विगत लेख में हमने समिदाधानम् के प्रथम मन्त्र के साथ एक समिधा को गाय के घी में डुबोकर इसे अग्नि में रखा था| इसे अग्नि में रखते हुए बताया गया था कि विश्व के सब प्राणी अग्निहोत्र कर रहे हैं तो फिर मैं क्यों न करूं और करूँ भी तो इसमें मैं की भावना से रहित होकर करूँ क्योंकि इस विश्व में जो भी कुछ है, सब उस पिता का ही दिया हुआ है| इस में मेरा कुछ भी नहीं है अपितु जिसे मैं अपना कहता हूँ ,उसे भी स्वाहा करते हुए विश्व कल्याण के लिए जितना बन पड़े उतना सहयोग करूँ| अब इस क्रिया के दूसरे भाग के रूप में हम दूसरी समिधा डालने के दो मन्त्रों तथा तृतीय समिधा डालने के एक मन्त्र अर्थात् इस क्रिया के बचे कुल तीन मन्त्रों को लेते है, जो इस प्रकार है:-
ओं समिधाग्निं दुवास्यत घृतैबोधयतातिथिम्| आस्मिन् हव्या
जुहोतन स्वाहा| इदमग्नये इदन्न मम||२||
सुसमिधाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन| अग्नये जातवेदसे
स्वाहा| इदमग्नये जातवेदसे, इदंन्न मम||३||
प्रथम समिधा डालने के उपरान्त यह दो मन्त्र बोलने होते हैं किन्तु इन दो मन्त्रों से समिधा एक ही डाली जाती है और वह भी घी में डुबो कर|
तन्त्वा समिदि्भरङ्गिरो घृतेन वर्धयामसि| बृहच्छोचा यविष्ठ्ये
स्वाहा| इदमग्नयेऽग्निरसे, इदंन्न मम||४||
इस मन्त्र के साथ देसी गाय के देसीघी में डुबोकर तीसरी समिधा को यज्ञ कुण्ड में आरम्भ की गई अग्नि के आस पास जोडी गई समिधाओं पर रखें|
शब्दार्थ
अतिथिं अग्निम् समिधा दुवस्यत
मन्त्र यज्ञ कर रहे यज्ञमान को संबोधित करते हुए उपदेश कर रहा है कि हे यज्ञमानो! नित्य अर्थात् प्रतिदिन तीव्र गति से जलने वाली इस यज्ञ की अग्नि का पूजन करो और इसके पूजन की सबसे उत्तम विधि है कि इस अग्नि में गाय के घी से डूबी हुई समिधा को रखो|
घृतै बोधयत
इस प्रकार जहाँ समिधा तथा घी के संपर्क से अग्नि तीव्र होगी, इसे जगाने का, इसे तीव्र करने का कार्य घी से सनी समिधा डालकर करो|
अस्मिन् हव्या आ जुहोतन
इस अग्नि को तीव्र करने के लिए जो भी हव्य पदार्थ हैं, जिसे होम किया जा सकता है, वह सब डालो||२||
सु-सम्-इद्धाय शोचिषे
अच्छी प्रकार से प्रकाशित हो रही तथा खूब चमक रही
अग्नये तीव्रं घृतं जुहोतन
अग्नि के निमित्त तीक्ष्ण घी अर्थात् खूब जोर से तपाकर खोलने वाले घी को इस यज्ञ में आहुति रूप डालो| यहाँ हमें समझ लेना चाहिए कि यज्ञाग्नि में सदैव खोलता हुआ घी ही प्रयोग करना चाहिए, ठन्डे घी के प्रयोग से यज्ञ के वह लाभ नहीं मिल पाते जो मिलने चाहियें| हाँ! लाभ मिलते तो हैं किन्तु कम हो जाते हैं| मैं जब कालेज में था तो मैंने देखा की रसायन शास्त्र की प्रयोग शाला में प्रयोग में आने वाली आग के लिए वहां एक गैस प्लांट बना हुआ था| इससे काफी दूरी पर जमीन में गढा खोदकर एक बहुत बड़ा लोहे की चादर से बनाया हुआ ढोल सा फिट किया हुआ था| इसकी एक पाइप निकट वाले एक कमरे में जाती थी, जिस में बूंद बूंद कर तेल गिरता रहता था और नीचे जल रही आग से पाइप गर्म होती थी और इस तेल से एक ज्वलन शील गैस बनकर इस लोहे