सुन कर हैरान होंगे कि शेय़र बाजार का डूबना भारत के लिए अच्छा है! हां, मैंने यह तर्क आर्थिकी के अच्छे दिन आने की थीसिस देने वाले की जुबान से सुना है। कहना था शेयर बाजार जितना डूबेगा उतना क्रोनी पूंजीवाद से धांधली करने वाले पंद्रह-बीस कॉरपोरेट ठिकाने लगेंगे। शेयर बाजार का मेन्युपलेशन खत्म होगा। क्रोनी कंपनियों के सेठों ने जबरदस्ती शेयर बाजार ऊंचा उठाया हुआ है। सेंसेक्स 15 हजार पर होना चाहिए था लेकिन 25 हजार के पार पहुंचा रखा था। यह गिर रहा है तो इससे आर्थिकी को खतरा नहीं है। चिंता की जरूरत नहीं है। आर्थिकी में सुधार है। शेयर रियल वेल्यू पर जा रहे हैं!
इस दलील का मतलब यह भी है कि मोदी सरकार का फिलहाल मकसद आर्थिकी की साफ-सफाई है। कॉरपोरेट दो नंबर के तौर-तरीकों से शेयर बाजार को घूमाते थे। बैंकों को उल्लू बनाते थे। कालेधन की काली आर्थिकी को चलाए हुए थे उस सब पर मोदी सरकार की सख्ती है। इसलिए सबकुछ आज भले हड़बड़ाया व गड़बड़ाया दिख रहा है लेकिन अंततः आर्थिकी दौड़ेगी। भारत की अर्थव्यवस्था का कायाकल्प होगा।
थीसिस चौंकाने वाली है। आप-मैं और भारत के कारोबारी चाहे जो सोचें लेकिन मोदी सरकार के नीति-रीतिकारों में सौ टका विश्वास है कि आर्थिकी सही दिशा में है। सरकार पूरे आत्मविश्वास में है। इस सप्ताह यूएई के राजकुमार दिल्ली आए। उन पर सरकार ने खूब जादू मंतर किया। तभी वे भरोसा दे गए कि उनके वहां से भी अरबों डालर का निवेश आएगा। इस सप्ताह मुंबई में मेक इन इंडिया आयोजन से भी सरकार दिखलाएगी कि आर्थिकी का शेर चल पड़ा है।
तर्क है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो किया है वह आर्थिकी में ऐसा स्ट्रक्चरल, बुनियादी परिवर्तन है जिससे अभी भले लड़खड़ाया, ठहरा हुआ लगे लेकिन जब नतीजे आएंगे तो सबकुछ बदला हुआ होगा।
इस रोडमैप में बुनियादी बात कालेधन की आर्थिकी को खत्म करना है। क्रोनी पूंजीवादी कॉरपोरेट को औकात दिखलाना है। तीसरे, वैश्विक ताकतों के भारत में अरबों-खरबों डालर के निवेश की पाइपलाइन बिछवा देना है। साल, दो साल में इस पाइपलाइन से डालर पानी की तरह जब बहता हुआ भारत में काम-धंधा बनवाएगा तो भारत अपने आप सोने की चीड़िया बन जाएगा। नरेंद्र मोदी नई साफ-सुथरी आर्थिकी का सुनहरा बाग बनवाने वाले बागवान साबित होंगे। वह वायदों और अच्छे दिनों के आने का वक्त होगा।
इसलिए अभी भले अंधेरा है। शेयर बाजार ने गिरावट से सभी की धड़कनें गिरा दी हैं लेकिन उसके बाद झकाझक रोशनी है। अब इस थीसिस, आत्मविश्वास की हकीकत आगे वक्त बताएगा। फिलहाल अपन अपने विश्लेषण में आर्थिकी में अंधेरा मान रहे हैं। सेंसेक्स यदि 20 हजार के आंकड़े को जल्द छू ले और रुपया प्रति डालर 70 के पार हो जाए तो आश्चर्य नहीं होगा। सबकुछ बेतरतीब है।
पिछले रविवार मैंने लिखा था कि राजनीति, राजकाज बिना धागे के है। कोई बुनावट नहीं है। वैसे ही आर्थिकी भी बिना धागे के बिखरी हुई है। सरकार ने बार-बार कहा है कि सार्वजनिक खर्च याकि संरचनात्मक ढांचे पर पब्लिक स्पेंडिग इतनी जोरदार होगी कि उस पर धंधा करने को निजी क्षेत्र की पूंजी उमड़ पड़ेगी। नितिन गडकरी, निर्मला सीतारमण सब कह रहे हैं कि अटके प्रोजेक्ट क्लियर हो गए हैं। काम चल पड़ा है।
