हमारी-
या-
मजदूर की-
मजदूर का जीवन नहीं आसां,
चादर है इनका खुला आसमां,
चांदनी रात में फुटपाथ पर जब यह सोता है,
नहीं दर्द किसी को महसूस होता है
मौसम चाहे कैसा हो
गर्म हो या सर्द हो-
दुःखता सबको अपना-अपना दर्द है।
कभी-कभी कयास लगाती हूं-
तो खुद को सवालों के कटघरे में पाती हूं-
की-
कैसा इनका जीवन है?
क्या यह इंसां नहीं है?
क्या इनके कोई शौक नहीं है?
या इनको आनंद का हक नहीं है?
छोटे-छोटे बच्चे,
हमारे पाठशाला जाते हैं,
हम तरह-तरह से उनके नखरे उठाते हैं,
बैग,बस्ता,कॉपी-किताबें,
रंग-बिरंगे टिफिन-बोतल से,
उनकी दुनिया खूबसूरत बनाते हैं।
मजदूरों के बच्चों की शायद यह दुनिया नहीं है-
नसीब में उनके यह जन्नत नहीं है-
हम जन्नत में रहते हैं-
तब भी शिकायतें करते रहते हैं-
अशिक्षित बच्चों को,
शिक्षित हम कर सकते हैं,
थोड़ी अपनी भी जेब ढीली कर सकते हैं,
पर निराशा इस बात पर आती है
देख कर हम अनदेखा कर देते हैं-
या सिर्फ अफसोस प्रकट कर रह जाते हैं-
यह किसकी मजबूरी है-
हमारी –
या-
मजदूर की –
अभी हम समझ नहीं पा रहे हैं,,,,
भविष्य के गर्त में क्या छुपा है,,,,
मजदूर की छेनी जिस दिन रुक जाएगी,,,,
हमारे जीवन की गति बंद हो जाएगी,,,,
इनके प्रति मान का भाव रखें–
तिरस्कार ना कभी इनका करें–
उन्नति में इनका सहयोग दें–
नवजीवन-नवसमाज का निर्माण करें!!
क्यों?
क्योंकि–
मजदूर मजबूर नहीं है-
मजबूर है हमारा भारतीय समाज-
मजबूर है हमारी भारतीय सोच-
मजदूर समाज के —
निर्माणकर्ता हैं–
यही हमारे–
भगवान–
विश्वकर्मा है।।
“मजदूर नहीं मजबूर”
एक निवेदन
ये साईट भारतीय जीवन मूल्यों और संस्कृति को समर्पित है। हिंदी के विद्वान लेखक अपने शोधपूर्ण लेखों से इसे समृध्द करते हैं। जिन विषयों पर देश का मैन लाईन मीडिया मौन रहता है, हम उन मुद्दों को देश के सामने लाते हैं। इस साईट के संचालन में हमारा कोई आर्थिक व कारोबारी आधार नहीं है। ये साईट भारतीयता की सोच रखने वाले स्नेही जनों के सहयोग से चल रही है। यदि आप अपनी ओर से कोई सहयोग देना चाहें तो आपका स्वागत है। आपका छोटा सा सहयोग भी हमें इस साईट को और समृध्द करने और भारतीय जीवन मूल्यों को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए प्रेरित करेगा।