के बड़े ढोल में चली जाती थी| इसकी पाइप रसायन शास्त्र की प्रयोग शाला में जाती थी, जिससे गैस का लैम्प जला कर प्रयोग किये जाते थे| एक दिन तेल की मात्रा कुछ अधिक पड जाने से एक जोरदार धमाका हुआ और लोहे का ढोल उड़कर फट गया| इसका कारण था इस में जाने वाली गैस का इसकी क्षमता से अधिक बन जाना, जिसे यह संभाल नहीं पाया और उड़कर फट गया, क्योंकि कुछ बून्दे तेल की ही इसमें भारी मात्रा में गैस बना देती हैं|
यज्ञाग्नि भी कुछ इस प्रकार के ही कार्य करती है| इस में डाला गया कुछ माशे मात्र का उबलता हुआ घी इसे जलाकर इसकी गैस बना देता है, जो मूल मात्रा से हजारों गुणा अधिक हो कर वायु मंडल में फ़ैल जाता है और दूर दूर तक की वायु को शुद्ध व सुगंधिहित कर देता है| इस कारण ही यहाँ कहा गया है कि यज्ञ के लिए प्रयोग होने वाला घी अवश्य ही खोलता हुआ होना चाहिए||३||
ऊपर के इन दो मन्त्रों से केवल एक क्रिया अर्थात् केवल एक ही समिधा को अग्नि में डाला जाता है| मन्त्र के अंत में स्वाहा शब्द पुन: आता है| हम इसकी बार बार व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं समझते क्योंकि इसकी पहले से विगत् मन्त्र में व्याख्या की जा चुकी है|
अंगिरे यविष्ठ्य
अग्नि एक इस प्रकार की वस्तु है, जो सब स्थानों पर सदा ही बड़ी सरलता से मिल जाती है| इसलिए इस अग्नि को संबोधित करते हुए इस मन्त्र में कहा गया है कि हे सब स्थानों पर प्राप्त होने वाली तथा सदा ही यौवन में रहने वाली अर्थात् सब प्रकार के पदार्थों को अत्यधिक तोड़ते रहने वाली और जोड़ते रहने वाली अग्नि| आग का काम हम नित्य देखते हैं| जो पदार्थ तो अपनी अकड में रहते हैं, यह अग्नि उन्हें पिघला कर तरल में बदल देती है और यदि कोई पत्थर या कांच जैसा पदार्थ हो तो उसे टुकड़ों में बदलने की शक्ति रखती है|
तं त्वा घृतेन वर्धयामसि
इस प्रकार के खूब गर्म किये हुए, खोलते हुए घी से आहुति देकर हे अग्नि हम तुझे बढाते हुए तीव्र करते हैं|
बृहत् शोच
हे अग्निदेव! आप जितनी अधिक तीव्रता पकड़ते जाओगे, जितना अधिक तीव्र होवोगे, आपकी चमक, आपका तेज भी उतना ही अधिक बढ़ता चला जावेगा|
व्याख्यान
यज्ञ में डाला जाने वाला घी सदा तीव्र अर्थात् खोलता हुआ होना चाहिए| इसके साथ घी की शुद्धता का ध्यान रखना भी आवश्यक होता है| जैसा घी इसमें प्रयोग किया जावेगा, उसका परिणाम भी वैसा ही मिलेगा| जब घी गाय का हो और वह भी देसी गाय का हो तो इसके अद्भुत परिणाम यज्ञा करने वाले हमारे यज्ञमान को दिखाई देंगे| इसलिए इन मन्त्रों की व्याख्या करते हुए इसमें दिए गए उपदेशामृत का पान करते हुए जब हम यज्ञ की अग्नि में देसी गाय का शुद्ध घी प्रयोग करेंगे तो हे यज्ञ करने वाले साधक! जिस प्रकार तूने यह भौतिक आग जला कर यह यज्ञ आरम्भ किया है, उस प्रकार इस अग्नि को प्रतीक मानते हुए अपने जीवन को भी तदनुरूप बनाने के लिए अपने अन्दर की आत्मिक ज्योति को भी जला, आत्मिक ज्योति को भी प्रकाशित कर|