यदि ऐसा है तो कारोबारियों, उद्योगपतियों के सेंटीमेंट्स को पाला क्यों मारा हुआ है? क्यों इंफ्रास्ट्रक्चर, पावर कंपनियों को ले कर भी निवेशक भरोसे में नहीं हैं? तर्क के नाते बात ठीक है कि वैश्विक गिरावट, बदहाली के कारण भारत बदहाल है। पर हकीकत क्या उलटी नहीं है? दुनिया के हालातों से तो भारत की चांदी है। पेट्रोल, जिंस बाजार में दामों की वैश्विक रिकार्ड तोड़ गिरावट से भारत को बचत ही बचत है। उस नाते दुनिया में भारत की आज यह धाक होनी चाहिए कि भारत का आयात बिल घटा है। विदेशी मुद्रा संकट नहीं है। भारत में उत्पाद लागत कम होगी। निर्यात बढ़ेंगे। भारत के मजे ही मजे हैं। इस बेसिक विश्वास होना चाहिए। इससे फिर विदेशी संस्थागत निवेशक याकि एफआईआई को भारत के शेयर बाजार में पैसा उड़ेले रहना चाहिए था।
इसकी बजाय ये निराशा में घबराए शेयर बेच भारत से निकल भाग रहे हैं तो मामला क्या कुछ और नहीं है?
वैश्विक बदहाली में यह बात समझ आती है कि चीन, जापान, फ्रांस, जर्मनी, आस्ट्रेलिया, खाड़ी के राजकुमार ने भारत में पैसा लगाने का जो वायदा कर रखा है वह वैश्विक चिंता के कारण ठहरा है। आखिर जब चीन खुद लड़खड़ाया हुआ है तो उसके राष्ट्रपति का भारत में बिलियन डालर निवेश का वायदा कैसे पूरा हो सकता है? पर नितिन गडकरी के मंजूर किए सड़क प्रोजेक्ट पर तो सरकारी खर्च शुरू हो जाना चाहिए था? पावर, कोल, रेल आदि के सरकारी इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट में पैसा निवेश शुरू हो जाना चाहिए था। उसके भी यदि दर्शन नहीं हैं तो कारण क्या यह नहीं कि सरकारी टेंडर पर जिन कंपनियों को काम लेना चाहिए, या जिन्होंने लिया है वे बैंकों से फाईनेंस करवाने में समर्थ नहीं हैं। सरकारी टेंडर भले हों लेकिन जोखिम के कारण सबकुछ अटका हुआ है।
पेंच अटकना है। मतलब विचार है, मंजूरी है, व्यवस्था है लेकिन साहस, उद्यमशीलता को अनिश्चितता व चिंता का पाला मारा हुआ है। न कारोबारी काला धन निकाल रहे हैं और न सफेद धन उड़ेलने को तैयार हैं। भारत की अर्थव्यवस्था अभी तक काले और सफेद धन की समानांतर पटरी पर दौड़ा करती थी। सरकार ने बिना सोचे-समझे काले धन की पटरी को हटवा दिया। हिसाब से यह साहसिक, अच्छी और दूरगामी महत्व वाली बात है। पर फिलहाल तो इसने सब कुछ जाम कर दिया है। कुछ जानकारों का सही मानना है कि आर्थिकी के अच्छे माहौल में, उसे दौड़ाते हुए यदि कालेधन को खत्म करने की बात होती तो उससे बात बनती। अब तो सब जाम रहेगा। ठहरी हुई अर्थव्यवस्था और धंधों में काले धन को ठहरा देना देश को ही ठहरा देना है।
सो दोनों तरह के विचार हैं। एक तरफ थीसिस है कि सबकुछ पहले डूबेगा तब नया निकलेगा। दूसरी थीसिस है कि डूबना रुक नहीं सकता। अब इसमें से आप अपने रुझान अनुसार थीसिस चुने।
साभार- http://www.nayaindia.com/ से