आत्मिक ज्योति को जलाने के लिए जो घी प्रयोग किया जावेगा, उस घी का नाम है बढती हुई श्रद्धा| अत: तेरी श्रद्धा यज्ञ के प्रति जितनी बढ़ेगी उतनी ही तेरे अन्दर की आत्मिक ज्योति भी तीव्र होती चली जावेगी| कोई भी ज्योति जब जलती है तो उस से अवश्य ही कुछ न कुछ प्रकाश निकलता है| जब तु अपने अन्दर की आत्मिक ज्योति को जगावेगा तो निश्चय ही इसमें से एक प्रकाश निकलेगा| इस प्रकाश का नाम है ज्ञान| इसका भाव यह है कि जब हम यज्ञ करते हैं तो इसमें हम वेद मन्त्रों का उच्चारण करते हैं| जब हम इन उच्चारित हुए वेद मंत्रों के अर्थों को समझने लगते हैं तो हमारा ज्ञान भी बढ़ने लगता है क्योंकि वेद नाम ही ज्ञान का है| इस प्रकार तुम्हारा अन्दर अर्थात् तुम्हारा आत्मा ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित होने लगेर्गा|
इस प्रकार जब तेरे अन्दर श्रद्धा का भाव अत्यधिक बढ़ जावेगा और इस श्रद्धा के साथ जब यह श्रद्धा ज्ञान से सुभाषित होगी तो तु आत्मयाजी बन जावेगा| जो भी आत्मयाजी बन जाता है वह अपनी महिमा को भली प्रकार समझने लगता है| इसलिए हे यज्ञमान अपने अन्दर अपार श्रद्धा को भर कर अपने अन्दर के ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित होकर तु आत्मयाजी बनकर अपनी महिमा की पहचान कर| इस प्रकार के ब्रह्म गुणों को धारण करते हुए अपना सम्बन्ध उस सत्ता से जोड़, जिसे तु अपने से भी बड़ी सत्ता समझता है| इस सत्ता का नाम ईस्वर है, परमात्मा है।
वह परम पिता परमात्मा भी अग्नि स्वरूप ही है अर्थात् जिस प्रकार अग्नि में सदा चमक होती है, उस में भी चमक है, जिस प्रकार अग्नि सदा ऊपर उठती है, उस प्रकार वह प्रभु भी सदा ऊपर ही, आगे ही रहते हैं और जिस प्रकार अग्नि सब प्रकार के दुर्गुणों, दुगंधों को जला कर उन्हें नष्ट करती है और सुगंध देती है, उस प्रकार ही वह परमात्मा भी हमारे सब पापयुक्त दुष्ट कर्मों को नश्ट कर हमें सुखदायी, पुण्यदायक कर्मों से मेल करवाने वाले हैं| वह परमात्मा सब स्थानों पर व्यापक होने से कोई महीन से महीन स्थान भी ऐसा नहीं, जहां उसका निवास न हो| इतना ही नहीं हमारा वह परम पिता भी है, जो न तो कभी पैदा हुआ है, न पैदा होता है और न ही कभी मरता है| वह अखंड है| सब स्थानों पर विद्यमान् होते हुए भी वह एक ही है, उसका खंड नहीं होता, कभी कोई टुकड़ा नहीं होता| उसका रस भी सदा एक जैसा ही होता है, इस कारण वह एकरस भी कहलाता है|
घी से सनी यह तीन समिधाएँ रखने से हमारे यज्ञकुण्ड में अग्नि जल गई है| यज्ञ को अत्यंत गति से आगे बढ़ाया जावे, इससे पूर्व इस अग्नि को तीव्र करने की भी आवश्यकता होती है| इसे प्रज्वालन कहते हैं| इसके लिए यज्ञमान कलकते हुए घी के पात्र को अपने सामने रखे| इस समय घी का गर्म होना तथा शुद्ध होना आवश्यक होता है| आवश्यकता अनुसार इस घी में कुछ सुगन्धित पदार्थ भी मिलाया जा सकता है| इस घी से अग्नि को तीव्र करने के लिए पांच आहुतियाँ देनी होती हैं, जो वैदिक अग्निहोत्र की एकादश क्रिया के अंतर्गत आती है, इसकी व्याख्या हम कल करेंगे|
डॉ. अशोक आर्य
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